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पुस्तक समीक्षा : साठ साल पहले अंतरराष्ट्रीय जगत में भारतीय किसानों की आवाज

पुस्तक समीक्षा : साठ साल पहले अंतरराष्ट्रीय जगत में भारतीय किसानों की आवाज
स्वामी सहजानंद सरस्वती के मेरा जीवन संघर्ष का और द बिहार प्रोविंसियल किसान सभा

आज दुनिया में किसानों की छवि खराब करने की साजिश के हल्ले के बीच यह जानना दिलचस्प है कि करीब 60 साल पहले एक अमेरिकी शोधार्थी वाल्टर हाउजर ने पहली बार अंतरराष्ट्रीय अकादमिक जगत में भारत के किसान आंदोलन की आवाज उठाई थी। उसके बाद से सत्तर के दशक में अकादमिक जगत में किसानों पर शोध और अध्ययन का सिलसिला चल पड़ा। हाउजर 1957 में शिकागो विश्वविद्यालय से भारत के सबसे बड़े किसान नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती और बिहार के किसान आंदोलन पर शोध करने के लिए भारत आए थे। वाल्टर जब छात्र थे तो कॉलेज में ‘विलेज इंडिया श्रृखंला’ सेमिनार में प्रख्यात इतिहासकार ए.एल. बाशम का भाषण सुनकर उन्होंने भारत और किसान आंदोलन को जाना।

 1959 में वाल्टर जब भारत आए तो राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह, जयप्रकाश नारायण, रामवृक्ष बेनीपुरी, कृष्णवल्लभ सहाय और कर्पूरी ठाकुर से मिले। तब से 2004 तक वे कई बार भारत आए। पीएचडी तो उन्हें 1961 में ही मिल गई पर स्वामी सहजानंद सरस्वती के अवदान के प्रति उनका अनुराग और यहां के किसानों का प्रेम उन्हें बार-बार खींचता रहा। जैसे स्वामी सहजानंद सरस्वती के जिक्र के बिना भारत में किसान आंदोलन की चर्चा नहीं की जा सकती, वैसे ही वाल्टर हाउजर के शोध को जाने बिना भारत के किसान आंदोलन के इतिहास को नहीं जाना जा सकता।

उस जमाने में अगर ट्विटर, भाजपा का आइटी सेल और ट्रोल आर्मी होती तो हाउजर को भी शायद रिहाना की तरह गालियां सुननी पड़तीं। अच्छा हुआ करीब डेढ़ साल पहले एक जून 2019 को 92 वर्ष की उम्र में वाल्टर हाउजर गुजर गए। लेकिन स्वामी सहजानंद सरस्वती की आत्मकथा का पहली बार अंग्रेजी में किया गया उनका अनुवाद दुनिया के सामने आ गया जो किसान आंदोलन का महत्वपूर्ण दस्तावेज है। इस काम में उनके भारतीय सहयोगी कैलाशचंद्र झा ने हाथ बंटाया, जो करीब 45 साल वाल्टर के संपर्क में रहे। इस आत्मकथा के हिंदी से अंग्रेजी अनुवाद में करीब बीस साल लग गए। हाउजर का शोध ग्रंथ भी उनके निधन से कुछ दिन पहले ही छप कर आया। देश में चल रहे किसान आंदोलन को देखते हुए राजनीतिकों, नौकरशाहों और पत्रकारों को ये किताबें जरूर पढ़नी चाहिए।

महात्मा गांधी ने जब चंपारण आंदोलन शुरू किया तो उस समय नील की खेती करने वाले किसान अंग्रेजों के अत्याचार से परेशान थे। गांधी ने उन्हें मुक्ति दिलाई पर बाद में देश को आजादी दिलाना कांग्रेस का पहला लक्ष्य बन गया। स्वामी सहजानंद सरस्वती ने जमींदारों के खिलाफ आवाज बुलंद की और यह उनके संघर्ष का ही नतीजा था कि आजादी के बाद जमींदारी उन्मूलन का कानून बना। 1950 में स्वामी जी चल बसे।

कानून बनने के बाद भी किसानों को पूरी तरह मुक्ति नहीं मिली। छोटे और सीमांत किसान हमेशा से संकट में रहे। अब भारत के किसान अंग्रेजों और जमींदारों के नहीं बल्कि कॉरपोरेट के चंगुल में फंसने जा रहे हैं। कैलाश चंद्र झा का कहना है, “हमें वाल्टर हाउजर का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने पहली बार भारत के किसान आंदोलन को अकादमिक जगत में पेश किया।”

झा का कहना है कि स्वामी सहजानंद सरस्वती और वाल्टर हाउजर किसान आंदोलन की ऐसी कड़ी हैं जो, बताते हैं कि किसी देश के विकास में किसानों की कितनी अहमियत है। 1920 में स्वामी सहजानंद सरस्वती की गांधी जी से मुलाकात पटना में हुई थी। वे गांधी जी से इतने प्रभावित हुए कि कांग्रेस के काम में जुट गए। लेकिन उनकी चिंता के केंद्र में किसान थे। 1928 में उन्होंने ही पश्चिम पटना प्रांतीय किसान सभा का गठन किया और 1936 में लखनऊ में अखिल भारतीय किसान सभा का गठन हुआ। इसमें राजेंद्र बाबू से लेकर वामपंथी नेता ई.एम.एस. नंबूदरीपाद तक शामिल हुए थे। सुभाष चंद्र बोस भी स्वामी जी के व्यक्तिव से प्रभावित थे। लाल किले में पिछले दिनों आइएनए का जो संग्रहालय बना है, उसमे सुभाष बाबू के साथ स्वामी जी की तस्वीर देखी जा सकती है। सुभाष बाबू स्वामी जी को बड़ा आंदोलनकर्मी मानते थे। उस जमाने में पटना में स्वामी जी की सभा में एक लाख लोगों की भीड़ उमड़ी थी।

वाल्टर हाउजर ने स्वामी जी को अंतरराष्ट्रीय मंच पर स्थापित किया। वाल्टर के शिष्यों में क्रिस्टोफर हिल जैसे बड़े इतिहासकार और कोहेन जैसी समाज विज्ञानी हैं। वाल्टर हाउजर, स्वामी जी और भारतीय किसान आंदोलन एक-दूसरे के पर्याय बन गए हैं। हाउजर 1960 से 1995 तक वर्जीनिया विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर रहे। उन्होंने रोमिला थापर, इरफान हबीब, कर्ण सिंह, यशवंत सिन्हा को अमेरिका आमंत्रित किया।

आज किसान नेताओं की बस इतनी मांग है कि तीनों विवादास्पद कानून रद्द किए जाएं जबकि 1936 में अखिल भारतीय किसान सभा ने उस जमाने में 26 मांगें रखी थीं। ब्रिटिश सरकार को बंगाल टेनेंसी कानून वापस लेना पड़ा था तो आज हमारी सरकार ये विवादास्पद कानून क्यों नहीं वापस ले सकती।

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