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आवरण कथा/नजरिया: बारीकियों में बेजोड़

उनका सफर बताता है कि सफलता और स्टारडम हासिल करने के बावजूद सामान्य रहा जा सकता है
गैंग्स ऑफ वासेपुर में सरदार खान की भूमिका में बाजपेयी

फिल्म इंडस्ट्री में मनोज (बाजपेयी) भैया की सफलता से बिहार और अन्य जगहों के मुझ जैसे कलाकारों को काफी प्रेरणा मिलती है। मुझे वह दिन आज भी याद है जब 1998 में सत्या फिल्म देखने मैं पटना के अप्सरा सिनेमा हॉल गया था। तब मैंने अखबारों में पढ़ा था कि फिल्म में भीखू म्हात्रे का किरदार निभाने वाले अभिनेता बिहार के बेतिया जिले के बेलवा गांव के हैं। इस बात ने मुझे अभिनेता बनने के लिए प्रोत्साहित किया। मैंने सोचा, अगर मेरे गृह प्रदेश के एक छोटे से गांव का कोई युवक बिना गॉडफादर या किसी मदद के मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री में अपने लिए जगह बना सकता है, तो मैं वैसा क्यों नहीं कर सकता।

मेरे अभिनेता बनने की पूरी यात्रा में वे प्रेरणा रहे हैं। मैं उनका प्रशंसक रहा हूं। मेरे अभिनेता बनने से पहले एक रोचक वाकया हुआ था। मनोज भैया शूल (1999) की शूटिंग करने मोतिहारी आए थे और पटना के मौर्य होटल में ठहरे थे। उन दिनों मैं उसी होटल में काम करता था। उनके जाने के बाद होटल के एक कर्मचारी ने बताया कि मनोज भैया अपनी चप्पल ले जाना भूल गए हैं। मैंने उससे कहा कि वह चप्पल मुझे दे दे। मैंने सोचा कि उन चप्पलों को पहनकर शायद मेरी भी किस्मत बदल जाए, फिल्म इंडस्ट्री के दरवाजे मेरे लिए भी खुल जाएं।

मनोज भैया से मुझे कठिन परिश्रम और थिएटर के जरिए अपने शिल्प को निखारने की प्रेरणा मिली। जब आप फिल्म इंडस्ट्री में किसी को नहीं जानते, तब कठिन परिश्रम के बल पर ही मौजूदगी दर्ज करा सकते हैं।

पिछले साल द फैमिली मैन सीजन 1 के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता और मिर्जापुर के लिए मुझे सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का क्रिटिक्स गिल्ड अवार्ड मिला। ऑनलाइन पुरस्कार समारोह में मैंने कहा कि यह पुरस्कार मेरे लिए अलग है क्योंकि मैं यहां उस व्यक्ति के साथ प्लेटफॉर्म शेयर कर रहा हूं जिसने मुझे अभिनेता बनाया। इस वर्ष भी मेलबर्न में भारतीय फिल्म समारोह में वही हुआ।

बिहार से मुंबई तक मनोज भैया की यात्रा यह बताती है कि कैसे सफल होने और स्टारडम हासिल करने के बावजूद सामान्य रहा जा सकता है। अपने संघर्ष के दिनों में मैं अक्सर उनसे मिलता था। उनके साथ गैंग्स ऑफ वासेपुर (2012) में काम भी किया। अपने अभिनय को निखारने के लिए मैं काफी मेहनत कर रहा था। अक्सर मनोज भैया की फिल्में देखा करता और मुझे आश्चर्य होता कि उन्होंने कितनी बखूबी से इन किरदारों को निभाया है।

अभिनय में उस तरह की बारीकियां फिल्म इंडस्ट्री में अब देखने को मिल रही हैं। इन दिनों सभी निर्माता, निर्देशक और यहां तक कि दर्शक भी इन बारीकियों पर ध्यान देते हैं। लेकिन 10 साल पहले अभिनय में इस तरह की बारीकी को विचित्र और अनोखा माना जाता था। वे तब भी प्रेरणास्रोत थे, वे आज भी प्रेरणास्रोत हैं। यह इत्तेफाक ही है कि बिहार से मुंबई तक का सफर हम दोनों के लिए एक जैसा रहा। हम अपने गांव से पहले पटना आए और मुंबई जाने से पहले दिल्ली में थिएटर किया।

फिल्मों के अलावा हम इन दिनों ओटीटी प्लेटफॉर्म के लिए भी काम कर रहे हैं। हम जैसे कलाकारों के लिए डिजिटल प्लेटफॉर्म बड़ा लोकतांत्रिक माध्यम है। एक अभिनेता के रूप में यहां आपको काफी वक्त भी मिल जाता है। वेब सीरीज में कोई कहानी कहने के लिए आपको छह से आठ घंटे मिलते हैं। ओटीटी वास्तव में कलाकारों का माध्यम है। फिल्म रिलीज होने के बाद शुरुआती दिनों में बॉक्स ऑफिस कलेक्शन का दबाव यहां आपको नहीं रहता। यहां एक मात्र दबाव अच्छा अभिनय करने का होता है। आपको यह सोचने की जरूरत नहीं कि मल्टीप्लेक्स में कितनी स्क्रीन आपकी फिल्म को मिलेंगी या कितने दर्शक फिल्म देखने थिएटर आएंगे।

मेरी फिल्म गुड़गांव (2016) सिर्फ 80 स्क्रीन पर प्रदर्शित हुई थी। अगर आप उसे देखना भी चाहते तो आसपास के थिएटर में आपको मिलती ही नहीं। लेकिन ओटीटी पर यह समस्या नहीं है। यह सभी सब्सक्राइबर तक पहुंचती है। आपको कहीं भी कुछ भी देखने की आजादी है। आपको सिर्फ एक गैजेट और इंटरनेट कनेक्शन चाहिए। ओटीटी प्लेटफॉर्म पर अच्छे कॉन्टेंट की वजह से हम जैसे कलाकारों को अवसर मिला है। इसमें संदेह नहीं कि नए कलाकारों के लिए इस प्लेटफॉर्म पर अनेक रास्ते और संभावनाएं हैं, लेकिन न मनोज भैया को और न ही मुझे रातों-रात सफलता मिली। फिल्म इंडस्ट्री में करिअर बनाने की इच्छा रखने वाले हर युवा से मैं यही कहता हूं कि वह पूरी तैयारी के बाद ही आए। हाल ही मुंबई में एक शूटिंग के दौरान एक युवक मुझसे मिला। वह मेरे गृह जिले गोपालगंज का रहने वाला था। वह भी अभिनेता बनने आया था। उसने मेरी मातृभाषा भोजपुरी में बात की। मैंने उससे पूछा कि थिएटर में कोई अनुभव है या नहीं। उसने जवाब दिया कि मुंबई में थिएटर करूंगा। तब मैंने उससे कहा, "पटना में क्यों नहीं, जहां बहुत अच्छे थिएटर हैं?"

मैं नहीं जानता कि मुझे उस युवक को यह सलाह देनी चाहिए थी या नहीं, लेकिन मैं यह जरूर कहना चाहता हूं कि जो भी फिल्मों में करिअर बनाना चाहता है, वह पूरी तैयारी के बाद ही आए। आप तभी आएं जब आपका आधार मजबूत हो। मुंबई आने से पहले मनोज भैया और मैंने थिएटर में काफी काम किया।

पंकज त्रिपाठी

(जैसा गिरिधर झा को बताया)

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