Advertisement

प्रेमचंद और आज का समय

उनकी कहानियां और लेखन आज की सांप्रदायिकता, राष्ट्रीयता, सत्ता के मद और उत्पीड़न का हूबहू चित्रण
प्रेमचंद ने नेतृत्व के पाखंड और मद की इतनी बड़ी लकीरें खींच दी हैं कि उनसे बड़ी लकीर आज तक नहीं खींची जा सकी

यद्यपि न तो प्रेमचंद का समय आज का समय है, न ही उस समय का यथार्थ आज के जटिल यथार्थ को पूरी तरह प्रतिबिंबित करता है। फिर भी ऐसा क्यों है कि प्रेमचंद आज और भी शिद्दत से याद आते हैं! हर आम लेखक की तरह प्रेमचंद की शुरुआत भी उसी ‘राष्ट्रवाद’, ‘स्वदेश प्रेम’, ‘फुसफुसी भावुकता’, ‘मर्यादा’ और ‘पारंपरिक नैतिकता’ के उच्छ्वासों से होती है। मगर जिस तरह खुद को पुष्ट करते हुए, उन्होंने खुद के बोध का विकास किया और बौद्धिक परिपक्वता हासिल की, वह हमें चकित करती है, कभी-कभी कन्फ्यूज भी। ‘जेहाद’, ‘बड़े घर की बेटी’ जैसी और कुछ अन्य कमजोर कहानियां लिखने वाले और ‘कफन’ ‘शतरंज के खिलाड़ी’, ‘नशा’ जैसी मेच्योर्ड कहानी लिखने वाले दोनों प्रेमचंद एक ही हैं? प्रेमचंद को उनकी उन प्रारंभिक कहानियों तक सीमित रखने वाले गलत निष्कर्ष तक पहुंचेंगे।

इस बात में अब भी क्या कोई दुविधा रह जाती है कि वे किस प्रकार का ‘समाजवाद’, कैसा ‘स्वराज’ चाहते थे या उनके मानदंड क्या थे। आइए, उनकी रचनाओं के माध्यम से उन्हें फिर से समझा जाए।

1930 की उनकी कहानी है, ‘आहुति।’ कहानी की नायिका कहती है, “अगर स्वराज आने पर भी संपत्ति का यही प्रभुत्व रहे और पढ़ा-लिखा समाज यों ही स्वार्थांध बना रहे तो मैं कहूंगी कि ऐसे स्वराज का न आना ही अच्छा है....कम से कम मेरे लिए तो स्वराज का यह अर्थ नहीं है कि जॉन की जगह गोविंद बैठ जाए। मैं ऐसी व्यवस्था देखना चाहती हूं, जहां कम से कम विषमता को आश्रय न मिल सके।”

जाहिर है, प्रेमचंद महज सत्ता का हस्तांतरण नहीं बल्कि सारी विषमता से मुक्त सच्चा स्वराज चाहते थे। प्रकारांतर से वे बार-बार अपने इसी प्रतिपादन और प्रतिबद्धता को दोहराते रहे। हंस के द्वितीय अंक में ही उन्होंने लिखा था, “इसमें कोई शक नहीं कि स्वराज का आंदोलन गरीबों का आंदोलन है....सभी छोटे-बड़े उन्हीं का मांस खा-खाकर मोटे होते हैं। अगर उन्हें संगठित करने की कोशिश की जाती है तो सरकार, जमींदार, सरकारी मुलाजिम और महाजन सभी भन्ना उठते हैं, बोलशेविज्म का हौवा दिखाकर उस आंदोलन को जड़ से खोदकर फेंक दिया जाता है। इनकी शक्ति बिखरी हुई है।”

क्या आज के प्रसंग में यह हू-ब-हू सच नहीं है, बल्कि उससे भी बड़ा सच यह है कि स्थितियां और भी जटिल और मायावी हो गई हैं। अपने व्यंग्यात्मक लेख ‘डंडा शास्त्र‍’ में भी उन्होंने सरकार और उसके न्याय तंत्र के छद्म की आलोचना की, तो सरकार ने प्रेस पर 1,000 रुपये का जुर्माना लगा दिया। चार माह बाद हंस का पांचवां अंक निकला तो उन्होंने लिखा, “जब राज संस्था अपने ही बनाए कानूनों को पैरों तले रौंदना शुरू करे तो उसकी दशा उस पागल की तरह समझनी चाहिए जो आप ही अपनी देह को दांतों से काटता है, आप ही अपना मांस नोचता है।”

उन्हें गांधी जी और कांग्रेस के समझौतापरस्त तौर-तरीकों से भी नफरत हो चुकी थी। महात्मा गांधी भी हंस के संस्थापकों, सूत्रधारों में थे, पर प्रेमचंद से उनकी राह अलग थी, सो जल्द ही उन्होंने हाथ खींच लिए। प्रेमचंद ने ‘अपने सच’ का जुर्माना खुद भरा और हंस को जिलाए रखा।  1931 के अप्रैल के हंस में उन्होंने फिर लिखा, “स्वराज मांगने का क्या उद्देश्य है? केवल अधिकार और ओहदे? देश में आधे आदमी बेरोजगार हैं, नई दिल्ली बनवाने की धुन है। प्रजा को रोजी-रोटी का ठिकाना नहीं, अधिकारियों को दस-दस हजार वेतन चाहिए।”

1931 के प्रेमचंद द्वारा इंगित अंधी विषमता की स्थिति क्या आज भी नहीं है? सांसदों, विधायकों, अफसरों, फौजियों, शिक्षण से जुड़े लोगों के सातवें वेतन आयोग की पेंशन और उनकी सुविधाएं, फकत 20-30 करोड़ जन की स्थिति और बाकी वृहत्तर वंचित आबादी को केवल दिवास्वप्न! इस विषमता का इलाज सच्चे मन से कभी नहीं किया गया। इसी तरह जाति, छुआछूत, सांप्रदायिकता आदि के प्रश्नों को भी सत्तर साल से टरकाया जाता रहा।

बहरहाल, एक साल बाद 1932 में हंस पर पुनः 1,000 रुपये की जमानत! तब उन्होंने जागरण निकाला और 1932 में ही ‘छुआछूत’ पर लिखते हुए उसे ‘डायनामाइट’ की संज्ञा दी, जो समाज के परखचे उड़ा देगा।

नेपथ्य में क्या चल रहा था...? ‘वर्णाश्रम धर्म’ पर उनके लेख का अंश गौरतलब है, “हमारे पास वायसराय के पास भेजा जाने वाला अंग्रेजी में वर्णाश्रम धर्म का एक परचा है, जिस पर वाचस्पतियों, चूड़ामणियों के हस्ताक्षर हैं, जिसमें अपील की गई है कि अछूतों को मंदिर भ्रष्ट करने से रोकें।” प्रेमचंद आगे लिखते हैं, “कुत्तों की तरह दौड़े चले गए वायसराय के पास, अछूत की फसल, पैसा, बेटी, सेवा सब पवित्र है, सिर्फ अछूत नहीं। अगर आपके देवता ऐसे निर्बल हैं तो ऐसे देवता को दूर से नमस्कार।”

कबीर के बाद यह प्रेमचंद का ही जिगरा था, जिन्होंने ‘मोटेराम शास्त्र‍ी’, ‘सवा सेर गेहूं’, ‘सद्‍गति’, ‘ठाकुर का कुआं’, ‘कफन’, ‘रंगभूमि’ और ‘गोदान’ में ब्राह्मणवाद को पूरी तरह बेनकाब किया, जिसने ‘गोदान’ में  एक दलित बाला सिलिया के साथ फंसे एक तिलकधारी पुरोहित मातादीन की धोती खोल दी, “तुम ब्राह्मण नहीं बना सके, हम तुम्हें चमार बना सकते हैं।” और सूअर का हाड़ उनके मुंह में ठूंस दिया (अकारण नहीं कि रेखा पांडेय द्वारा निर्देशित ‘गोदान’ का सूत्रधार इसी बाह्मणवाद को बनाया गया)।

दलित आंदोलन के स्वयंभू पुरोधा प्रेमचंद के अवदान को लाख अस्वीकारें, ‘रंगभूमि’ और ‘कफन’ पर मनमानी आपत्तियां उठाएं, लेकिन आज तक प्रेमचंद से बड़ी लकीर नहीं खींच पाए हैं। प्रेमचंद उल्का या जुगनू की तरह चमक कर बुझे नहीं, बल्कि जागरण और हंस के आखिरी तीन अंकों में वीभत्स जाति व्यवस्था, सनातन धर्म और ब्राह्मणवाद की ज्यादतियों पर लगातार प्रहार करते रहे। सांप्रदायिकता के घोर शत्रु प्रेमचंद हिंदी और उर्दू में समान रूप से समादृत हैं।

कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर और प्रेमचंद की विश्वदृष्टि में इतना साम्य है कि भ्रम होता है, यह कौन कह रहा है, रवीन्द्र या प्रेमचंद! उदाहरण के लिए प्रेमचंद का यह अंशः “राष्ट्रीयता वर्तमान की कोढ़ है, उसी तरह जैसे मध्यकालीन युग की कोढ़ सांप्रदायिकता थी। अर्थ के प्रश्न को हल कर देना ही राष्ट्रीयता के किले का ध्वंस करना है....हम संपत्ति के लिए जीते हैं, उसी के लिए मरते हैं, हम विद्वान बनते हैं संपत्ति के लिए, गेरुआ वस्त्र‍ धारण करते हैं संपत्ति के लिए। घी में आलू मिलाकर क्यों बेचते हैं? दूथ में पानी मिलाकर क्यों बेचते हैं? वेश्याएं क्यों बनती हैं और डाके क्यों पड़ते हैं? एकमात्र कारण संपत्ति है। जब तक संपत्तिहीन समाज का गठन नहीं होगा, जब तक संपत्ति व्यक्तिवाद का अंत नहीं होगा, संसार को शांति नहीं मिलेगी।”

यह उक्ति भगत सिंह की ऐसी ही उक्ति से हू-ब-हू मिलती है। यहां प्रेमचंद, रवीन्द्र, रोम्या रोलां, भगत सिंह और दुनिया के तमाम विश्वदृष्टि संपन्न मुक्तचेत्ताओं के साथ खड़े मिलते हैं।

जहां तक प्रेमचंद की कहानियों की कालजयिता का प्रश्न है, उनकी कहानियां इसलिए कालजयी हैं कि कहानियों का मूल तत्व विस्थापित मनुष्यता का सही स्थापन है। यह काम वे बहुत ही विश्वसनीय और आत्मीय अंदाज में करते हैं। तभी तो ‘बड़े भाई साहब’, ‘गुल्ली डंडा’, ‘बूढ़ी काकी’, ‘ईदगाह’ जैसी कहानियां आपको अपनी लगती हैं, निहायत अपनी। कुछ प्रारंभिक कहानियों को छोड़ दें तो दृष्टि भी करुणा भरी और तलस्पर्शी संवेदना से लबालब, फिर भी नीर-क्षीर विवेचक!

नमूने के लिए हम ‘कफन’ ‘नशा’ ‘सद्‍गति’ और ‘परीक्षा’ को लेते हैं। ‘कफन’ कहानी की महानता इस बात में है कि इस व्यवस्‍था में वह एक तरह से तीन पीढ़ियों की नियति की कथा है। पहली पीढ़ी में पिता घीसू ने जीवन में मात्र एक बार भरपेट सुस्वादु भोजन पाया था, वह भी किसी ठाकुर की बारात में। दूसरी पीढ़ी में उसका बेटा माधव इससे कमतर भोजन पहली बार अपनी पत्नी के कफन के पैसों से प्राप्त करता है और तीसरी पीढ़ी माधव की संतान मृत मां के पेट में ही मर गई- बिना कुछ देखे, बिना कुछ जाने। इस तरह के समाज में भूत, वर्तमान और भविष्य- तीन पीढ़ियों की मृत्यु की कथा है और अतीत से अनागत तक पर कफन का साया है।

‘नशा’ किसी भी सत्ता के नशे में अपनी चेतना, विवेक के लोप की बेहतरीन कथा है। ‘सद्‍गति’ में पंडित जी की अमानवीयता में हुई मृत्यु में पूरा गांव उनका बहिष्कार करता है, उन्हें खुद ही उसकी लाश को रस्सी से बांधकर घसीटना पड़ता है। प्रकारांतर से एक द्विज के द्विजत्व को दलितत्व में प्रत्याख्यायित करती कहानी है, ‘सद्‍गति।’

कई कहानियों में प्रेमचंद का खास रचना कौशल झलकता है। ‘ईदगाह’ में बूढ़ी अमीना दादी बच्ची में और उनकी जलती अंगुलियों को आग से बचाने के लिए चिमटा लाने वाला बालक हामिद बुजुर्ग में बदल जाते हैं। ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में मीर और मिर्जा शतरंज के मोहरे के सामने निहायत लघु दिखाई पड़ते हैं, मानो मोहरे ही खिलाड़ियों को खेल रहे हैं। ‘मंत्र’ शीर्षक से प्रेमचंद की दो कहानियां हैं। दुर्भाग्यवश तकनीकी तौर पर अवैज्ञानिक ‘मंत्र’ ही पाठ्यपुस्तकों में प्रचारित करते हैं। पहली ‘मंत्र’ में पिछड़ों को सुधारक महोदय जैसे स्वयं लागू हैं। प्रेमचंद मानवीयता के परचम को सतत ऊंचा उठाए चलते हैं। आप उन्हें भरमा नहीं सकते, तमाम छलों के बीच भी। ऊपर से मामूली लगने वाली कहानी ‘परीक्षा’ भी इसी करुणा भरी मानवता का जयघोष है। दीवानी के चयन में दूर-दूर से किस्म-किस्म के प्रत्याशी चयनकर्ता बूढ़े दीवान को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। परख इसी मुद्दे पर होती है, “वह बूढ़ा जौहरी देख रहा था कि इन बगुलों में हंस कहां छिपा बैठा है।” परीक्षा और इस तरह की दूसरी कहानियां असत्य की वैष्णवी मुस्कानों के बीच धैर्य न खोने का आत्मबल प्रदान करती हैं। कारण, सच को थोड़ी देर तक भरमाया जा सकता है, हमेशा-हमेशा के लिए ओझल नहीं किया जा सकता।

अंत में ‘गोदान।’ ‘गोदान’ उपन्यास की रचना इस मायने में अद्वितीय है कि यह बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध का भारतीय यथार्थ तो है ही, प्रकारांतर से भारत का परवर्ती यथार्थ भी है। भारतीय ग्राम बनाम विश्वग्राम का द्वंद्वात्मक यथार्थ जो यह दर्शाता है कि आज के औद्योगिक और तकनीकी विकास का यज्ञ कैसे संपन्न हो रहा है। अपनी संपूर्णता में यह कथा होरी, गोबर, धनिया, मुनिया की ही नहीं, जमीन, संपत्ति, संतान और स्वाधीनता के छिनते चले जाने की छल कथा है। जमीन छिन जाने और कर्ज में डूबने के बाद क्या बचता है नायक होरी के लिए। बेटा गोबर आजीविका की तलाश में शहर में मारा-मारा फिरेगा, बाप आत्महत्या की ओर बढ़ेगा। तुर्रा यह कि मरते दम तक भी इस विपर्यय के मूल कारक धर्म, शोषण और संस्कार गले की हड्डी बने रहेंगे और होरी का भरम नहीं टूटेगा। ‘गोदान’ का यथार्थ काल, स्थान का अतिक्रमण करता है और पात्र का भी।

विडंबना ही है कि ‘गोदान’ का अंतःराग त्याग बनाम भोग का है। त्याग जो भारतीय मूल्य है, भोग जो भौतिकवादी और विदेशी मूल्य, यह भी कि आज के सारे प्रतिरोधों और विमर्शों के बीज किसान, दलित, सांप्रदायिकता, राष्ट्रवाद आदि की आहटें ‘गोदान’ में ही आने लगी थीं। ‘गोदान’ में प्रेमचंद ने दलित और सूदखोर महाजनों के प्रसंग और नेतृत्वों के पाखंड की इतनी बड़ी लकीरें खींच दी हैं कि उनसे बड़ी लकीर आज तक न खींची जा सकी। प्रेमचंद की सतह से मोती चुग लेने वाले क्या उस लकीर तक जाने का कष्ट करेंगे?

(लेखक प्रसिद्ध साहित्यकार हैं)

Advertisement
Advertisement
Advertisement