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संत रैदास और बेगमपुरा की खोज

बेगमपुरा यानी ऐसा नगर जहां कोई उत्पीड़न-शोषण न हो, केवल आनंद ही आनंद का राज हो
रैदास व्यर्थ के कर्मकांड और रीति-रिवाजों के खिलाफ थे

किशोर कुमार, जिनकी मृत्यु को सत्यजित राय ने “एक जीनियस की मृत्यु” कहा था, ने 1964 में एक फिल्म बनाई थी जिसका नाम था दूर गगन की छांव में। इसमें सब कुछ उनका था- कहानी, पटकथा, गीत, गायन, संगीत निर्देशन, अभिनय और निर्देशन। यह एक संवेदनशील व्यक्ति के यूटोपिया के बारे में फिल्म थी, जिसका यह गीत आज भी लोगों की जुबान पर है: “आ चल के तुझे मैं ले के चलूं एक ऐसे गगन के तले, जहां गम भी न हो, आंसू भी न हो, बस प्यार ही प्यार पले”। शायद बहुत लोग न जानते हों कि एक ऐसे स्थान या नगर की खोज का यह सिलसिला बहुत पुराना है जहां कोई दुख या गम न हो, और इस खोज की कड़ी पन्द्रहवीं और सोलहवीं सदी के संत कवि रैदास से जुड़ती है, जिन्होंने बेगमपुरा की कल्पना की थी। बेगमपुरा यानी एक ऐसा नगर जहां कोई टैक्स न हो, कोई उत्पीड़न-शोषण न हो और केवल आनंद ही आनंद का राज हो। पिछले दिनों जब दिल्ली के तुगलकाबाद में उनको समर्पित एक मंदिर को तोड़ा गया और इस पर विवाद खड़ा हुआ, तो रैदास भी बहुत दिनों के बाद चर्चा के केंद्र में आए। भक्ति काल के संत कवियों में कबीर इतने अधिक लोकप्रिय हैं कि रैदास, दादू और धन्ना जैसे संत कवि समकालीन विमर्श के हाशिए पर चले गए हैं।

रैदास निचली दलित जाति में पैदा हुए थे, लेकिन उनमें आत्म-गौरव का भाव इतना प्रबल था कि उन्होंने शर्मिंदा होने के बजाय खम ठोक कर निस्संकोच इस तथ्य का बार-बार उल्लेख किया। “कहै रैदास खलास चमारा”, “प्रेम भगति कै कारनै, कहु रविदास चमार” आदि अनेक कथन उनकी बानियों में फैले हुए हैं जिनसे उनके उच्च मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक धरातल का पता चलता है। अपने समय में संतों के बीच उनका कितना मान था इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब सिखों के पांचवें गुरु अर्जनदेव ने आदि ग्रंथ का संकलन किया तो कबीर, नामदेव और सूफी संत बाबा शेख फरीद के साथ-साथ रैदास के भी 40 पद उसमें शामिल किए। अमृतसर के हरमंदिर साहिब में आदि ग्रंथ की प्रतिष्ठा 1604 में की गई। दसवें गुरु गोबिंद सिंह ने इसमें कुछ और जोड़ कर इसे गुरु ग्रंथ साहिब का अंतिम रूप दिया और उनके बाद सभी सिख इसे जीवित गुरु मानते हैं। सिख पंथ की यह विशेषता अद्वितीय है कि उसके पूज्यतम ग्रंथ में सिख गुरुओं की ही नहीं, अन्य महत्वपूर्ण संतों की वाणी भी सम्मिलित की गई है। धार्मिक सहिष्णुता और समावेशी दृष्टि का इससे बेहतर उदाहरण मिलना मुश्किल है।

वैष्णव संत नाभादास ने भी रैदास की भूरि-भूरि प्रशंसा की है क्योंकि उन्होंने उन्हें ‘वर्णाश्रम-अभिमान’ से मुक्त किया यानी उनके जाति-आधारित गर्व से उन्हें छुटकारा दिलाया। अपने पूर्ववर्ती और समकालीन संतों की तरह ही रैदास भी व्यर्थ के कर्मकांड और रीति-रिवाजों के खिलाफ थे और इनकी तुलना में भक्ति को, मन की निर्मलता को और सदाचरण को महत्व देते थे। गंगा-स्नान करने से पाप धुलते हैं, इसके जवाब में उनकी मशहूर उक्ति है “मन चंगा तो कठौती में गंगा”। जिस तरह कबीर ने जुलाहे के उपकरणों को रूपक के रूप में इस्तेमाल करके अपनी बात कही, उसी तरह रैदास ने भी चर्मकार के उपकरणों और काम- जैसे पानी रखने की काठ से बनी कठौती और जूते गांठने की प्रक्रिया-का प्रयोग आध्यात्मिक अर्थों को खोलने में किया।

कबीर की तरह रैदास भी बनारसी थे। उनका जन्म बनारस के पास मांडूर नामक गांव में रग्घू और घुरबिनिया नामक दंपती के यहां हुआ था। कबीर की तरह ही रैदास ने भी सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था और शोषण पर आधारित उसके चरित्र के खिलाफ आवाज उठाई, लेकिन उनका स्वर कबीर जैसा उग्र नहीं है। कबीर के समान उन्हें भी रामानन्द का शिष्य माना जाता है और मान्यता है कि वे सगुण भक्ति मार्ग के पहले अनुयायी थे, लेकिन बाद में निर्गुण भक्ति की ओर उन्मुख हुए। यह  मान्यता भी है कि प्रसिद्ध भक्त कवयित्री मीरा बाई ने उनसे दीक्षा ली थी। क्योंकि मध्यकालीन इतिहास के बहुत से कोने आज भी अंधेरे में हैं, इसलिए इन सभी मान्यताओं पर विवाद भी है। जो भी हो, उनका भक्ति भावना से ओतप्रोत पद “” आज भी लोगों की जुबान पर चढ़ा हुआ है और शास्‍त्रीय गायकों से लेकर लोक गायकों तक- सभी इसे गा-गाकर अपने को धन्य समझते हैं।

यह भी एक विडंबना ही है कि संत रैदास जैसे भक्त और समाज सुधारक को पूरे देश तथा समाज का पूज्य व्यक्तित्व न मानकर एक जाति-विशेष की सीमा में कैद कर दिया गया है। दूसरी विसंगति यह है कि प्रसिद्ध समाजशास्‍त्री एम.एन. श्रीनिवास के “संस्कृतिकरण” के सिद्धांत के अनुसार चमार समुदाय की ओर से पिछली शताब्दी के पूर्वार्ध में अपने क्षत्रियवंशी होने के दावे भी किए गए और “चंवर पुराण” जैसे ग्रंथ लिखे गए जिनमें रैदास को विष्णु के दरबार में हाजिर दिखाकर उनके क्षत्रिय मूल का होना सिद्ध किया गया। जबकि रैदास को अपने चमार होने पर कोई शर्मिंदगी नहीं थी, क्योंकि उन्हें मनुष्यत्व में आस्था थी और उनका विश्वास था कि मनुष्य के गुणों को देखा जाना चाहिए, जाति को नहीं।

आज के भारत में, जहां “जात ही पूछो साधु की” का चलन बढ़ता जा रहा है और संन्यासी होने के बावजूद उमा भारती और योगी आदित्यनाथ की जाति का उल्लेख अवश्य किया जाता है, रैदास के जीवन और आदर्शों का स्मरण करना सभी भारतीयों का कर्तव्य है।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)

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