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जनादेश’21 : ताकतवर क्षत्रपों की वापसी

चार राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश के विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय नेता ताकतवर होकर उभरे, जो केंद्र को हर मायने में चुनौती देने को तैयार
बढ़ी ताकतः केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन और असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा सरमा

हर चुनाव निराले नतीजे लेकर आता है और सियासत का रंग-ढंग बदल जाता है। चार राज्यों असम, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और केंद्र शासित पुदुच्चेरी के विधानसभा चुनावों के 2 मई को आए नतीजों के पहले और बाद की घटनाओं पर जरा नजर डालिए तो उतने से ही साफ हो जाता है कि क्या कुछ बदला है और आगे क्या होने वाला है। असम में दो चरणों के मतदान संपन्न होने के बाद कांग्रेस की अगुआई वाले महाजोट ने अपने कुछ जीतने योग्य उम्मीदवारों को भाजपा की कथित खरीद-बिक्री से बचाने के लिए जयपुर में सुरक्षित भेज दिया था। पहली टोली के बाद दूसरी टोली भी आने वाली थी और गुवाहाटी में उन्हें इकट्ठा किया जा रहा था। लेकिन तभी कोरोना की दूसरी लहर का खतरनाक संक्रमण बेपनाह बढ़ने लगा और राहुल गांधी के कहने पर वह प्रक्रिया रोक दी गई। उधर, बंगाल में ममता बनर्जी हर सभा में कहती घूम रही थीं कि तृणमूल कांग्रेस को 200 से ज्यादा सीटों पर जिताइए, वरना गद्दारों की खरीद-बिक्री शुरू हो जाएगी। लेकिन 2 मई के नतीजों के बाद भाजपा बंगाल में चुनाव बाद हिंसा का मुद्दा उठाने लगी और अपने सभी 77 विधायकों को केंद्रीय सुरक्षा बलों की सुरक्षा मुहैया करा दी। एक तो, ऐसी एकतरफा केंद्रीय सुरक्षा मुहैया कराने की नजीर नहीं है, उपद्रवग्रस्त इलाकों में भी ऐसा सभी निर्वाचितों के लिए कभी नहीं हुआ। दूसरे, अटकलें ये भी हैं कि कुछ नवनिर्वाचित भाजपा विधायक और तृणमूल के पुराने नेता घर वापसी की राह तलाश रहे हैं, उसे ही रोकने के लिए केंद्रीय सुरक्षा बलों की निगरानी बैठाई जा रही है।

बंगाल में ही नहीं, असम में भी खासकर भाजपा केंद्रीय नेतृत्व को हेमंत बिस्वा सरमा के आगे झुकना पड़ा, जो इन चुनावों में पार्टी की जीत का इकलौता राज्य है। वहां मुख्यमंत्री पद को लेकर चली रस्साकशी का अंदाजा इसी से लग सकता है कि नेता का नाम दिल्ली में तय होने में सात दिन लग गए, जबकि चुनाव वाले सभी राज्यों में मुख्यमंत्रियों ने शपथ ले ली थी। दिल्ली में पूर्व मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल और हेमंत बिस्वा सरमा दोनों पहुंचे। हेमंत बिस्वा सरमा से जब पूछा गया कि क्या फैसला हुआ तो बड़ी बेफिक्री से उन्होंने कहा कि कल गुवाहाटी में पार्टी विधायक दल की बैठक में सब जाहिर हो जाएगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के तहत भाजपा का शायद ही कोई नेता इतनी बेफिक्री से अपना दावा पेश कर सकता है। यानी जहां भाजपा जीती भी, उसमें भी केंद्रीय नेतृत्व का एकछत्र दबदबा नहीं रहा, जिसकी कोशिश हर चुनाव में करने की कोशिश दिखती है। उस छोटे-से पुदुच्चेरी में भी नहीं, जहां वह दिग्गज नेता तथा मुख्यमंत्री एन. रंगास्वामी की पार्टी की छोटी सहयोगी है।

भाजपा नेतृत्व ममता को कमजोर करने की कोशिश में बुरी तरह नाकाम हुआ। इसी नाकामी को छुपाने के लिए चुनाव नतीजों के बाद हुई हिंसा को ज्यादा तूल दिया गया

 

दरअसल इन चुनावों में भाजपा का निशाना देश में विपक्ष की बची रह गई (चुनावों के पहले तक) सबसे मजबूत आवाज ममता बनर्जी को औकात दिखाने की थी। उसे पिछले लोकसभा चुनावों में अचानक दो से 18 सीटें और 40 फीसद वोट हासिल होने से यह हौसला मिल गया था कि ममता बनर्जी भी कमजोर कर दी गईं तो देश में कोई भी अगले लोकसभा चुनावों में केंद्र में चुनौती देने वाला नहीं बचेगा। इसी उम्मीद में प्रधानमंत्री और केंद्रीय गृह मंत्री समेत पार्टी के तमाम मुख्यमंत्रियों और नेताओं ने जैसे डेरा ही डाल दिया था। ऐन चुनाव के पहले ममता की पार्टी से कई दलबदल कराए गए। दावा किया गया कि चुनाव खत्म होते-होते ममता अकेली बच जाएंगी। भाजपा प्रदेश की कुल 294 सीटों में से 200 जीतने का लक्ष्य घोषित कर चुकी थी। लेकिन हुआ उलटा। ममता की पार्टी 213 पर जा पहुंची और भाजपा 77 पर अटक गई।

हां, भाजपा के शुभेंदु अधिकारी नंदीग्राम में ममता को बहुत थोड़े अंतर से हराने में कामयाब रहे मगर तृणमूल कांग्रेस की भारी जीत से उनकी हार भी भाजपा के किसी काम की नहीं है। वे उन तीन सीटों में से किसी से जीत कर आ सकती हैं, जहां उम्मीदवारों के कोविड से निधन के बाद चुनाव होने हैं। तो, सबक यह है कि जिस ममता को कमजोर करने की कोशिश भाजपा आला नेतृत्व कर रहा था, उसमें वह बुरी तरह नाकाम हुआ। शायद अपनी इसी नाकामी को छुपाने के लिए बंगाल में चुनाव नतीजों के बाद शुरू हुई हिंसा को कुछ ज्यादा तूल दिया गया। कोरोना की दूसरी लहर में लगभग गैर-हाजिर केंद्र सरकार के मंत्री और भाजपा नेता धरना देने कोलकात पहुंच गए और हालात की समीक्षा के लिए केंद्र से टीम भेजी गई। भाजपा की रणनीति यह लगती है कि ममता को राज्य में उलझाए रखो, ताकि वे केंद्र की ओर ध्यान न दे सकें।

 

इसी तरह केरल में भी भाजपा को पिछले विधानसभा चुनावों में एक सीट मिल गई थी तो पार्टी केंद्रीय नेतृत्व को वहां भी संभावना दिखी। सो, पार्टी ने मेट्रो मैन ई. श्रीधरन जैसे सेलेब्रेटी चेहरे को उतार कर राज्य में अपना कुछ आधार बढ़ाना चाहा था। इसके पहले सबरीमला में महिलाओं के प्रवेश के मुद्दे से भी गरमी पैदा करने की कोशिश की गई थी। इन चुनावों में भाजपा केंद्रीय नेतृत्व के मोटे तौर पर दो लक्ष्य स्पष्ट थे। एक, वाम मोर्चे की अगुआई वाले एलडीएफ या कांग्रेस की अगुआई वाले यूडीएफ में से किसी को कमजोर किया जा सका तो केंद्रीय राजनीति में उसकी धमक कमजोर होगी। लेकिन हुआ उलटा। सही साबित हुई मुख्यमंत्री पिनराई विजयन की वह बात कि ‘‘2016 में राज्य में भाजपा का एक सीट से खाता खुला था, हम इस बार वह भी बंद कर देंगे।’’ भाजपा को वहां एक भी सीट नहीं मिली, बल्कि उसका वोट प्रतिशत भी घट गया।

पिनराई विजयन निर्विवाद नेता बनकर उभरे। विजयन की अपनी पार्टी माकपा में भी अब उन्हें कोई चुनौती देने वाला नहीं है। बंगाल में पार्टी को इन चुनावों में शून्य मिला है। वहां वामपंथी दलों की यह हालत आजादी के बाद के इतिहास में पहली बार हुई है। इसलिए पार्टी में बंगाल के नेताओं का दबदबा घटने से केरल पार्टी इकाई ही मजबूत रह गई है और वहां अब सबसे अधिक जनाधार वाले नेता विजयन ही हैं। इससे विजयन का कद इतना बढ़ गया है कि वे विपक्ष की हर पहल में वजन रखेंगे।

 

कद हुआ लंबाः पुदुच्चेरी के मुख्यमंत्री एन. रंगास्वामी, भाजपा यहां उनकी पिछलग्गू है

 

फिर, तमिलनाडु में एम.के. स्टालिन आखिरकार अपने पिता दिवगंत करुणानिधि के साये से निकल कर राज्य में अपने दम पर चुनाव जिताऊ नेता बन गए हैं। स्टालिन ने यह करिश्मा 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद दूसरी बार विधानसभा चुनावों में भी कर दिखाया। अब इन चुनावों ने उन्हें द्रमुक के एकछत्र नेता के रूप में स्थापित कर दिया है। भाजपा, या कहिए उसके केंद्रीय नेतृत्व की कोशिश यह लग रही थी कि अगर अन्नाद्रमुक की सरकार बरकरार रहती है तो उसका दबदबा बना रहेगा और 2024 के लोकसभा चुनावों में भी उसका असर देखने को मिले, लेकिन चुनावी नतीजों ने इसकी संभावना खारिज कर दी।

ममता बनर्जी से लेकर पिनराई विजयन और स्टालिन जैसे क्षत्रप इतने मजबूत और ताकत के साथ उभर कर आए हैं कि केंद्र के लिए उन्हें बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और दूसरे मुख्यमंत्रियों या फिर अन्य विपक्षी नेताओं की तरह झुकने पर मजबूर कर देना आसान नहीं होगा। एक वजह यह भी है कि उनकी प्रतिबद्धताएं ठोस हैं और लंबे समय से परखी हुई हैं। शायद उनके उभार से दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भी ताकत मिले, जो पिछले विधानसभा चुनावों के बाद कुछ शांत हैं और केंद्र उन पर लगातार दबाव बनाए हुए है। केंद्र ने कानून में संशोधन के जरिए दिल्ली सरकार के हाथ से सभी निर्णय-क्षमता वापस लेकर उप-राज्यपाल को असली प्रशासक घोषित कर दिया है। इसके अलावा, लगातार केंद्र के वार से घिरे महाराष्ट्र की शिवसेना-राकांपा-कांग्रेस गठजोड़ सरकार और मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को भी मजबूती मिल सकती है। ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के तेवर भी कुछ साफ हो सकते हैं। यही नहीं, इससे तेलंगाना के चंद्रशेखर राव को भी भाजपा के खिलाफ खुलकर खड़े होने की ताकत मिल सकती है।

इससे बिहार में लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद और उत्तर प्रदेश में सपा के अखिलेश यादव को भी ताकत मिल सकती है। इन दोनों ने बंगाल चुनावों में ममता की मदद की थी। कांग्रेस हालांकि चुनावी नतीजों से उत्साहित नहीं हो सकती, लेकिन अगर विपक्ष की लामबंदी बड़ी होती है तो उसके लिए उसमें शामिल होना मजबूरी बन जाएगी। असल में ममता ने चुनाव नतीजों के बाद अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में और फिर शपथ लेने के बाद साफ संकेत दिया है कि वे विपक्ष को एकजुट करने के अभियान में जुटेंगी। हाल में उन्होंने कहा कि वे देश के 130 करोड़ लोगों को केंद्र की तरफ से मुफ्त कोविड टीकाकरण की मांग करती हैं और उसके लिए सत्याग्रह करेंगी। अगर वे ऐसा शुरू करती हैं तो विपक्ष उनके पीछे लामबंद हो सकता है, क्योंकि अभी कोई दूसरा नेता मोदी-शाह जोड़ी को चुनौती देता नहीं लगता और कोई देता भी है तो ताकत के अभाव में अप्रासंगिक हो उठता है। हाल में वैक्सीन का मामला सुप्रीम कोर्ट में उठा तो केंद्र का जवाब था कि अदालत को कार्यपालिका पर भरोसा करना चाहिए। इसी तरह कोरोना दौर में सेंट्रल विस्टा निर्माण पर उठे सवालों पर भी केंद्र ने दिल्ली हाइकोर्ट में अपने हलफनामे में कड़ा रुख अपनाया। 

लेकिन विपक्ष अगर खुलकर खड़ा होता है तो शायद भाजपा के लिए स्थितियां मुश्किल भरी हो सकती हैं। उसको इस बात का एहसास हो सकता है कि इन चुनावों में हर जगह भाजपा के वोट प्रतिशत घट गए हैं। पश्चिम बंगाल में यह 40 से 37 प्रतिशत पर आ गया है तो केरल और तमिलनाडु में भी घट गया है। बंगाल के एक भाजपा नेता के मुताबिक, विधानसभा चुनावों के नतीजों को लोकसभा सीटों पर लगाएं तो भाजपा 9 यानी आधी सीटें हार सकती है। असम में जहां पार्टी जीती है, वहां भी यूपीए का वोट प्रतिशत भाजपा से ऊपर ही है। इसलिए विपक्ष शायद 2024 के आम चुनावों में वैसा ढीलापन न दिखाए, जैसा उसने 2019 के चुनावों में दिखाया था।

इसलिए ये चुनावी नतीजे केंद्रीय सत्ता की कमजोरी और मजबूत विपक्षी क्षत्रपों के उभरने का ही संकेत हैं। यह अलग सवाल है कि अगले साल उत्तर प्रदेश समेत कई अहम राज्यों के चुनाव हैं, जिनके नतीजे भी 2024 के चुनावों और केंद्रीय सत्ता के दबदबे पर असर डालेंगे। 

 

बातचीत / महुआ मोइत्रा

 

 

“मोदी ने देश को घुटनों पर ला दिया”

 

तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा मोदी सरकार की प्रखर आलोचक हैं। हाल के चुनावी नतीजों, केंद्र सरकार के सात साल के कामकाज, मौजूदा दौर में उसकी छवि, कोविड की दूसरी लहर और केंद्र-राज्य संबंध जैसे विषयों पर आउटलुक के प्रीता नायर ने उनसे बात की। मुख्य अंश:

 

हाल के वर्षों में केंद्र-राज्य संबंधों को आप कैसे देखती हैं?

इस सरकार ने संघीय ढांचे को तार-तार कर दिया है। इसके दो कानूनों को लीजिए- एनआइए और यूएपीए। दोनों संघीय ढांचे के खिलाफ हैं। कोई भी किसी भी राज्य में जा सकता है और बिना अनुमति गिरफ्तार कर सकता है। ये अनुच्छेद 370 को हटाना चाहते थे तो उसका प्रस्ताव जम्मू-कश्मीर विधानसभा में पारित होना चाहिए था, लेकिन सरकार ने तर्क दिया कि वहां राष्ट्रपति शासन है। लेकिन इस तर्क से तो वे पश्चिम बंगाल को भी विभाजित कर सकते हैं। कानून व्यवस्था खराब होने के नाम पर राष्ट्रपति शासन लगा दें और कहें कि हम गोरखालैंड बना रहे हैं।

क्या कोविड-19 से लड़ाई में राज्यों को भरोसे में लिया गया?

वैक्सीन संकट इसका अच्छा उदाहरण है। उन्होंने राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन कानून लागू कर दिया। राज्य कुछ नहीं कर सकते। किसी चीज पर हमारा नियंत्रण नहीं था। पहली खेप में हमें जो 90 हजार टेस्टिंग किट मिले वे बेकार निकले। हमने एक साल पहले वैक्सीन खरीदने की बात कही थी, लेकिन तब केंद्र ने अनुमति नहीं दी। हम फाइजर या जॉनसन से वैक्सीन खरीदने के लिए ग्लोबल टेंडर भी नहीं निकाल सकते थे। इस बीच सरकार वैक्सीन निर्यात कर रही थी। और अब कीमत देखिए। एक ही चीज की 150 रुपये, 400 रुपये, 600 रुपये अलग-अलग कीमत कैसे हो सकती है?

मोदी भक्तों को भी यह समझने में वैश्विक महामारी की जरूरत पड़ी कि भारत को हिंदू राष्ट्र की जरूरत नहीं। भारत को ऑक्सीजन और स्वास्थ्य इन्फ्राएस्ट्रक्चर की जरूरत है। आज किसी को परवाह नहीं है। लाशें नदी में तैर रही हैं। आपको यही नहीं मालूम कि वे कहां से आईं। इससे पहले बंगाल में अकाल के समय ऐसा मंजर देखने को मिला था, जब नदियों में लाशें तैरती थीं। मोदी ने देश को घुटनों पर ला दिया है।

तो क्या केंद्र-राज्य के बीच भरोसा बिल्कुल नहीं रहा?

संघीय ढांचे के नाम पर कुछ नहीं बचा है। लोकसभा में भाजपा पूर्ण बहुमत में है। यह सरकार अनेक बिल सिर्फ इसी ताकत के दम पर ले आई। इसमें कृषि बिल भी है। ऐसा नहीं कि विपक्ष वहां नहीं था। हम थे, हमने कृषि कानूनों के खिलाफ बोला। वे सीबीआइ और ईडी जैसी एजेंसियों का इस्तेमाल विपक्ष के नेताओं के खिलाफ कर रहे हैं। मायावती आज चुप क्यों हैं, हम सब जानते हैं।

आपने पहले कहा है कि सरकार संस्थानों का महत्व कम करती जा रही है...।

इन्होंने चुनाव आयोग और न्यायपालिका को कमतर किया है। आज हम देख रहे हैं कि तमाम हाइकोर्ट किस तरह सरकार की निंदा कर रही है, सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने सरकार की आलोचना की। अब अदालतें तुषार मेहता का झूठ सुनने को तैयार नहीं। 30 मार्च 2020 को तुषार मेहता ने कहा था कि सडक़ों पर कोई प्रवासी मजदूर नहीं है। अब वे कह रहे हैं कि ऑक्सीजन की कमी नहीं है। हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को जब अचानक एहसास हुआ कि वे अपने प्रियजनों के लिए भी अस्पताल में बेड नहीं ले सकते, तो उन्हें लगा कि पानी सिर से ऊपर पहुंच गया है।

चुनाव आयोग को देखिए। अप्रैल के मध्य में जब महामारी तेजी से फैल रही थी तब प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने अनेक रैलियां कीं। हमने आयोग से सबकी रैलियों पर प्रतिबंध लगाने को कहा, लेकिन उन्होंने हमारी बात नहीं सुनी। 17 अप्रैल को प्रधानमंत्री ने कुंभ मेला को प्रतीकात्मक बनाने की अपील की और उसे शाम चार बजे चुनावी सभा में कहा कि "जीवन में इतनी बड़ी भीड़ मैंने कभी नहीं देखी।" चुनाव के बीच में भी हमने बाद के चरणों को मिलाकर एक साथ मतदान कराने का आग्रह आयोग से किया, लेकिन उन्होंने हमारी बात नहीं सुनी। जब 19 अप्रैल को प्रधानमंत्री ने अपनी रैलियां रद्द कर दीं तो आश्चर्यजनक रूप से चुनाव आयोग ने कह दिया कि कल से कोई रैली नहीं होगी। लोगों को लगता है कि सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग सब डरे हुए हैं। आज कोई बच्चा भी उनकी इज्जत नहीं करता। इस सरकार ने न्यायपालिका को इतना कमतर कर दिया है कि स्वतंत्र लोकतांत्रिक भारत में लोगों का भरोसा ही उठ गया है। यह भारत के लोकतंत्र पर बड़ा आघात है।

कामकाज और लोगों की धारणा के लिहाज से आप मोदी सरकार के सात वर्षों का आकलन कैसे करती हैं?

शुरुआत धारणा से करते हैं। नोटबंदी से लेकर हर बड़ी नाकामी को, तीन महीने पहले तक इस सरकार ने बड़ी कुशलता से मैनेज किया। हमेशा यह दिखाने की कोशिश की कि देश के लिए बड़ा काम किया है। लेकिन अब यह छवि दरकने लगी है। उन्होंने सरकार और प्रधानमंत्री को अलग कर रखा था। सरकार की आलोचना तो ठीक थी, लेकिन प्रधानमंत्री को कुछ नहीं कहा जा सकता था। उनकी छवि भगवान जैसी बना दी गई। जो सामान्य नियम यहां तक कि अमेरिका के राष्ट्रपति और इंग्लैंड के प्रधानमंत्री पर लागू होते थे, वे नरेंद्र मोदी पर लागू नहीं होते। लोगों ने नोटबंदी, प्रवासी मजदूर संकट सब कुछ स्वीकार कर लिया। लेकिन चतुराई एक सीमा तक ही काम करती है। लोग दर्द झेल सकते हैं, दिन में सिर्फ एक वक्त का खाना खा सकते हैं, लेकिन वे जान नहीं दे सकते। वह भी बीमारी से नहीं, बल्कि इलाज के अभाव में। पांच-छह हफ्तों में हुई मौतों से प्रधानमंत्री की छवि बिगड़ी है।

मैं लोगों की इस बात से सहमत नहीं कि विपक्ष नहीं है। विपक्ष हमेशा रहा है, बस लोग हमारी बात सुनना नहीं चाहते थे। राहुल गांधी ने तो कोविड-19 संकट के बारे में सबसे पहले कहा था, लेकिन किसी ने उनकी बात नहीं सुनी। दरअसल लोगों को यह सोचना अच्छा लगता कि विपक्ष कहीं है ही नहीं। आज अचानक उन्हें लगने लगा है कि विपक्ष है।

जहां तक कामकाज की बात है, तो सरकार पहले दिन से शून्य की हकदार है। सिर्फ आंकड़ों के आधार पर सरकार चलाना महत्वपूर्ण नहीं, नैतिकता भी अहम है। सरकार को सही फैसले करने पड़ते हैं, और इसमें वह नाकाम रही है। जब आप 30 करोड़ मध्यवर्ग की बात करते हैं तो दूसरी तरफ 50 करोड़ वे लोग भी हैं जो भीषण गरीबी में जी रहे हैं। कोविड-19 जैसी बीमारी के समय सबके लिए टीकाकरण अभियान की जरूरत है। एक सभ्य और नैतिक सरकार के ये पैमाने हैं जिन पर यह सरकार पूरी तरह विफल रही है।

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