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आवाज का असर तो हुआ

एक स्वर में मुक्त व्यापार समझौते के खतरों पर आवाज उठी तो सरकार आरसीईपी से बाहर आई
सिर्फ हाथ मिलेः आरसीईपी में दूसरे राष्ट्र प्रमुखों संग पीएम मोदी

भारत दुनिया के सबसे बड़े व्यापारिक क्षेत्र और पूर्वी एशिया के 16 देशों के क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी) समझौते से बाहर निकल गया है। इसे इस बात के सबूत की तरह देखा जाना चाहिए कि सरकार के फैसलों पर विभिन्न पक्षों की मजबूत आवाज का असर होता है। थोड़े ही लोगों को यह एहसास हुआ होगा कि स्वतंत्र भारत में पहली बार किसान, श्रम संगठन, भारतीय उद्योग के विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिनिधि और नागरिक संगठनों सभी ने एक स्वर में आरसीईपी के संभावित खतरों के खिलाफ आवाज उठाई। साफ संदेश यह था कि आरसीईपी के तहत उदारीकरण की प्रतिबद्धताएं स्वीकार करके विदेशी कारोबार को देश की अर्थव्यवस्था में ज्यादा स्थान देने से घरेलू हितों को भारी नुकसान होगा। दूसरे शब्दों में, आरसीईपी पहले से ही दबाव झेल रही अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाएगा। मैन्युफैक्चरिंग में मंदी और बढ़ते कृषि संकट से अर्थव्यवस्था पहले ही रेंग रही है।

आरसीईपी का प्रस्ताव 2012 में जब पहली बार आया था, तभी इसे नकारने के लिए भारत के पास पर्याप्त कारण थे। भारत आसियान, कोरिया और जापान के साथ तीन मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) कर चुका था। इन समझौतों के फायदों को लेकर किसान संगठन और कुछ राज्य सरकारें सवाल उठा रही थीं। हालांकि इन समझौतों का समर्थन कर रहे लोगों को लग रहा था कि समझौते में शामिल होने से आर्थिक रूप से सर्वाधिक सक्रिय क्षेत्र में भारत की हिस्सेदारी बढ़ेगी और वह क्षेत्रीय वैल्यू चेन में शामिल हो सकेगा। लेकिन एफटीए की वास्तविकताएं जल्दी ही सामने आने लगीं। इसके जो फायदे गिनाए जा रहे थे, भारत को उनमें एक में भी कामयाबी नहीं मिली। निर्यात में बढ़ोतरी उम्मीद से बहुत कम रही। दूसरी तरफ, भारत ने जैसे ही आयात शुल्क में कटौती की या उन्हें हटाया, एफटीए में भागीदार देशों से आयात में भारी बढ़ोतरी हो गई। वैल्यू चेन में भारत की भागीदारी भी दूर की कौड़ी साबित हुई।

इस वास्तविकता को समझकर एनडीए सरकार ने आरसीईपी पर बातचीत में सधे कदम उठाए। उसने बातचीत में दो अहम क्षेत्रों- भारतीय बाजार में आरसीईपी के भागीदार देशों की पहुंच और विदेशी निवेश को संरक्षण और प्रोत्साहन पर खास तौर से गौर किया। शुरुआती वार्ता से लगा कि सरकार ने भारतीय बाजार में पहुंच के मामले में तीन मौजूदा एफटीए के प्रतिकूल प्रभावों को ध्यान में रखा है। भारत ने अपने बाजार में एफटीए के भागीदार आसियान, दक्षिण कोरिया और जापान की पहुंच थोड़ी ही बढ़ाने का ऑफर दिया। चीन की पहुंच तो कम कर दी गई। इसके पीछे तर्क था कि जब आयात शुल्क में रियायत नहीं मिलने पर चीन के उत्पाद भारतीय बाजारों में छाए हुए हैं, तो आरसीईपी के तहत शुल्क में रियायत मिलने के बाद तो इनका विस्तार और तेजी से होगा। भारत के इस शुरुआती प्रस्ताव को आरसीईपी देशों ने खारिज कर दिया। आरसीईपी का मकसद आयात शुल्क और गैर-शुल्क बाधाओं (जैसे मात्रा की सीमा) को धीरे-धीरे खत्म करना था। एक समय ऐसा लगा कि भारत ने इसे मंजूर कर लिया है।

जहां तक विदेशी निवेश के संरक्षण और प्रोत्साहन की बात है, तो भारत को छोड़कर आरसीईपी के दूसरे प्रमुख देश ऐसा निवेश समझौता चाहते थे जिसमें निवेशकों के अधिकार सुरक्षित रहें, भले ही इसमें मेजबान देश के अधिकारों की अनदेखी हो। भारत का तर्क इसके विपरीत था, क्योंकि विदेशी निवेशकों ने द्विपक्षीय निवेश संधि की शर्तों का बेजा लाभ उठाया और वे अंतरराष्ट्रीय पंचाट में सरकार के खिलाफ मामले लेकर गए। 2012 में पहले विवाद में भारत की हार के बाद द्विपक्षीय संधियों की समीक्षा शुरू हुई, जो 2015 में पूरी हुई। एनडीए सरकार ने भारतीय द्विपक्षीय निवेश संधि के आदर्श मसौदे में संशोधन किया। इसमें विदेशी निवेशकों की ज्यादतियों से सुरक्षा के उपाय शामिल किए गए। सरकार ने घोषणा की, कि भारत भविष्य में जो भी निवेश संधि करेगा, वह इसी आदर्श मसौदे पर आधारित होगी। आरसीईपी की निवेश संबंधी वार्ताओं में भारत के इन सुझावों के लिए कोई स्थान नहीं था।

ई-कॉमर्स पर आरसीईपी की प्रतिबद्धताओं के नतीजे भी गंभीर होते। ई-कॉमर्स दो वजहों से बड़ा मसला है। पहला, इसकी परिभाषा अभी तक स्पष्ट नहीं हो सकी है। इस कारण अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों पर इसके प्रभाव का आकलन करना आसान नहीं है। ई-कॉमर्स का दूसरा अहम पहलू आंकड़ों के अंतरराष्ट्रीय सीमा से बाहर बेरोकटोक जाने से जुड़ा है। इससे देश की सुरक्षा के साथ-साथ व्यक्तिगत और अर्थव्यवस्था की गतिविधियों से जुड़ी सूचनाओं के मुद्दे उठ खड़े हुए।

ई-कॉमर्स पर आरसीईपी के अध्याय में इसकी कोई परिभाषा नहीं है। यानी ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन ऐंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) जैसे दूसरे मंचों द्वारा दी गई परिभाषा को इसमें शामिल किया जा सकता है। ओईसीडी ने ई-कॉमर्स की जो परिभाषा दी है उसके अनुसार वस्तु या सेवा के लिए ऑर्डर ऑनलाइन दिया गया हो, लेकिन ऑनलाइन भुगतान और डिलीवरी जरूरी नहीं है। इस परिभाषा के आधार पर कहा जा सकता है कि पारंपरिक विदेश व्यापार और अंतरराष्ट्रीय सीमा के पार ई-कॉमर्स में मामूली अंतर है।

हाल के वर्षों में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के अनेक सदस्य देश ई-कॉमर्स के नियम बनाने में जुटे हैं, लेकिन भारत इसका लगातार विरोध कर रहा है। भारत के विरोध के पीछे एक कारण यह भी है कि कई देश ई-कॉमर्स को शुल्क से मुक्त रखना चाहते हैं। इसका मतलब यह है कि ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म से आयात किए गए सामान पर शुल्क लागू नहीं होगा। वार्ता में भारत के मौजूद होने के बावजूद आरसीईपी ने इन नियमों को अपना लिया है। अगर भारत आरसीईपी में शामिल होता तो शुल्क मुक्त ई-कॉमर्स के कारण यहां का बाजार काफी ज्यादा खुल जाता।

ई-कॉमर्स के अध्याय में दो प्रावधान ज्यादा विवादास्पद हैं। ये सूचनाओं के सीमा पार प्रवाह और सर्वर की लोकेशन से जुड़े हैं। समझौते में प्रावधान है कि आरसीईपी के सदस्य देश, दूसरे देशों में सूचना के मुक्त प्रवाह की अनुमति देंगे। दूसरा प्रावधान है कि कोई भी देश ई-कॉमर्स कंपनी को अपने यहां सर्वर लगाने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। ये दोनों प्रावधान भारत की नेशनल ई-कॉमर्स पॉलिसी के ड्राफ्ट के खिलाफ हैं। सरकार ने यह ड्राफ्ट इसी साल फरवरी में जारी किया था।

इन बातों के मद्देनजर आरसीईपी वार्ताओं में भारत के शामिल होने पर कई सवाल उठते हैं। पहला सवाल तो यही है कि जब सरकार के ही शुरुआती आकलन निराशाजनक हैं, तो वार्ता में शामिल होने का क्या तुक है। दूसरों ने जब आरसीईपी में शामिल होने के जोखिमों के बारे में बताया था, तब उनका भी यही आकलन था। दूसरा सवाल बातचीत में शामिल होने की प्रक्रिया से जुड़ा है। बातचीत के शुरुआती चरण में तो बाजार पहुंच के महत्वपूर्ण मुद्दे पर सरकार लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन करते हुए अपना रुख सार्वजनिक कर रही थी। लेकिन बातचीत के बाद के महत्वपूर्ण चरणों में सरकार का रुख नाटकीय ढंग से बदल गया और उसने देश के आर्थिक भविष्य की वार्ता गोपनीय तरीके से की।

तीसरा सवाल आरसीईपी वार्ताओं के संभावित नतीजों के आकलन से जुड़ा है। सरकार और उसकी एजेंसियों ने या तो कभी आकलन किया ही नहीं, या फिर उसे सार्वजनिक नहीं किया। हालांकि सरकार इस रास्ते पर आगे बढ़ने से संकोच कर रही थी, फिर भी आसियान, दक्षिण कोरिया और जापान के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर अमल से यह स्पष्ट हो गया था कि आरसीईपी से जुड़ने के बाद भारत का व्यापार घाटा असहनीय हो जाएगा। मौजूदा तीन एफटीए के बाद तो भारत कृषि और मैन्युफैक्चरिंग के संवेदनशील उद्योगों को संभावित खतरों से बचाने में कामयाब रहा, लेकिन आरसीईपी पर समझौते से इन क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा और बढ़ जाती। जब अर्थव्यवस्था पहले ही कम उत्पादकता से जूझ रही है, तब इस तरह के बाहरी झटकों से बड़ी संख्या में नौकरियां चली जातीं। बढ़ती बेरोजगारी के दौर में देश के लिए इसे सहना बहुत मुश्किल होता।

आरसीईपी से भारत के अलग होने के बाद कई बातें कही गईं और सरकार के फैसले की आलोचना हुई। तर्क दिए गए कि बहुपक्षीय समझौते से बाहर होकर भारत ने पूर्वी एशिया में निर्यात के अवसर गंवा दिए और नीति-निर्धारकों ने घरेलू सुधारों को आगे बढ़ाने का अवसर भी खो दिया, जो उसे आरसीईपी में मिलने वाले पैकेज को स्वीकार करने से मिलता। पहला तर्क वैसा ही है जैसा आसियान, दक्षिण कोरिया और जापान के साथ एफटीए से पहले दिया गया था। घरेलू कंपनियां इन एफटीए से मिले अवसरों को नहीं भुना सकीं। इससे साबित होता है कि घरेलू कारोबारियों को विश्व बाजार में प्रतिस्पर्धा में उतरने से पहले खुद को तैयार करना पड़ेगा। सरकार को आगे बढ़ने से पहले इस अहम पहलू पर ध्यान देना चाहिए। दूसरे तर्क के संबंध में इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि पूर्वी एशिया की कुछ अर्थव्यवस्थाएं इसलिए सफल हुईं क्योंकि वहां की सरकारों ने ऐसी नीतियां बनाईं जिनसे वहां का घरेलू उद्योग ज्यादा सक्षम हो सका। इन सफल अर्थव्यवस्थाओं ने अपनी नीतियां घरेलू आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनाईं और उन्होंने दूसरे देशों की पॉलिसी को अपनाने से परहेज किया।

आरसीईपी के अनुभव से सरकार को कम से कम दो महत्वपूर्ण सीख मिलती हैं। पहली, आरसीईपी जैसे नए दौर के एफटीए से टैरिफ पॉलिसी, विदेशी निवेशकों के प्रबंधन और डाटा की सुरक्षा सहित कई तरह की नीतियां बनाने की सरकार की स्वायत्तता प्रभावित हो सकती है। देश के विकास में कमी को देखते हुए सरकार को कदम उठाने की आवश्यकता है, इसलिए नीतियां बनाने की स्वायत्तता छोड़ना ठीक नहीं होगा। दूसरे, सरकार के फैसलों में पूरी पारदर्शिता होनी चाहिए। इसलिए एफटीए जैसे मंच, ‌िजनमें लोकतांत्रिक सरकारों को गोपनीय तरीके से बातचीत करने की जरूरत पड़ती है, देश के भविष्य का फैसला लेने के लिए अनुचित हैं।

(लेखक जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में स्कूल ऑफ सोशल साइसेंज के सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज ऐंड प्लानिंग में प्रोफेसर हैं)      

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