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लोकतंत्र में स्वतंत्रता की रक्षा

एक राष्ट्र, एक आराध्य अंततः एक शासन और एक शासक की तानाशाही का प्रस्थान बिंदु बन सकता है
हिंदुत्व के विचारकों ने अनगिनत देवी-देवताओं में से एक राम को चुना है ताकि हर कोई उससे तादात्म्य स्थापित कर सके

फ्रांस के गांधीवादी लेखक रोमा रोलां का निधन 1944 में हुआ था और इसी वर्ष गाय सोर्मन का जन्म पेरिस में हुआ था। गाय सोर्मन न्यूयॉर्क में निवासरत फ्रेंच-अमेरिकन स्तंभकार और लेखक हैं। उनकी पुस्तकें विश्व भर में चर्चित रहती हैं। वे रचनात्मक आधुनिक पूंजीवाद के आदर्शों को बढ़ावा देते हैं।            

गाय सोर्मन चीन, तुर्की, मिस्र, ईरान, चिली और पोलैंड आदि देशों में मानवाधिकार और लोकतंत्र समर्थक लेखक हैं। उन्होंने भारत सहित कई देशों की यात्राएं की हैं और महत्वपूर्ण व्याख्यान भी दिए हैं। सोर्मन ने एक फ्रांसीसी एनजीओ ‘एक्शन फॉर हंगर’ की स्थापना 1979 में की थी। वे आजकल उसके मानद अध्यक्ष हैं।

चीन के संबंध में उनकी पुस्तक द एम्पायर ऑफ लाइज अत्यंत चर्चित है। वे मानते हैं कि हमने ‘ग्लोबल-सेंचुरी’ में प्रवेश किया है जिसमें देशों की एक-दूसरे पर निर्भरता बढ़ी है। इस कारण अब किसी देश की ‘राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था’ या ‘राष्ट्रीय समस्या’ जैसी कोई चीज नहीं रह गई है।

सोर्मन ने 1999 में भारत की लंबी यात्रा में भारत के विद्वानों से गंभीर वार्ता की और पूरे देश को करीब से देखा था। इस यात्रा के आधार पर उन्होंने अपनी भारत संबंधी अवधारणा प्रस्तुत की। उनकी मूल फ्रांसीसी में लिखी गई पुस्तक ला जेनी ला इंडि का विश्व की कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। हमारे देश में इसका अनुवाद भारत की आत्मा शीर्षक से राजकमल प्रकाशन से 2003 में प्रकाशित हुआ था।

नित नई प्रकाशित पुस्तकों की भीड़ में कई पुस्तकें प्रकाशन वर्ष के साथ पुरानी मान ली जाती हैं। लेकिन कुछ पुस्तकों में ऐसा ताप होता है जो हमारी प्रचलित अवधारणा को नई ऊर्जा से भर देता है। गाय सोर्मन की पुस्तक भारत की आत्मा हमारी सोच को एक नई रोशनी देती है। इसे पढ़कर हम ठिठक जाते हैं और अपने आपको देखते रह जाते हैं जैसे हमने पहली बार अपने को देखा हो।

गाय सोर्मन के अनुसार उन्होंने पश्चिम में जो चीज अनुपस्थित है, उसे खोजने के लिए भारत की यात्रा की। सोर्मन को भारत में उदारता की वह भावना और जीवनशक्ति मिली, जो पश्चिम में नहीं है। उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप का वह चेहरा देखने की कोशिश की, जिसको अकसर गलत समझा गया। फ्रांस के महान लेखक तोकोविली और रोमा रोलां के भारत संबंधी लेखन ने गाय सोर्मन को भारत आने के लिए प्रेरित किया था।

तोकोविली ने दो महत्वपूर्ण पुस्तकें डेमोक्रेसी इन अमेरिका लिखी थीं। उन्होंने तीसरी किताब के रूप में भारत पर काम शुरू किया था, मगर खराब सेहत और सरकारी कामकाज की वजह से उसे पूरा नहीं कर सके। भारत के संबंध मेंे उनके लिखित 100 पृष्ठों के नोट्स मिलते हैं।

तोकोविली ने भारत में वह चीज खोजने की कोशिश की, जो यूरोप के पास नहीं थी। वो चीज थी राष्ट्रीय राज्यवाद का प्रतिरोध करने वाला स्थानीय लोकतंत्र। उनका मानना था कि लोकतंत्र दमनकारी और निरंकुश बन सकता है। अमेरिकी और फ्रांसीसी क्रांतियों ने स्थानीय निकायों तथा मध्यम स्तर की परिषदों को नुकसान पहुंचाने की गरज से राज्य को बहुत अधिक शक्तिशाली बनाया था।

तोकोविली ने फ्रांस में 1851 के दिसंबर में हुए तख्तापलट के बाद विदेश मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। इसके बावजूद नेपोलियन तृतीय अपने इस विरोधी का समाचार लेता रहा था। तोकोविली को नए युग का प्रवक्ता कहा जाता था। उनका प्रश्न था कि लोकतंत्र में लोकतंत्र के बावजूद स्वतंत्रता की रक्षा कैसे की जाए? तोकोविली का मानना था कि यूरोप के विपरीत भारत के पास राज्य नहीं था और सामाजिक जीवन ग्रामीण समुदायों के इर्द-गिर्द घूमता है। वे भारत के संबंध में कार्ल मार्क्स के विचारों से सहमत थे। मार्क्स की तरह तोकोविली को भी भारत की ग्राम पंचायतों में कुछ खूबियां भी दिखाई दीं। उनके अनुसार धर्म का राजनैतिक महत्व था क्योंकि यह समतावाद को रोकने का काम करता है।

तोकोविली ने देख लिया था कि अमेरिकी मॉडल के लोकतंत्र से समानता तो बढ़ी है, पर यह लोकतंत्र दुनिया के लिए दमनकारी भी बन रहा था। उन्होंने लोकतांत्रिक राज्यवाद के खतरे को पहले ही देख लिया था। एक धार्मिक समाज में यह जोखिम होता है कि लोकतांत्रिक जोश स्वतंत्रता के विचार को ही दरकिनार कर दे।

तोकोविली ने भारत को तार्किक ढंग से समझने की कोशिश की थी और रोमा रोलां ने इसे दुनिया के लिए एक संदेश की तरह देखा। रोमा रोलां ने महात्मा गांधी, रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद की जीवनी लिखकर भारतीय बौद्धिकता के पूरे विश्व के साथ मेल-मिलाप का महान कार्य किया था। इसीलिए गाय सोर्मन के अनुसार, “तोकोविली और रोमा रोलां ने मुझे भारत जाने के लिए प्रेरित किया। जब मैं वहां था तो गांधी ने मुझे रास्ता दिखाया। उन्होंने राजनीति तथा नैतिकता और धर्म तथा अर्थशास्‍त्र मंे कोई फर्क नहीं किया। मैंने जो कुछ देखा उसकी, जो कुछ पढ़ा था, उससे पुष्टि करने की कोशिश की।”

गाय सोर्मन बीसवीं सदी के अंतिम दशक 1999 में भारत आए। मद्रास हवाई अड्डे पर उतरते ही सोर्मन महसूस करते हैं कि वे भारत पहुंच गए हैं। वे देखते हैं स्कूटर, गाय और बैलगाड़ियां अस्त-व्यस्त सी सड़कों से गुजर रही हैं। वे कहते हैं कि भारत में नई चीजें पुरानी की जगह नहीं लेतीं, बल्कि साथ-साथ रहने लगती हैं।

गाय सोर्मन लोकतंत्र और चुनावी राजनीति की चर्चा करते हुए दार्शनिक कार्लपापर की यह बात कहते हैं कि “लोकतंत्र उस व्यवस्था का नाम नहीं है, जिसमें वोटों के द्वारा नेता चुने जाते हैं, बल्कि उसमें नेताओं को बिना हिंसा का सहारा लिए हटाया जा सकता है।”

वे कहते हैं कि आज भ्रष्टाचार से ग्रस्त संसदीय प्रणाली के बरक्स पंचायत प्रणाली को सशक्त करने की आवाज देश के कई कोनों से उठ रही है। स्थानीय प्रशासन की मांग प्राचीन लोकतांत्रिक संस्थाओं की ओर लौटने की तरह है। महात्मा गांधी भी एक ग्राम-स्वराज से भरा-पूरा भारत देखना चाहते थे।

सोर्मन का मानना है कि भारत की कई हजार जातियों ने हजारों साल से तानाशाही कायम करने के हर प्रयास को विफल बनाया है। भारत के सबसे बड़े संप्रदाय हिंदू में लाखों देवी-देवता हैं जिससे राजनैतिक निरंकुशवाद के लिए कोई गुंजाइश नहीं बचती है। भारत की सबसे बड़ी समस्याएं इसकी केंद्रीय सत्ता से ही उत्पन्न होती हैं, चाहे वह धार्मिक हो या राजनैतिक सत्ता।

भारत में लोकतंत्र अंग्रेजों की देन नहीं है, बल्कि भारतीय सभ्यता में उसकी जड़ें गहरी हैं। भारत में झुग्गियों में रहने वाली तथा भूमिहीन किसानों वाली एक-तिहाई जनसंख्या निरंतर कुपोषण की शिकार है। यह सत्ता के अति केंद्रीयकरण का परिणाम है।

दक्षिण पूर्व एशिया तथा यूरोप की सफलता की कहानियां अकसर सुनाई जाती हैं लेकिन उनकी नकल नहीं की जा सकती है। हर देश की अपनी विशेषताएं भी होती हैं जिनसे एक विकास के मॉडल के बारे में बोलना असंभव हो जाता है। इजरायल का कोई भी मॉडल भारत जैसे विशाल और विविधता भरे देश में संभव नहीं है। उसका सुरक्षा मॉडल कतई नहीं।

तोकोविली राष्ट्रीय राज्यवाद का प्रतिरोध करने वाला लोकतंत्र भारत में देखते हैं। वे विभिन्न धर्मों और उनके देवी-देवताओं को राजनैतिक स्वायत्तता का स्रोत भी मानते थे। भारत की ग्रामसभाएं, ग्राम पंचायतें और विभिन्न जातियों और धर्मों के संगठन देश में तानाशाही की प्रवृत्ति के प्रतिरोधक सिद्ध होते रहे हैं। लेकिन भारत की इक्कीसवीं शताब्दी में स्वायत्त भारत को केंद्रीयकृत भारत में बदला जा रहा है। राजनीति और धर्म एक आदर्श और एक आराध्य भारत को यूरोपीय और अरब देशों की सभ्यता और परंपरा के नजदीक ले जा रहा है।

आज हमारा पूरा देश बंगाल और अन्य राज्यों में हो रहे घटनाक्रमों से चिंतित है। तोकोविली की दृष्टि को विस्तार देते हुए गाय सोर्मन 1999 के भारत में वह सब देख लेते हैं जो आज पूरे देश को दिग्भ्रमित कर रहा है और एक पहेली बना हुआ है।

गाय सोर्मन के अनुसार अस्थिर मध्यम वर्ग को हिंदुत्व न केवल अपनी जड़ विहीनता से निपटने के औजार मुहैया कराता है बल्कि धार्मिक चिंताओं को खत्म करने में भी मदद करता है। ईसाई या मुसलमान की तरह हिंदू किसी भी स्थान पर पूजा नहीं कर सकता। हिंदू धर्म स्थानीय रीति-रिवाजों का कुल योग है। अपनी सामाजिक गतिशीलता की वजह से मध्यम वर्ग को एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना पड़ता है। इससे वे खानदानी पूजा स्थलों से दूर चले जाते हैं और तब धार्मिक कार्य संपन्न करना उनके लिए मुश्किल हो जाता है।

गाय सोर्मन पूछते हैं कि ऐसे में हिंदू शहर में कैसे पूजा करते हैं? वे ही इसके जवाब में कहते हैं कि हिंदुत्व के विचारकों ने इसके लिए अनगिनत देवी-देवताओं में से एक राम को प्रचारित करने के लिए चुना है ताकि हर कोई उससे अपना तादात्म्य स्थापित कर सके। हिंदुत्व ब्रिगेड द्वारा आयोजित होने वाले तमाम प्रदर्शनों में राम नाम का ही शोर मचाया जाता है।

गाय सोर्मन एक और उल्लेखनीय बात कहते हैं कि राजनीति और धर्म के घालमेल से चलाए जाने वाले तमाम आंदोलन एक ही तरह से काम करते हैं। वे अपने शत्रुओं जैसे होने लगते हैं, जिनके खिलाफ वे लड़ाई लड़ने का दावा करते हैं। एक राष्ट्र, एक आराध्य अंततः एक शासन और एक शासक का प्रस्थान बिंदु बन सकता है।

(लेखक शासकीय महात्मा गांधी स्मृति स्नातकोत्तर महाविद्यालय इटारसी से सेवानिवृत्त प्राध्यापक हैं)

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