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रहस्य की कुछ परतें खुलीं

कंकालों के ताजा डीएनए अध्ययन का चौंकाने वाला पहलू यह है कि उनमें से कुछ का संबंध पूर्वी भूमध्यसागरीय देशों ग्रीस और क्रीट से था
रहस्यमयी झीलः रूपकुंड में तैरते कंकालों के नए अध्ययन से रहस्य और बढ़ा

हिमालय में त्रिशूल और नंदा घुंटी चोटियों के तल पर स्थित रूपकुंड का नैसर्गिक सौंदर्य हमेशा से लोगों को रोमांचित करता रहा है। अत्यंत दुर्गम स्थल होने के कारण एडवेंचर पसंद सैलानियों को यह जगह बहुत भाती है। कुछ लोग यहां ट्रैकिंग के लिए भी आते हैं। लेकिन उत्तराखंड के चमोली जिले में करीब 5,000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह बर्फीली झील अपने मानव कंकालों की वजह से ज्यादा चर्चा में रही है। शायद इसी वजह से इसका नाम ‘कंकालों की झील’ भी पड़ गया। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान एक फॉरेस्ट गार्ड ने पहली बार रूपकुंड में इन कंकालों को देखा था। ये कंकाल किन लोगों के हैं और उनकी मृत्यु कब और कैसे हुई, ये प्रश्न हमेशा एक बड़ी पहेली बने रहे। पहले अनुमान लगाया गया था कि ये कंकाल जापानी सैनिकों के हो सकते हैं जो भारत पर हमला करने के उद्देश्य से आए होंगे। लेकिन बाद में यह बात साफ हो गई कि ये कंकाल सैकड़ों वर्ष पुराने हैं, अतः इनका जापान से कोई संबंध नहीं है। गर्मियों में झील की बर्फ पिघलने पर और अधिक अस्थिपंजर पानी में तैरते हुए दिखे और बहुत से उसके किनारों पर जमा हो गए। इन लोगों की मृत्यु के बारे में कई तरह की कहानियां प्रचलित हैं। कुछ लोगों ने यह अटकल लगाई कि इन लोगों की मृत्यु किसी भूस्खलन या महामारी में हुई। कुछ लोगों ने सामूहिक आत्महत्या की थियरी रखी। सबसे ज्यादा प्रचलित थियरी के अनुसार इन लोगों की मौत बर्फीले तूफान की चपेट में आने से हुई।           

अब अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों के एक दल ने हिमालय स्थित रूपकुंड झील के 800 मानव कंकालों के रहस्य को सुलझाने का दावा किया है लेकिन उनके निष्कर्षों ने बर्फीली झील में बिखरे हुए कंकालों के बारे में कुछ नए सवाल भी पैदा कर दिए हैं। 2,000 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में किए गए डीएनए अध्ययन में अनुमान लगाया गया था कि रूपकुंड के किनारे मरने वाले लोग दक्षिण एशिया के रहने वाले थे और ये सभी लोग एक हजार वर्ष पहले एक ही घटना में मारे गए थे। लेकिन अब 38 व्यक्तियों के संपूर्ण जीनसमूह के डीएनए-विश्लेषण ने वैज्ञानिकों के पुराने निष्कर्षों को एकदम पलट दिया है। नए नतीजों से पता चलता है कि रूपकुंड के पहले ग्रुप में दक्षिण एशियाई मूल के 23 लोग थे लेकिन इनकी मृत्यु सातवीं और दसवीं शताब्दियों के बीच किसी एक या विभिन्न घटनाओं में हुई थी। ये दक्षिण एशियाई लोग संभवतः भारतीय रहे होंगे। इनके अलावा रूपकुंड के कंकालों में 14 लोगों का दूसरा ग्रुप शामिल है जिनकी मृत्यु एक हजार वर्ष बाद किसी एक ही घटना में हुई थी। अध्ययन में सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह थी कि इस ग्रुप का आनुवंशिक संबंध दक्षिण एशिया के लोगों से नहीं था। ये लोग पूर्वी भूमध्यसागरीय देशों से आए थे। संभवतः ये लोग ग्रीस और क्रीट के रहने वाले थे। भूमध्यसागरीय ग्रुप के साथ एक और व्यक्ति की मृत्यु हुई थी लेकिन वह दक्षिण पूर्वी एशिया का निवासी था। इन लोगों का एक-दूसरे से कोई संबंध नहीं था। आहार के आइसोटोपिक अध्ययन से पता चला कि भूमध्यसागरीय और दक्षिण एशियाई लोगों का खाना-पीना एकदम अलग था। एक सबसे बड़ा सवाल यह है कि भूमध्यसागरीय लोग रूपकुंड क्यों गए और उनकी मृत्यु कैसे हुई? शोधकर्ताओं के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है।

लखनऊ स्थित बीरबल साहनी पुराविज्ञान संस्थान के वैज्ञानिक और इस अध्ययन के सह-लेखक नीरज राय का कहना है कि हमने रूपकुंड में मिले नर कंकालों के सभी आनुवंशिक रिश्तों का उत्तर देने का प्रयास किया है लेकिन हम इस सवाल का उत्तर नहीं खोज पाए कि भूमध्यसागरीय लोगों ने झील तक की यात्रा क्यों की और वे वहां क्या करने गए थे। उनकी मृत्यु का कारण भी स्पष्ट नहीं हो पाया। रूपकुंड में जिन लोगों के अस्थि-पंजर पाए गए हैं उनका युद्ध में मरना संभव नहीं लगता क्योंकि रूपकुंड में पुरुषों के साथ महिलाओं के भी अस्थिपंजर मिले हैं। वहां कोई हथियार नहीं मिला और युद्ध की हिंसा का भी कोई चिह्न नहीं दिखा। मृत्यु के समय ये लोग स्वस्थ थे,अतः इनके किसी महामारी से मारे जाने की संभावना भी नहीं लगती। एक स्थानीय किंवदंती या प्रचलित कथाओं में इन लोगों की मृत्यु का कुछ संकेत मिलता है। इस किंवदंती में ‘राजजात यात्रा’ का उल्लेख है जो हर 12 साल बाद नंदा देवी की पूजा-अर्चना के लिए निकाली जाती है। किंवदंती के अनुसार नंदादेवी तीर्थयात्रियों के अभद्र और अशोभनीय व्यवहार से क्रुद्ध हो गईं। देवी के क्रोध के फलस्वररूप आसमान से तीर्थयात्रियों पर ‘लोहे के गोले’ बरसे। एक अन्य किंवदंती के अनुसार कन्नौज के राजा जसधवल अपनी गर्भवती पत्नी रानी बलाम्पा के साथ तीर्थ यात्रा पर निकले थे। उनके जत्थे में ढोल-नगाड़ों के अलावा नर्तकियां भी शामिल थीं। इस दिखावे से देवी नाराज हो गईं। उसी दौरान बर्फीला तूफान आया और राजा का पूरा जत्था झील में समा गया। एक संभावना यह लगती है कि राज जात के दौरान मरने वाले लोग दरअसल तीर्थयात्री थे जो खराब मौसम और भयानक ओलावृष्टि की चपेट में आ गए होंगे। कहा जाता है कि इस यात्रा में इस्तेमाल किए गए छत्र भी अस्थि-अवशेषों के साथ मिले थे। कुछ लोगों की खोपड़ियों और कंधों की अस्थियों में फ्रेक्चर के निशान मिले थे जो किसी बड़े ओले (या किंवदंती में वर्णित ‘लोहे के गोले’) के प्रहार की वजह से हुए होंगे।

हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेलुलर ऐंड मॉलिक्युलर बायोलॉजी (सीसीएमबी) के वैज्ञानिक और इस अध्ययन के सह-लेखक कुमारसामी थंगराज ने बताया कि रूपकुंड के 72 कंकालों के माइक्रोकोंड्रिया डीएनए के क्रमबद्ध होने के बाद यह बात स्पष्ट हो गई थी कि झील में मौजूद कंकालों का संबंध विभिन्न आनुवंशिक ग्रुपों से है। थंगराज ने रूपकुंड के कंकालों के अध्ययन के लिए दस साल पहले लालजी सिंह के साथ सीसीएमबी में ‘एंशिएंट डीएनए क्लीन लैब’ की स्थापना की थी। लालजी सिंह को भारत में डीएनए फिंगर प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी का जनक माना जाता है। दो वर्ष पहले उनका देहांत हो गया था। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक और इस अध्ययन के प्रमुख लेखक एडोयन हर्नी ने कहा कि हम रूपकुंड के कंकालों की आनुवंशिकी से आश्चर्यचकित हैं। रूपकुंड में भूमध्यसागरीय लोगों की उपस्थिति यह दर्शाती है कि यह स्थल सिर्फ स्थानीय लोगों तक ही सीमित नहीं था। दुनिया के दूसरे देशों से भी लोग यहां आते थे। इस अध्ययन के प्रमुख लेखक और हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के वैज्ञानिक डेविड राइश ने कहा कि हमने डीएनए विश्लेषण, आहार के आइसोटोपिक अध्ययन और रेडियोकार्बन डेटिंग के जरिए यह सिद्ध कर दिया है कि रूपकुंड का इतिहास बेहद जटिल है। सीएसआईआर-सीसीएमबी के निदेशक राकेश मिश्र ने कहा कि यह अध्ययन जीनोमिक्स की ताकत को दर्शाता है। जीनोमिक्स संपूर्ण जीन-समूह को क्रमबद्ध करने और जीन-संपादन आदि से जुड़ा विज्ञान है और सामान्य आनुवंशिकी से भिन्न है। मिश्र के मुताबिक जीनोमिक्स से हमें अतीत को समझने में मदद मिलती है। इससे हमें देश के दूसरे हिस्सों में मिले प्राचीन अस्थि-अवशेषों के विश्लेषण में भी मदद मिलेगी।

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