Advertisement

टेलीकॉम पैकेज: देर आयद दुरुस्त आयद

पैकेज से बंदी के कगार पर पहुंची वोडाफोन-आइडिया को राहत
कुमारमंगलम बिरला

वोडाफोन-आइडिया के दिवालिया होने की आशंकाओं के बीच सरकार ने दूरसंचार उद्योग को बड़ी राहत दे दी है। इनमें सरकार का बकाया भुगतान करने से कंपनियों को चार साल की छूट, स्पेक्ट्रम साझा करने की अनुमति, बैंक गारंटी में कमी, ऑटोमेटिक रूट से 100% विदेशी निवेश और भविष्य में खरीदे जाने वाले स्पेक्ट्रम पर यूजेज चार्ज खत्म करना शामिल हैं। नॉन-टेलीकॉम बिजनेस से मिलने वाली रकम को रेवेन्यू की परिभाषा से बाहर करना भी कंपनियों के लिए बड़ी राहत है।

वोडाफोन-आइडिया पर अभी 1.9 लाख करोड़ रुपये की देनदारी है। इसमें स्पेक्ट्रम का बकाया 1.06 लाख करोड़, एजीआर का 62,180 करोड़ और बैंकों तथा वित्तीय संस्थानों का 23,400 करोड़ रुपये का कर्ज है। नए फैसले के बाद कंपनी को 1.68 लाख करोड़  रुपये का भुगतान चार साल तक न करने की रियायत मिल गई है। यही देनदारी कंपनी के लिए सबसे बड़ी मुसीबत थी। हालांकि मोरेटोरियम के दौरान बकाया रकम पर ब्याज देना पड़ेगा। मोरेटोरियम के बाद सरकार के पास बकाया रकम को इक्विटी में बदलने का विकल्प होगा।

दूरसंचार कंपनी के सकल राजस्व यानी एजीआर में अभी तक टेलीकॉम के अलावा दूसरे बिजनेस से मिलने वाली रकम को भी जोड़ा जाता था। मामला सुप्रीम कोर्ट गया तो कोर्ट ने भी कंपनियों के खिलाफ निर्णय दिया। अब सरकार ने फैसला किया है कि सिर्फ टेलीकॉम बिजनेस से मिलने वाली रकम को एजीआर में शामिल किया जाएगा। कंपनियों को एजीआर का तीन से पांच फीसदी स्पेक्ट्रम यूजेज चार्ज (एसयूसी) और आठ फीसदी लाइसेंस फीस सरकार को देना पड़ता है। अब एजीआर कम होने पर उनकी देनदारी कम हो जाएगी। हालांकि दूरसंचार मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कहा कि ‘टेलीकॉम राहत पैकेज’ से सरकार को न नफा होगा न नुकसान। अन्य फैसलों में लाइसेंस फीस और स्पेक्ट्रम यूजेज चार्ज के भुगतान में देरी पर पेनाल्टी का प्रावधान खत्म करना और स्पेक्ट्रम की अवधि 20 साल से बढ़ाकर 30 साल करना शामिल हैं।

टेलीकॉम इंडस्ट्री के लिए एजीआर ही सबसे बड़ी समस्या थी। राष्ट्रीय टेलीकॉम नीति 1994 के बाद शुरू में दूरसंचार विभाग (डॉट) तयशुदा लाइसेंस फीस के आधार पर स्पेक्ट्रम देता था। 1999 में एनडीए सरकार रेवेन्यू शेयरिंग फीस मॉडल लेकर आई। इसमें तय लाइसेंस फीस के बजाय कंपनी को एजीआर के अनुपात में सरकार को लाइसेंस फीस और स्पेक्ट्रम यूजेज चार्ज देना था। समस्या उसके बाद ही शुरू हुई। ड्राफ्ट लाइसेंस एग्रीमेंट के अनुसार इंस्टालेशन चार्ज, ब्याज, डिविडेंड, एसेट बिक्री पर होने वाले लाभ आदि को भी ग्रॉस रेवेन्यू में शामिल किया गया। टेलीकॉम कंपनियों का कहना था कि उन्हें जिस काम के लिए स्पेक्ट्रम दिया गया है, उसी काम से होने वाली कमाई को रेवेन्यू में शामिल किया जाए।

एजीआर की इसी सरकारी नीति की वजह से ढाई दशक के छोटे से अंतराल में देश की 12वीं दूरसंचार कंपनी वोडाफोन-आइडिया बंद होने के कगार पर पहुंच गई। यह ऐसे समय हुआ जब आधुनिक अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए इसकी रीढ़ कहे जाने वाले दूरसंचार क्षेत्र की सबसे ज्यादा दरकार है। कंपनी के दोनों प्रमोटर वोडाफोन और आदित्य बिड़ला समूह ने कहा है कि वे कंपनी में कोई नया निवेश नहीं करेंगे। दरअसल, कंपनी को नए निवेशक मिल ही नहीं रहे थे। आदित्य बिड़ला समूह के चेयरमैन कुमारमंगलम बिड़ला ने 4 अगस्त को कंपनी के चेयरमैन और डायरेक्टर पद से इस्तीफा दे दिया। कैबिनेट सचिव को उन्होंने पत्र लिखा कि सरकार जिसे कहेगी उसे मैं अपनी हिस्सेदारी सौंपने के लिए तैयार हूं।

जियो का आना

2016 में रिलायंस जियो के आने के बाद कंपनी सात महीने तक ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए मुफ्त सेवाएं देती रही। रिलायंस इंडस्ट्रीज जैसी कैश रिच कंपनी के लिए ऐसा करना संभव था, लेकिन पुरानी कंपनियों के लिए यह बड़ा मुश्किल था क्योंकि उनके सामने एजीआर और दूसरे भुगतान की समस्या थी। स्पेक्ट्रम खरीदने के लिए कंपनियों ने पहले ही कर्ज ले रखा था। वोडाफोन-आइडिया ने जियो का नाम लिए बगैर 2017-18 की सालाना रिपोर्ट में लिखा, “नए 4जी ऑपरेटर के प्लान बेहद कम कीमत वाले हैं। पुराने ऑपरेटरों को बड़े डिस्काउंट वाले अनलिमिटेड वॉयस और डेटा प्लान लाने पड़े। घरेलू और अंतरराष्ट्रीय मोबाइल टर्मिनेशन चार्ज में भारी कटौती से भी कंपनी का रेवेन्यू प्रभावित हुआ और इसमें 20.5 फीसदी गिरावट आई।”

आइडिया 2016-17 की सितंबर तिमाही तक मुनाफे में थी। 5 सितंबर 2016 को रिलायंस जियो लांच हुआ और दिसंबर तिमाही से आइडिया घाटे में आ गई। मार्च 2017 में आइडिया में वोडाफोन के विलय की घोषणा हुई और अगस्त 2018 में विलय पूरा हुआ। लेकिन कंपनी की हालत बिगड़ती गई। इसे 2018-19 में 14,603 करोड़, 2019-20 में 73,878 करोड़, 2020-21 में 44,233 करोड़ रुपये यानी तीन साल में 1,32,714 करोड़ रुपये का घाटा हुआ।

टेलीकॉम में प्रतिस्पर्धा से ग्राहकों को कम कीमत में सेवाएं मिलीं। भले सर्विस क्वालिटी विश्वस्तरीय न हो। लेकिन अगर दो कंपनियां रह गईं तो ग्राहकों को सेवाओं की अधिक कीमत चुकानी पड़ सकती है। अगर किसी कंपनी की सर्विस क्वालिटी खराब है, तो उसके पास दूसरी कंपनी के पास जाने का एक ही विकल्प होगा। उम्मीद है फिलहाल ग्राहकों को ऐसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ेगा।

Advertisement
Advertisement
Advertisement