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लता स्मृति: भारत की आत्मा की आवाज

13 साल की उम्र से जिस लड़की ने हमारे मन को छूना शुरू किया था, उसने कब हमारा मन गढ़ना शुरू कर दिया, पता ही नहीं चला
एम.एस सुब्बलक्ष्मी के साथ

नए साल ने आने की बड़ी कीमत ली है - लता मंगेशकर को ही मांग लिया है। हम खाली भी हो गए हैं, हतप्रभ भी और किसी हद तक अवाक भी! वे 92 साल की थीं और पिछले कुछ वर्षों से नहीं-सी थीं। वे थीं क्या? फिल्मों की पार्श्वगायिका! फिर इतना शोक क्यों है कि कोई भी सहज नहीं रह पा रहा है? इतना गहन क्या घटा कि हम भी और पाकिस्तान भी और बांग्लादेश भी, और जहां-जहां कानसेन हैं वहां-वहां अफसोस का सन्नाटा है? यह रहस्य कभी सुलझेगा नहीं, क्योंकि कला ऐसे ही सार्वजनिक रहस्य का नाम है। न पिकासो के गुएर्निका का रहस्य हम सुलझा सकेंगे, न विंसी की मोनालीसा का, न नंदलाल बोस के गांधी का, न लता मंगेशकर का। लता के बारे में हम जो कुछ भी कह-लिख रहे हैं, वह पर्याप्त नहीं हो रहा है। लगता है कि कुछ ऐसा था जो हम कह-लिख-समझ कर भी न लिख पा रहे हैं, न कह पा रहे हैं। ‘दिनकर’ ने गांधी पर लिखी अपनी कविता में लिखा है: कितना कुछ कहूं/ मगर कहने को शेष बहुत रह जाता है। ऐसा ही आज लता के लिए भी सच में महसूस हो रहा है।

13 साल की उम्र से जिस लड़की ने हमारे मन को छूना शुरू किया था, उसने कब हमारा मन गढ़ना शुरू कर दिया, पता ही नहीं चला। सितार के हर तार को झंकृत करने से रविशंकर जैसी लहर पैदा करते थे, लताजी ने वैसे ही हमारे मन-प्राणों के हर तार को झंकृत कर हमें संपूर्ण किया। हमारे राग-विराग, हर्ष-शोक, चंचलता-गांभीर्य, भक्ति-समर्पण, ईर्ष्या-द्वेष सबको आवाज से जैसा आकार उन्होंने दिया, वैसा कोई दूसरा नहीं कर सका। इसमें जादू उनकी गायकी भर का नहीं था, बल्कि उस वक्त का भी था जहां से उनके बनने और आजाद भारत को बनाने का सफर शुरू हुआ था। वे स्वतंत्र देश की पहली स्वतंत्र आवाज थीं।

हमने जैसी रक्तरंजित आजादी पाई, वह तो अकल्पनीय थी। हमें टूटा हुआ देश मिला। देश मिला लेकिन गांधी नहीं मिले। सहगल, नूरजहां जैसे कितनों का साथ छूटा। आसमान से जैसे धरती पर गिरे हम; कि आसमान ही धरती पर गिरा! बिखर जाने, घुटनों के बल बैठ जाने का खतरा सामने था। लेकिन जवाहरलाल ने देश की हर प्रतिभा को समेट कर, उस तमाम तिमिर को काटते हुए भारत को गढ़ने की जो उमंग जगाई, आज उसको आंकना हमारे लिए कठिन है, क्योंकि इतिहास हम पढ़ तो सकते हैं, उसमें लौट नहीं सकते। वास्तविकता की कठोर जमीन पर पांव धर कर आसमान को छूने और उसे भारत की धरती पर उतारने का वह दौर था और तभी लता ने अपनी आवाज खोली थी। कला स्वतंत्र तो होती है लेकिन देश-काल की गूंज उसे भी गढ़ती और संवारती है। इसलिए तो कहते हैं कि कला की अपनी आंख भी होती है, कान भी और हृदय भी। लता की आवाज ने इन तीनों को एक कर दिया।

वह खास तौर पर हिंदी फिल्मों की दुनिया का स्वर्णकाल था- 1940-60। यह आजाद भारत का भी स्वर्णकाल था। धर्म-जाति-प्रांत-भाषा जैसी सारी दीवारों को गिराता हुआ यह भारत सिर उठा रहा था। जैसे प्रतिभा के सागर में सारी हस्तियां खुद को उड़ेल रही थीं। देश बन रहा था। वह दिलीप-राज-देव-मीना कुमारी-नर्गिस-मधुबाला-नूतन-वहीदा का काल था; वह लता-रफी-मुकेश-तलत-मन्ना-हेमंत से चलता हुआ किशोर कुमार का काल था; वह प्रदीप-साहिर-शैलेंद्र-शकील-कैफी का काल था; वह नौशाद-सचिनदेव बर्मन-मदन मोहन-शंकर-जयकिशन-रवि-खैय्याम का काल था; वह विमल राय-महबूब-के.आसिफ-राज कपूर का काल था। सभी आजाद देश में अपना आजाद मुकाम खोज रहे थे और अपना सर्वोत्तम लेकर आ रहे थे। लता का जाना सर्वोत्तम की उस दीवानगी का जाना है।

साहिर की कलम से निकले फिल्मी मुहावरों से अनजान गीत की धुन बनाना, उसे किसी दिलीप या मीना कुमारी के लिए गाना जितनी बड़ी चुनौती थी, उतनी ही बड़ी चुनौती थी किसी नर्गिस या नूतन के लिए लता की आवाज को साकार करना। सभी जानते थे कि कहीं कम पड़े तो फजीहत होगी। लता की खास ताकत थी शास्त्रीय गायन, जिसकी जमीन मराठी कला-संसार की मशहूर हस्ती उनके संगीतकार पिता दीनानाथ मंगेशकर ने ही तैयार कर दी थी, भले वह तैयारी कभी पूर्णता तक नहीं पहुंच सकी। 13 साल की लड़की जब परिवार के लिए रोटी जुटाने उतरी तो वह साधना अधूरी ही रह गई। जैसे शताब्दियों पुरानी गुलामी की मानसिकता से छूटने की कोशिश करता हुआ नवजात देश भी अधूरा ही छूटता गया। लेकिन लता के पास जो पूंजी थी, उसे इतना मांजा कि वह अपनी जगह सौ टंच सोना बन गया। मैंने अमीर खान साहब के गायन में, उनके करीब बैठी लता को देखा है जो जैसे सब कुछ घोल कर पी रही हों। मैंने देखा है उनकी हथेली को अपनी आंखों से लगा कर लंबे समय तक सांस भरती लता को। यह वह खाद-पानी था जिससे लता ने खुद को सींचा था। इस कदर सींचा था कि बड़े गुलाम अली खान साहब ने नेह बरसाते हुए कहा था, ‘‘जबसे इस लड़की का यमन कान में पड़ा है, मैं अपना वाला यमन भूल गया हूं! कमबख्त कभी बेसुरी ही नहीं होती!!’’

एकाग्रता, पवित्रता, माधुर्य और सादगी के मेल से लता की वह हस्ती बनी थी जो कुछ भी नकली या घटिया नहीं गाती थी। इसलिए संगीतकार हों कि अभिनेत्रियां सब दांत भींच कर लता के साथ काम करते थे। उस आवाज और उसकी नजाकत से बराबरी करने की चुनौती आसान नहीं होती थी। और इन तीनों के मेल से छन कर जो हमारे पास पहुंचता था वह कभी अल्ला तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम बन जाता था, कभी दिल हूम हूम करे, घबराए, कभी प्यार किया तो डरना क्या, कभी आज फिर जीने की तमन्ना है बन जाता था। यह गानों की चुनी हुई सूची नहीं है क्योंकि वैसी कोशिश का अर्थ नहीं है। मानव-मन की कोई भी भावना, उमंग, विकलता और वेदना व आकांक्षा ऐसी नहीं है जिसे लता ने साकार न किया हो। बलिदान की उन्मत्तता नहीं पवित्रता, पछतावा नहीं विकलता, और राष्ट्रभक्ति का उन्माद नहीं, निखालिस राष्ट्रीयता का जैसा गान प्रदीपजी ने ऐ मेरे वतन के लोगो में लिखा, लता ने उसे आंसुओं का हार पहना कर हमारे सामने धर दिया। वह पराजय का शोक नहीं, संकल्प व एकता का गान बन गया। लता की गायकी का यह जादू उनके उन गीतों से भी छलकता है जो फिल्मों से बाहर के हैं। 18 भाषाओं में गाए हजारों गानों का संसार हमें ओतप्रोत करता है, जैसे घनघोर बारिश में आप आसमान के नीचे खड़े हो जाएं।

वे नहीं हैं; जैसा मैंने शुरू में लिखा, वे काफी वर्षों से नहीं थीं। लेकिन कभी ऐसा नहीं हुआ कि वे नहीं थीं, कभी ऐसा नहीं होगा कि वे नहीं होंगी! वे भारत की आत्मा की आवाज थीं। भारत कभी गूंगा या बहरा नहीं होगा।

(वरिष्ठ पत्रकार, गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष)

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