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ऐतिहासिक मूल्यांकन की समस्या

साहित्यकार की कृतियों का मूल्यांकन उसकी विचारधारा के आधार पर नहीं, समग्रता में किया जाना चाहिए
इकबाल

पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले में एक स्कूल के प्रधानाध्यापक फुरकान अली को इस आधार पर निल‌ंबित कर दिया गया कि उनके स्कूल में बच्चे एक ऐसी धार्मिक प्रार्थना गाते थे जिसे मदरसों में गाया जाता है। यानी, दूसरे शब्दों में कहें तो वे मासूम बच्चों पर इस्लामी असर डाल रहे थे। इस बात की शिकायत विश्व हिंदू परिषद ने जिला प्रशासन से की थी और उसने तत्काल निलंबन का आदेश जारी कर दिया था। करता भी क्यों न? आखिर शिकायत एक ऐसे संगठन की ओर से की गयी थी जिसके सहयोगी संगठन का राज्य में मुख्यमंत्री है और देश में प्रधानमंत्री। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठनों की यह जांची-परखी कार्यनीति है कि हर जगह शिकायत करो और विरोधियों को पुलिस, अदालत और प्रशासनिक लफड़ों में उलझाए रख कर परेशान करो।

जब जांच की गयी तो पता चला कि यह कोई धार्मिक प्रार्थना नहीं बल्कि उर्दू के शीर्षस्थ कवियों में गिने जाने वाले अल्लामा इकबाल की खास तौर पर बच्चों के लिए लिखी गयी कविता ‘बच्चे की दुआ’ है। इसमें ईश्वर से प्रार्थना की गयी है कि वह बुराई से बचाए और नेक राह पर चलाए, गरीबों और बुज़ुर्गों से प्यार करना और उनकी देखभाल करना सिखाए, ऐसे काम करने की प्रेरणा दे जिनसे देश की खूबसूरती और उसकी शोभा बढ़े और दुनिया से अंधेरा कम हो और उजाला फैले।

दिलचस्प बात यह है कि यह कविता अब तक हजारों स्कूलों में गायी जा चुकी है लेकिन कभी इस पर विवाद नहीं हुआ। लेकिन यह भी सही है कि पहले कभी हिंदुत्व की विचारधारा पर आधारित हिंदू राष्ट्रवाद राजनीतिक रूप से इतना शक्तिशाली भी नहीं था। आज है, इसलिए आज हर जगह इस तरह की शिकायतें की जा रही हैं और उन पर तत्काल कार्रवाई हो रही है।

इकबाल का जन्म 1873 में हुआ था और उनकी मृत्यु 1938 में हुई। यानी वे देश का विभाजन होने के पहले अविभाजित भारत में एक विशुद्ध भारतीय मुसलमान की तरह मरे। हिंदुत्व की अवधारणा के जनक विनायक दामोदर सावरकर की तरह ही वे भी अपने जीवन के उत्तरार्ध में अपने धार्मिक समुदाय के अलग राष्ट्र होने के सिद्धांत को मानने लगे थे, और मुसलमानों के लिए एक पृथक होमलैंड की मांग के वैचारिक जनक थे।

सावरकर की तरह ही अपने जीवन के आरंभिक दशकों में वे हिंदू-मुस्लिम एकता के समर्थक और धर्म-रहित देशभक्ति के पुजारी थे। लेकिन विश्व हिंदू परिषद और उसके जैसे संगठनों के लिए आज सावरकर महान देशभक्त हैं और इकबाल मुस्लिम सांप्रदायिक। इसी के साथ यह प्रश्न भी जुड़ा है कि क्या किसी साहित्यकार की कृतियों का मूल्यांकन उसकी विचारधारा के आधार पर किया जाएगा? क्या हम किसी भी कलाकार की कला को उसकी विचारधारा या राजनीति के आधार पर समझ सकते हैं और उसका मूल्यांकन कर सकते हैं? क्या एजरा पाउंड के काव्य को इसी आधार पर खारिज किया जा सकता है कि वे फासिस्ट विचारधारा के स्वघोषित समर्थक थे? क्या लता मंगेशकर के गाए गीत सुनते हुए हमेशा यह याद रखना जरूरी है कि वे कमोबेश शिवसेना की समर्थक रही हैं?

मेरी राय इसके विपरीत है। किसी भी व्यक्ति का मूल्यांकन समग्रता में किया जाना चाहिए, आंशिकता में नहीं। सावरकर के हिंदुत्व और उनकी हिंदू सांप्रदायिकता का विरोध करते हुए भी मुझे यह मानने में कोई दिक्कत नहीं है कि उन्होंने 1857 के ‘गदर’ कहे जाने वाले ऐतिहासिक घटनाक्रम को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा और उस पर एक अत्यंत पठनीय पुस्तक लिखी। लेकिन मैं इस आधार पर उनके बाद के कारनामों की प्रशंसा नहीं कर सकता और न उन्हें ‘स्वातंत्र्यवीर’ मान सकता, क्योंकि जिस तरह से वे बार-बार ब्रिटिश सरकार से माफी मांगने के बाद शर्मनाक शर्तों पर कालापानी से छूटे और उसके बाद उन्होंने जिस तरह से मुहम्मद अली जिन्ना से भी पहले हिंदुओं और मुसलमानों के दो पृथक राष्ट्र होने के सिद्धांत का प्रतिपादन किया और अंततः महात्मा गांधी की हत्या में सूत्रधार की भूमिका निभाई, उसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता। लेकिन इसी के साथ यह भी सच है कि सावरकर नास्तिक थे, गाय को अन्य पशुओं की तरह एक पशु समझते थे और उसके साथ किसी तरह की धार्मिक आस्था को नहीं जोड़ते थे, सामिष हो या निरामिष- किसी भी तरह के भोजन के प्रचारक या विरोधी नहीं थे, जातिवाद के खिलाफ थे और तर्कसंगत विचारपद्धति के हामी थे। उनका हिंदुत्व शुद्ध राजनीतिक विचारधारा था, हर प्रकार की सांप्रदायिक विचारधारा विशुद्ध रूप से राजनीतिक ही होती है और उसके केवल राजनीतिक लक्ष्य ही होते हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं कि हिंदू धर्म से उसका कोई लेना-देना नहीं था।

इकबाल को भी उनकी समग्रता में देखे जाने की जरूरत है। जिसने भी इकबाल की कविताएं ‘तराना-ए-हिंदी’, ‘हिमाला’, ‘नया शिवाला’ और ‘बच्चे की दुआ’ पढ़ी या सुनी है, वह इनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। यह इकबाल ही थे जिन्होंने लिखा था : “खाक-ए- वतन का मुझको हर जर्रा देवता है”।

हर व्यक्ति में अंतर्विरोध होते हैं। महापुरुषों के अंतर्विरोध भी महान होते हैं। महात्मा गांधी एक ओर अछूत प्रथा के घोर विरोधी थे, खुद मैला साफ करते थे और कराते थे, और दूसरी ओर वे वर्णाश्रम धर्म में आस्था भी प्रकट करते थे। तुलसीदास ने लिखा था, “परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई”, लेकिन उन्हीं ने ‘रामचरितमानस’ के उत्तरकांड में ब्राह्मणवाद और जाति-व्यवस्था का खुलकर प्रचार किया जो परपीड़ा पर ही आधारित हैं। तो फिर, क्या गांधी और तुलसीदास का मूल्यांकन केवल एक-दो बातों के आधार पर किया जाए, या उनके समग्र जीवन और कृतित्व को देखा जाए? इकबाल को भी उनकी समग्रता में ही देखा और समझा जाना चाहिए।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)

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