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चिट्ठी वाले नहीं दांव पर पार्टी

संगठन में सुधार के लिए पत्र लिखने वाले 23 नेताओं पर गांधी परिवार की भौंहें तनीं मगर कांग्रेस में जान फूंकने की चुनौती भारी
गुलाम नबी आजाद और क‌पिल सिकब्बल के लिेए आने वाले दिन आसान नहीं

जब कांग्रेस पार्टी के 23 वरिष्ठ नेता अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को, पार्टी में संगठन स्तर पर बदलाव के लिए पत्र लिख रहे थे तो उन्हें अंदाजा था कि ऐसा करने से उनका राजनैतिक करिअर खतरे में पड़ सकता है। कांग्रेस पार्टी के अगर 135 साल के इतिहास में खास तौर से पिछले 50 वर्षों को देखा जाए, तो कई बार पार्टी में बगावत के सुर फूटे। लेकिन जब भी बगावत ने राज्य स्तर से ऊपर सिर उठाया तो उसे नेहरू-गांधी परिवार की नेतृत्व को चुनौती माना गया है। भले ही विरोध की स्वर अलग हों लेकिन उसका आखिरी नतीजा हमेशा एक ही होता है। यानी हर विरोध के स्वर के बाद परिवार की संगठन पर पकड़ पहले से ज्यादा मजबूत हो जाती है। विरोध करने वालों का भविष्य महाराष्ट्र में शरद पवार, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, कश्मीर में मुफ्ती मुहम्मद सईद, आंध्र में वाइ.एस.जगनमोहन रेड्डी जैसे होने के उदाहरण भी बहुत कम मिलते हैं। इन नेताओं ने अपनी काबिलियत के दम पर अपने-अपने राज्यों में मजबूत पकड़ बना ली है। हालांकि इन नेताओं की राजनीति भी उन्हें राष्ट्रीय स्तर तक नहीं ले जा सकी। वे अपने राज्यों में ही मजबूत किले बने रहे। ऐसे में ज्यादातर बागी नेता या तो अपने करिअर के अंधे मोड़ पर पहुंच जाते हैं या फिर मजबूर होकर वापस पार्टी में लौट आते हैं।

यह जरूर है कि राज्य स्तर पर हुए विद्रोहों से क्षेत्रीय स्तर पर कांग्रेस पार्टी को बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ है। लेकिन इसका एक असर यह भी हुआ कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस पार्टी में नेहरू-गांधी का नेतृत्व अपरिहार्य बनता गया। जिस तरह कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में पत्र लिखने वाले 23 वरिष्ठ नेताओं के साथ दुर्व्यवहार हुआ, उससे यह भी स्पष्ट हो गया है कि पार्टी विरोध को दबाने वाले उसी तरीके पर काम करती रहेगी, जिससे पिछले 50 साल में नेहरू-गांधी परिवार को फायदा पहुंचा है।

पत्र लिखने वाले नेताओं में से एक ने आउटलुक को बताया कि “आप कांग्रेस पार्टी में आसानी से बदलाव की उम्मीद नहीं कर सकते हैं।” उन्होंने यह भी कहा कि “हम लोगों के लिखे पत्र में एक शब्द भी ऐसा नहीं था जो कांग्रेस नेतृत्व के खिलाफ था, लेकिन हम सभी को गद्दार के रूप में पेश कर दिया गया।” पत्र में उठाए गए मुद्दों पर कांग्रेस पार्टी ने आधिकारिक तौर पर कहा है कि इन सभी मसलों को उचित समय पर हल किया जाएगा। कार्यकारिणी की बैठक के समापन संबोधन में सोनिया गांधी ने कहा कि वे चाहती हैं कि बिना कड़वाहट के हम लोग आगे बढ़ें। जो लोग सुधार की बात कर रहे हैं, उनके लिए कार्यकारिणी ने प्रस्ताव पारित किया है कि अगले छह महीने में पार्टी का अधिवेशन आयोजित किया जाएगा और एक पूर्णकालिक अध्यक्ष का भी चुनाव होगा। पार्टी के महासचिव के.सी.वेणुगोपाल ने आउटलुक को बताया, “कार्यकारिणी के प्रस्ताव से साफ है कि नेताओं के उठाए गए सभी मुद्दों पर ध्यान दिया जाएगा।”

हालांकि पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले कई नेताओं ने आउटलुक को बताया कि कार्यकारिणी में दिए गए भरोसे का मतलब तभी है, जब वह अमल में आए। सूत्रों के अनुसार कार्यकारिणी की बैठक में सोनिया गांधी को पार्टी चलाने में सहयोग देने के लिए एक समिति बनाने पर आम सहमति बनी थी लेकिन वह पारित प्रस्ताव में नहीं है। इस पर कार्यकारिणी के एक वरिष्ठ सदस्य का कहना है, “पूर्णकालिक अध्यक्ष जल्द ही नियुक्त होगा, ऐसे में इस तरह के बदलावों को लागू करने की कोई जल्दीबाजी नहीं है। पूर्णकालिक अध्यक्ष का चुनाव होने दीजिए, फिर वह तय करेगा कि उसे समिति बनानी है या नही।” कांग्रेस सूत्रों का कहना है कि जब पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन होगा तो राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने की पूरी संभावना है। उस दौरान पत्र लिखने का मामला भी जरूर उठेगा। यही नहीं, पत्र लिखने वाले नेताओं के लिए स्थिति आसान नहीं होने वाली है क्योंकि इन नेताओं को यह मान लिया गया है कि ये नेतृत्व पर सवाल उठाने वाले लोग हैं। पत्र पर हस्ताक्षर वालों में से एक कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री वीरप्पा मोइली का कहना है, “हमें अपने कदम के नतीजों का अहसास था, इसके बावजूद हम आगे इसलिए बढ़े क्योंकि पार्टी के लिए ऐसा करना हमारा कर्तव्य है।”

हालांकि प्रतिक्रिया के लिए लंबा इंतजार नहीं करना पड़ा। जैसे ही कार्यकारिणी की बैठक खत्म हुई, सोनिया गांधी ने एक पांच सदस्यीय समिति का गठन कर दिया, जो नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा लाए गए अहम अध्यादेशों पर पार्टी का रुख रखेगी। इस समिति में पी.चिदंबरम, दिग्विजय सिंह, जयराम रमेश, अमर सिंह और गौरव गोगोई को शामिल किया गया है। इसके बाद सोनिया गांधी ने संसद में पार्टी की रणनीति क्या होगी, इसके समन्वय के लिए समिति का पुर्नगठन और लोकसभा और राज्यसभा में मुख्य सचेतक के नाम का भी ऐलान कर दिया। इन समितियों में अधीर रंजन चौधरी, तरुण गोगोई (लोकसभा में पार्टी का उपनेता भी बनाया गया है), गुलाम नबी आजाद (राज्यसभा में नेता विपक्ष), आनंद शर्मा (राज्‍यसभा में उपनेता), जयराम रमेश (राज्यसभा में मुख्य सचेतक), अहमद पटेल, वेणुगोपाल, के.सुरेश, मणिक्कम टैगोर, और रवनीत सिंह बिट्टू को जगह दी गई है। पत्र लिखने वाले नेताओं का नए बदलावों पर कहना था कि समिति के नाम से साफ संकेत मिल रहे हैं। आजाद और शर्मा को छोड़कर संसदीय रणनीति समूह में हस्ताक्षर करने वाले 23 नेताओं में से किसी एक को भी जगह नहीं मिली है। जहां तक आजाद और शर्मा का सवाल है तो वे पहले से ही राज्यसभा में पद हासिल किए हुए हैं, इसलिए उन्हें जगह मिलना करीब-करीब तय था। लेकिन कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी और शशि थरूर जैसे नेताओं को समितियों से दूर ही रखा गया है, जिन्हें कानूनी और संसदीय मामलों की काफी अच्छी समझ है। नियुक्तियों  में साफ तौर से राहुल गांधी की छाप दिखती है। वेणुगोपाल, गोगोई, बिट्टू और टैगोर राहुल गुट के माने जाते हैं। सांसद और पत्र पर हस्ताक्षर वाले एक नेता का कहना है, “पिछले एक साल में जितनी भी नियुक्तियां हुई हैं, उसमें राहुल की छाप दिखती है, इसके बावजूद वे यही कहते रहते हैं कि मैं पार्टी की कमान नहीं संभालना चाहता हूं।” उनका कहना है, “राहुल से हमें कोई परेशानी नहीं है, अगर वे अध्यक्ष बनते हैं तो हम उनका स्वागत करेंगे। लेकिन उन्हें पद के पीछे से काम नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से नेतृत्व को लेकर भ्रम पैदा होता है।”

कांग्रेस सूत्रों का कहना है कि अगले कुछ महीने में पार्टी में काफी उथल-पुथल देखने को मिलेगी। इसके तहत ऐसे लोगों को अहम जिम्मेदारियां मिलेंगी, जिनके साथ राहुल गांधी काम करने में सहजता महसूस करते हैं। सीधे शब्दों में कहें तो पत्र लिखने वाले कई वरिष्ठ नेताओं को आने वाले दिनों में पार्टी में अपने पद गंवाने पड़ सकते हैं या फिर सजा के तौर पर उन राज्यों की जिम्मेदारी दी जा सकती है जहां पार्टी बहुत कमजोर हैं। सोनिया गांधी के एक करीबी नेता का कहना है, “पत्र लिखने वाले नेता कांग्रेस के घटते जनाधार से परेशान और चिंतित हैं, ऐसे में उन्हें पार्टी में जान फूंकने के लिए ओडीसा, तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्र या पूर्वोत्तर राज्यों की जिम्मेदारी लेने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए।” पत्र लिखने वाले एक नेता ने आउटलुक को बताया, “नेतृत्व को यह नहीं समझना चाहिए कि कमजोर राज्यों में सजा के तौर पर नेताओं को भेजने से सुधार की बात खत्म हो जाएगी। गुलाम नबी आजाद, मुकुल वासनिक जैसे नेता, उन राज्यों में नेतृत्व क्षमता पहले भी दिखा चुके हैं, जहां पार्टी कमजोर थी।” उनका यह भी कहना है, “पत्र लिखने वाले नेताओं के खिलाफ जो भद्दा अभियान चलाया जा रहा है, उसे तुरंत बंद करना चाहिए।” वे एक बात और कहते हैं कि अगर इन नेताओं को कमजोर राज्यों में पार्टी को फिर से उबारने के लिए कमान दी जा रही है, तो वे निश्चित तौर पर काम करेंगे, लेकिन अगर उन्हें अपमानित करने के लिए यह किया जाएगा तो यह समझना चाहिए कि ऐसा करने से पार्टी का नुकसान होगा।” पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले एक अन्य नेता का कहना है, “अगर ऐसी हरकत होती है  तो पार्टी को आने वाले दिनों में कहीं ज्यादा शर्मिंदिगी उठानी पड़ेगी। इन चापलूसों को यह समझना चाहिए कि अगर हमें पार्टी को नुकसान ही पहुंचाना होता तो हम बिना पत्र लिखे कुछ और कदम उठा सकते थे। इसके बावजूद नेतृत्व को लगता है कि हम ऐसा कर रहे हैं तो साफ है कि वे चीजें और खराब करना चाह रहे हैं। सोचिए अगर पत्र लिखने वाले नेताओं में से आधे ने भी कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा दे दिया होता तो पार्टी की छवि जनता के बीच क्या होती?”

राहुल गांधी के वफादार माने जाने वाले एक नेता का कहना है, “पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले नेताओं के खिलाफ इसलिए आसानी से अभियान चलाया जा सका कि उन्हें मालूम है कि सुधार की तरफदारी करने वाले ज्यादातर नेताओं का कोई जनाधार नहीं है। पार्टी में भी उन्हें जो ओहदा और सम्मान मिला हुआ है, वह इसी व्यवस्था की वजह से उन्हें हासिल हुआ है। इसके बावजूद वे आज इसी व्यवस्था को गाली दे रहे हैं।” हस्ताक्षर करने वाले नेताओं की फेहरिस्त में ज्यादातर ऐसे हैं, जो अपने करिअर की ढलान पर हैं। इसलिए राहुल के वफादारों का मानना है कि इन विद्रोहियों से डरने की कोई जरूरत नहीं है। कांग्रेस के एक युवा नेता का कहना है, “पहले पार्टी से जो नेता विद्रोह करके गए, उनकी जनता के बीच पैठ थी, वे जनाधार वाले नेता थे। इसके बावजूद वे जनता की स्मृतियों से गांधी परिवार को दूर नहीं कर पाए। राज्य में चुनावों को छोड़िए, आज जो लोग नेतृत्व की बात कर रहे हैं, अगर अभी कार्यकारिणी के चुनाव हो जाए तो वे किसी सहयोग के बिना एक सीट नहीं जीत सकते हैं। ”

पत्र के साथ मौजूदा सत्ता के वफादारों और विरोधियों के बीच एक वाकयुद्ध शुरू हो चुका है, जिसके जल्द खत्म होने की कोई संभावना नहीं है। ऐसे में यह देखना काफी रोचक होगा कि इस आंतरिक लड़ाई का अंत क्या होगा? सवाल यही है कि क्या सुधार की पैरवी करने वाले नेता अपना सब कुछ दांव पर लगाकर आगे बढ़ेंगे? या फिर वे गांधी परिवार से शांति समझौता कर लेंगे। यह भी नहीं भूलना चाहिए मौजूदा समय में गांधी परिवार के पसंदीदा और वरिष्ठ नेता ए.के.एंटनी, पी.चिदंबरम और पूर्व में स्वर्गीय प्रणब मुखर्जी भी विद्रोह कर चुके हैं लेकिन उनकी पार्टी में वापसी तभी हो पाई, जब उन्हें गांधी परिवार का समर्थन मिला।

हमें अपने कदम के नतीजों का अहसास था, इसके बावजूद हम आगे इसलिए बढ़े क्योंकि पार्टी के लिए यह हमारा कर्तव्य है

वीरप्पा मोइली, पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले वरिष्ठ नेता, कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री

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