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अंदरखाने

सियासी दुनिया की हलचल
मायावती, बसपा प्रमुख

“ब्राह्मण भाजपा के बहकावे में आ गए, मुझे पूरा भरोसा है कि ब्राह्मणों के साथ जितना गलत हो रहा है, अब वे भाजपा को वोट नहीं देंगे, न ही उसके बहकावे में आएंगे”

मायावती, बसपा प्रमुख

 

अब नौकरशाहों की बारी

जुलाई में केंद्र के कैबिनेट विस्तार के बाद अब नौकरशाही की बारी है। चर्चा है कि जिस तरह बड़े पैमाने पर कैबिनेट में नए चेहरों को मौके मिले हैं, वैसे ही नौकरशाही में भी बड़े स्तर पर बदलाव की तैयारी है। यह बदलाव अगले महीने कभी भी हो सकता है। इसके मद्देनजर कई बाबू अभी से अपनी सेटिंग में लग गए हैं। माना जा रहा है कि सरकार बदलाव के जरिए बड़ा संदेश देना चाहती है, ताकि यह लगे कि केवल परफॉर्मेंस के आधार पर जिम्मेदारी मिलेगी। हालांकि सबसे ज्यादा नजर गुजरात काडर के अधिकारियों पर ही है, क्योंकि वहां से कई लोगों के नाम चर्चा में आ गए हैं।

मंत्री के आगे अध्यक्ष पद फीका

मंत्री होने का मतलब सिर्फ लाल बत्ती नहीं है। भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे साहब नेताजी के पीएस थे। भरोसा इतना हासिल कर लिया कि पार्टी के अध्यक्ष बन गए। समय बदला तो केंद्र में मंत्री हो गए। मंत्री बने तो पार्टी में भीतर ही भीतर खलबली मची। बिहार में उनकी पार्टी से केंद्र में मंत्री पद के दूसरे दावेदारों को यह फूटी आंखों से नहीं सुहा रहा। आरोप यह भी लग गया कि मंत्री बनने के लिए प्रतिबद्धता बदल ली। फूल वाली पार्टी के ज्यादा करीब हो गए। पार्टी की बैठक चल रही थी, एक व्यक्ति एक पद की बात आई तो उन्होंने कह दिया कि शनि और रवि को मैं संगठन का काम देखता हूं, इसके बावजूद नेताजी जब कहेंगे अध्यक्ष का पद छोड़ दूंगा। दूसरे नेताजी ने चुटकी ली, मंत्री पद नहीं छोड़ेंगे भले पार्टी छोड़ दें।

साहेब पर नजर

उत्तर प्रदेश में मायावती के ब्राह्मण वोटों पर नजरें टिका देने के बाद सूबे की राजनीति गरमा गई है। सो, अगले साल के शुरू में होने वाले चुनावों के मद्देनजर सत्तारूढ़ दल सशंकित है। केंद्र की सत्ता में काबिज दल के मातृ संगठन ने इस परेशानी से निपटने के लिए पूर्व संगठन महामंत्री को कमान देने का मंत्र दिया है। ब्राह्मण होने के साथ उनकी सियासी समझ के भी लोग कायल हैं। लेकिन पेंच यह है कि जनाब गुजरात में ऐसे वक्त संगठन मंत्री हुआ करते थे, जब नरेंद्र मोदी दिल्ली में पार्टी महासचिव थे। दोनों के बीच छत्तीस के रिश्ते किसी से छुपे नहीं हैं। इसलिए प्रदेश नेतृत्व कोई जोखिम नहीं लेना चाहता और उनके नाम पर फैसला नहीं हो पा रहा है। कोई कुछ भी कहे, अंतिम मुहर तो साहेब को ही लगानी है और साहेब इतनी जल्दी दुश्मनी भूलते नहीं हैं।

जुगत में कांग्रेसी

मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष तथा नेता प्रतिपक्ष कमलनाथ को दिल्ली में बड़ी कुर्सी मिलने की खबर जैसे ही आई, राज्य में कई कांग्रेसियों के चेहरे खिल गए। उन्हें लगा कि अब उनका नंबर आ सकता है। दो में से कोई एक पद तो उन्हें मिल ही सकता है। कई दावेदार अंदरूनी तौर पर जुगत लगाने में जुट गए। दिल्ली में बैठे शुभचिंतकों से चर्चा भी होने लगी थी, लेकिन जल्दी ही सबके अरमानों पर पानी फिर गया। लंबे समय बाद राज्य में लौटे कमलनाथ ने साफ कर दिया है कि वे मध्य प्रदेश छोड़कर नहीं जा रहे, कोई जिम्मेदारी दिल्ली में मिलती भी है तो राज्य में रहते हुए उसे निभाएंगे।

टिकट ही दे दो

झारखंड में दो विधायक बेहद परेशान हैं। दोनों दूसरे दल से आकर पुरानी पार्टी में शामिल हुए थे। दोनों अपने बूते सीट जीतने की हैसियत रखते हैं। जिस पार्टी में शामिल हुए, वह सरकार में शामिल है। इसके बावजूद दोनों को मान्यता तक नहीं मिल पाई है। दल की मान्यता मिले तो शायद रास्ता निकले। अपनी सरकार होने के बावजूद मान्यता न मिलने पर दोनों भड़के हुए हैं। केंद्रीय नेतृत्व से नाराजगी जाहिर कर चुके हैं कि मान्यता नहीं तो टिकट ही मिल जाए, हम आपके टिकट पर जीत कर आ जाएंगे।

प्रमोशन का सच

वैसे तो कैबिनेट विस्तार में एक वरिष्ठ मंत्री को प्रमोशन मिला लेकिन एक अहम मंत्रालय का जिम्मा उनसे लिए जाने की खूब चर्चा है। मंत्री जी ने छह साल में मंत्रालय में कई अहम बदलाव किए। उसका असर भी दिखने लगा है। इसके बावजूद मंत्रालय छिनना लोगों को अचरज में डाल रहा है। चर्चा है कि मंत्री जी के बेहद करीबी को मंत्रालय से जुड़े कई काम मिल गए थे, जिसकी भनक ऊपर पहुंचने के बाद यह कदम उठाया गया है। अब इसे प्रमोशन कहा जाए या कुछ और!

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