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पुस्तक समीक्षा: लौकिक और आत्मिक के बीच का पल

‘स्माइल प्लीज’ ये सब सवाल खड़े करता है और पाठक को कहानी के प्रति एक निजी दर्शन बनाने पर मजबूर करता है।
कहानी के प्रति एक निजी दर्शन

कहानी क्या होती है? कहानी कहने का क्या अर्थ होता है? क्या कहानी एक घटना है या बहुत सारी घटनाओं को एक तार में बांधने को ‘स्टोरीटेलिंग’ कहते हैं? कहानी कल्पना है या सत्य के करीब है? कहानी की पहचान उसका कथा रस होता है या उसकी निजी राजनीति? सुधांशु गुप्त का कहानी संग्रह ‘स्माइल प्लीज’ ये सब सवाल खड़े करता है और पाठक को कहानी के प्रति एक निजी दर्शन बनाने पर मजबूर करता है। समकालीन हिंदी साहित्य में यह संग्रह छलनी की तरह काम करता है और पाठक को ऐसे साहित्य से रू-ब-रू करता है, जैसा कि उसे होना चाहिए।

इस संग्रह की कहानियां गहनता और अपार परिदृश्य में पाठकों को समेटती हैं और एक नए आत्मबोध पर ला कर छोड़ देती हैं। सुधांशु गुप्त असाधारण रूपकों को उठाते हैं, उसे झाड़ते-पोंछते हैं और पाठक के सामने रख देते हैं। इस प्रक्रिया में वे सामान्य को असामान्य के दर्जे पर ला छोड़ते हैं। रोजमर्रा की जिंदगी जो, सभी को प्रभावित करती है, सुधांशु उसे साहित्य में बदल देते हैं। अहम बात यह है कि यह सब बिना वे किसी आकर्षण के, ताने-बाने के साथ करते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि वे सिर्फ संवेदनाओं के बारे में बात करते हैं। असल में उनकी रचना शैली की यही खासियत है कि उनका कथा निर्माण शोर-गुल से अछूता रहता है। यहीं, परस्पर तनाव एक तार की तरह इस्तेमाल करते हुए वे कहानी के मर्म तक पहुंचने का रास्ता बनाते हैं।

मार्च में मई जैसी बात, मनी प्लांट और घर से बाहर घर निजी और लौकिक के बीच का पुल दिखाती है, वहीं स्माइल प्लीज, मिसफिट और मृत्यु का रोमांच जैसी कहानियां पाठकों को न केवल पात्रों, बल्कि अपनी खुद की अंदरूनी यात्रा पर ले जाती हैं। ये कहानियां सहज होते हुए भी जटिल ‘आई मैक्स मूवी’ जैसे दृश्यों से खुद को बांध लेती हैं।

सुधांशु की कहानियों के मुख्य पात्र का अपना दर्शन होता है। अपने लेखन में वे कभी भी भाषा ज्ञान का प्रदर्शन नहीं करते। सुधांशु यह साफ कर देते हैं कि कहानी कौशल या स्किल पर मेहनत करना लेखन की प्राकृतिक प्रक्रिया है। उनकी कहानियां समकालीन परिदृश्य में बेहद महत्वपूर्ण हैं और नए लेखकों के लिए गाइड का काम करती हैं।

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