Advertisement

लोकतंत्र में अन्य की उपस्थिति

वह विश्वविद्यालय प्रोफेसर थापर से बायोडेटा मांग रहा है, जिसकी नींव रखने वालों में वह शामिल थीं
रोमिला थापर

लोकतंत्र की आधारशिला ही बहुलता पर रखी गई है। जिस देश और समाज में एक से अधिक अस्मिताओं, धर्मों, समुदायों, संस्कृतियों और मान्यताओं वाले लोग होंगे, उसके बहुरंगी परिवेश में ही लोकतंत्र की जरूरत पड़ेगी। यूं एकरंगी समाज में भी सभी व्यक्तियों के विचार एक जैसे नहीं हो सकते। ऐसी स्थिति में ‘स्व’ और ‘अन्य’ का भाव पैदा होना स्वाभाविक है। जो हमारा ‘स्व’ है, वही दूसरों के लिए ‘अन्य’ है। ‘स्व’ और ‘अन्य’ के बीच के इस द्वंद्वात्मक लेकिन नाजुक संबंध को कोई समाज कितनी खूबी के साथ साधता है और दोनों के अस्तित्व को पालने-पोसने के लिए किस सीमा तक आवश्यक और उपयुक्त अवसर प्रदान करता है, यही उस समाज के सफल और मानवीय होने की कसौटी है। लोकतंत्र की अवधारणा के मूल में ही अन्य के साथ संवाद और सहअस्तित्व स्थापित करने की निष्ठा निहित है। जब-जब इस निष्ठा को त्याग कर अन्य पर स्व का वर्चस्व लादने की कोशिश की जाती है, तब-तब गंभीर समस्याएं पैदा होती हैं।

इस समय भारत में लोकतंत्र ऐसे दौर से गुजर रहा है, जिसमें सत्य का एक ही रंग है और वह है सत्ता द्वारा स्वीकृति प्राप्त रंग। चेतन भगत, मकरंद परांजपे, सोनल मानसिंह, विश्वमोहन भट्ट, मालिनी अवस्थी और उनके जैसे लोग चाहे कितना ही नगाड़ा क्यों न बजाएं और चारों तरफ मुनादी करते फिरें कि भारत में कहीं कोई असहिष्णुता नहीं है, वास्तविकता को बदला नहीं जा सकता। आज स्थिति यह है कि आदिकालीन भारत की अन्यतम इतिहासकार रोमिला थापर से उसी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का एक अदना-सा रजिस्ट्रार अपने शोध कार्य का विवरण प्रस्तुत करने को कह रहा है, जिसकी नींव का पत्थर रखने वालों में वे शामिल थीं। प्रोफेसर के पद से अवकाश प्राप्ति के बाद वर्ष 1993 में विश्वविद्यालय ने उन्हें प्रोफेसर एमेरिटा यानी मानद प्रोफेसर बनाया था। यह ज्ञान के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान करने वाले विद्वानों को सम्मान देने वाला पद है और इसके साथ किसी किस्म का वित्तीय अथवा अन्य लाभ नहीं जुड़ा है। यह सम्मान जीवन भर के लिए दिया जाता है और कोई भी विद्वान इसके लिए आवेदन नहीं करता। लेकिन अब जेएनयू का कहना है कि एक समिति गठित की जाएगी जो प्रोफेसर थापर के शोध कार्य की समीक्षा करने के बाद तय करेगी कि मानद प्रोफेसर के रूप में उनकी मान्यता जारी रखी जाए या नहीं।

विचित्र विसंगति है कि एक ओर वह विश्वविद्यालय जिसे पुष्पित-पल्लवित करने में प्रोफेसर थापर ने दो दशकों से अधिक समय लगाया, उनसे उनके कार्य का विवरण मांग रहा है। वहीं, अमेरिकन फिलॉसोफिकल सोसायटी उन्हें अपना सदस्य बना कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रही है। उसकी सदस्यता दुनिया भर में कुछ गिने-चुने विद्वानों को ही दी जाती है। उन्हें क्लुगे पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। यह पुरस्कार उन विषयों में योगदान के लिए दिया जाता है जो नोबेल पुरस्कार की सूची में शामिल नहीं हैं और इसे नोबेल पुरस्कार के समतुल्य माना जाता है। रोमिला थापर दो बार पद्मभूषण अस्वीकार कर चुकी हैं, क्योंकि वे सत्ता द्वारा नहीं बल्कि विद्वत समाज द्वारा स्वीकृत होने को ही असली स्वीकृति मानती हैं। एक सार्वजनिक बुद्धिजीवी के रूप में उन्होंने हमेशा अपने समय के ज्वलंत प्रश्नों पर बेबाक राय रखी है और धर्मनिरपेक्ष तथा लोकतांत्रिक मूल्यों के समर्थन में आवाज उठाई है। आश्चर्य नहीं कि इसीलिए वर्तमान सत्ता उन्हें अपमानित करने पर तुली है क्योंकि उसे ‘अन्य’ की उपस्थिति सहन नहीं।

दिलचस्प बात यह है कि बीते 16 अगस्त को नई दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में दसवां नेमिचंद्र जैन स्मृति व्याख्यान देते हुए प्रोफेसर थापर ने आदिकालीन उत्तर भारत के धर्म और समाज में ‘अन्य’ की उपस्थिति और विभिन्न कालों में वर्चस्वशाली ‘स्व’ और उससे भिन्न और कभी-कभी विरोधी ‘अन्य’ के बीच बने संबंधों पर प्रकाश डाला था। व्याख्यान का आयोजन नेमिचंद्र जैन, जिन्हें सभी नेमि जी कहा करते थे, द्वारा स्थापित नटरंग प्रतिष्ठान ने उनकी जन्मशती वर्ष का शुभारंभ करते हुए किया था। नेमि जी ‘तार सप्तक’ के कवियों में शामिल थे और हिंदी में एक प्रकार से नाट्य आलोचना के जनक थे। साहित्य की अन्य विधाओं पर भी उनकी गहरी पकड़ थी। अपने व्याख्यान में प्रोफेसर थापर ने वेदों में आर्य वर्ण के साथ-साथ दास वर्ण के उल्लेख को रेखांकित किया और बताया कि दासीपुत्र ऋषि भी हुआ करते थे। यह आर्यभाषा न बोलने वालों का समुदाय था और आर्यों के लिए ‘अन्य’ था, जिसे ‘म्लेच्छ’ या ‘मृदधिर वाच’ (जो संस्कृत को शुद्ध ढंग से बोलने में असमर्थ हों) कहा गया। दार्शनिक बहस में प्रतिद्वंद्वी के विचार को पूरा सम्मान देते हुए पूर्वपक्ष के रूप में प्रतिपादित किया जाता था और फिर उसका खंडन किया जाता था। यानी स्व के साथ अन्य का संबंध था। बौद्ध धर्म के वर्चस्व के काल में इतर मतों को दबाया नहीं गया। इसी तरह जब मुस्लिम धर्मावलंबियों का यहां आगमन हुआ तो उनकी अस्मिता धार्मिक आधार पर परिभाषित नहीं की गई। जिस तरह यूनानियों को यवन कहा जाता था, उसी तरह उन्हें तुरुष्क कहा गया। यानी भारतीय इतिहास के विभिन्न कालखंडों में ‘स्व’ और ‘अन्य’ के संबंध को अनेक तरह से साधा गया।

लेकिन क्या आज के लोकतांत्रिक भारत में इस संबंध को साधा जा रहा है? नहीं। प्रोफेसर रोमिला थापर से उनके शोधकार्य का विवरण मांगना और जेएनयू के निरंकुश कुलपति द्वारा गठित किसी समिति द्वारा उसके मूल्यांकन का प्रस्ताव करना इस बात का निर्विवाद प्रमाण है कि सत्ता पक्ष अपने अलावा किसी और विचार को सहन करने के लिए तैयार नहीं है। प्रोफेसर थापर से यह मांग करना वैसा ही है जैसे आकाशवाणी की ऑडिशन कमेटी उस्ताद अमजद अली खां से कहे कि अपने टॉप ग्रेड को बरकरार रखने के लिए वे उसके सामने सरोद बजाकर दिखाएं!

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)

Advertisement
Advertisement
Advertisement