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पाकिस्तानी घुसपैठ बनी रिश्तों में बाधक

भारत, चीन के साथ संबंध सुधारने की लगातार कोशिश कर रहा है, लेकिन पाकिस्तान फैक्टर इसमें सबसे बड़ी बाधा
रिश्तों की बातः ममल्लापुरम में दूसरी अनौपचारिक ‍वार्ता के दौरान नरेंद्र मोदी और शी जिनपिंग

आजाद और आधुनिक भारत को पिछले सात दशकों में अपने सिर्फ दो पड़ोसी देशों के साथ युद्ध में उलझना पड़ा है। पाकिस्तान के साथ 1947 से चार युद्ध, अधिकांश कश्मीर मुद्दे पर हुए। चीन के साथ भारत सिर्फ एक बार युद्ध में उलझा, जब 1962 में सीमा विवाद पर दोनों में टकराव शुरू हुआ। इन सात दशकों में दोनों पड़ोसियों के साथ भारत के रिश्ते अलग-अलग राह पर चले। विदेश मंत्रालय के महारथियों की मानें तो भारत विरोधी तीखी नफरत ही पाकिस्तान के साथ सौहार्दपूर्ण और सहयोग के रिश्ते में बाधक है। पाकिस्तान का यह नजरिया दरअसल कश्मीर मुद्दे से आगे जाता है। भारत के शहरों और कस्बों को बार-बार निशाना बनाने की उसकी हरकतें गवाह हैं कि उसका भारत विरोध सिर्फ कश्मीर घाटी तक सीमित नहीं है, जिसकी सबसे दुर्दांत मिसाल मुंबई में 2008 के आतंकी हमले थे।

दूसरी ओर, भारत के साथ अपने मतभेदों को अलग रखकर चीन कारोबार और आर्थिक सहयोग जैसे क्षेत्रों पर फोकस करता रहा, ताकि द्विपक्षीय रिश्तों में सुधार आ सके। लेकिन यह फर्क लगातार धुंधला होता जा रहा है। हाल के वर्षों की घटनाओं से भारतीय अधिकारियों में यह एहसास गहरा हुआ है कि भारत-चीन संबंधों को सुधारने में पाकिस्तान फैक्टर कितना विध्वंसक साबित हो रहा है।

चाहे पाकिस्तान स्थित मसूद अजहर को आतंकवादी घोषित करने का मुद्दा हो, न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप में भारत की सदस्यता का मसला हो या संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की बात हो, चीन ही भारत के प्रयासों में अड़ंगे लगाता रहा है। इन मामलों में चीन के फैसलों के पीछे मुख्य भूमिका पाकिस्तान फैक्टर की ही रही है। भारत के खिलाफ पाकिस्तान और चीन का सबसे तीखा गठजोड़ तब दिखाई दिया जब अनुच्छेद 370 में संशोधन करते हुए जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म किया गया और इसे दो केंद्रशासित प्रदेशों में विभाजित करने का फैसला हुआ। भारत को आशंका थी कि इस फैसले से लद्दाख जुड़ा होने के कारण चीन कड़ी प्रतिक्रिया देगा। इसे ध्यान में रखकर ही सरकार ने चीन में राजदूत रह चुके विदेश मंत्री एस. जयशंकर को बीजिंग भेजा ताकि उसे यह भरोसा दिलाया जा सके कि यह भारत का आंतरिक मसला है और इसका बाहरी मामलों से कुछ लेनादेना नहीं है। लेकिन भारत के इस रुख से चीन सहमत नहीं था। उसने न सिर्फ भारत के तर्क को नजरअंदाज कर दिया, बल्कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की दखल के लिए प्रस्ताव लाने में पाकिस्तान का साथ भी दिया। भारत की कूटनीतिक कामयाबी बस इतनी रही कि कश्मीर मुद्दे पर सुरक्षा परिषद में बैठक बंद दरवाजे में हुई। लेकिन इस मुद्दे पर चीन ने जिस तरह पाकिस्तान का साथ दिया, उसे भारत में शत्रुतापूर्ण कदम के तौर पर देखा गया।

इस पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच चेन्नै के पास ममल्लापुरम में दूसरी अनौपाचरिक शिखर बैठक हुई। अनौपाचिक वार्ता कूटनीति की शब्दावली में एक नई पेशकश है। औपचारिक वार्ता में प्रतिनिधिमंडल स्तर की वार्ताओं के बाद साझा बयान जारी किया जाता है या कई समझौते होते हैं। इसके विपरीत अनौपचारिक वार्ता में इस तरह का कोई दबाव या अपेक्षाएं नहीं होती हैं। वार्ता के नतीजे दिखाने के दबाव से मुक्त, अनौपचारिक वार्ता में दो देशों के नेताओं को एक-दूसरे के साथ समय बिताने और एक-दूसरे को बेहतर ढंग से समझने का अवसर मिलता है। इससे भी महत्वपूर्ण है कि इससे नेताओं को यह समझने का मौका मिलता है कि उनके देश के प्रति दूसरे का रणनीतिक नजरिया क्या है।

चीन ने अनौपचारिक वार्ता को अमेरिका के दो राष्ट्रपतियों- बराक ओबामा और डोनाल्ड ट्रंप के साथ भी आजमाया है। लेकिन दोनों ने इस वार्ता को एक बार तक ही सीमित रखा। भारत ने मोदी और जिनपिंग के बीच अनौपाचरिक वार्ता को नियमित रूप से आयोजित करने का वादा किया है, बल्कि ऐसी वार्ता भविष्य के नेताओं के बीच भी जारी रह सकती है।

महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारत और चीन के बीच दोनों अनौपचारिक वार्ताएं किसी न किसी संकट के बाद ही हुईं। चीन के वुहान में जिनपिंग और मोदी की पहली अनौपचारिक वार्ता डोकलाम में दोनों देशों के सैनिकों के बीच 70 दिनों के गतिरोध के बाद हुई थी। इसी तरह, अक्टूबर में ममल्लापुरम में दूसरी अनौपचारिक वार्ता से पहले पाकिस्तान फैक्टर सामने आया था। समझौतों और विजन दस्तावेज के अभाव में अनौपचारिक वार्ता के फायदे अस्पष्ट हैं। दोनों देशों को वार्ता से क्या हासिल हुआ, इसमें अनिश्चितता बनी रहती है। ममल्लापुरम के बाद भी यही हुआ।

इस वार्ता में कुछ फायदे अवश्य दिखे। मसलन, चीन के पक्ष में भारी व्यापार घाटे को कम करने के लिए दोनों देशों के वित्त मंत्रियों के बीच ‘रणनीतिक आर्थिक वार्ता’ शुरू करने का प्रस्ताव आया। इससे चीन के बाजारों में फार्मास्युटिकल्स जैसे भारतीय उत्पादों की पहुंच बढ़ सकती है। व्यापार, निवेश और सेवाओं को एक साथ रखकर आर्थिक रिश्तों को समग्र रूप से देखने का रास्ता खुला है। इन मसलों पर वित्त मंत्रियों के बीच वार्ताएं होंगी। दोनों देशों के बीच विभिन्न स्तर पर और बातचीत भी होगी। इनमें विशेष प्रतिनिधियों के बीच रुकी हुई सीमा वार्ता और शीर्ष सैन्य अधिकारियों के बीच संपर्क भी शामिल हैं। भारत से चीन और चीन से भारत में पर्यटकों और छात्रों की आवाजाही बढ़ाकर दोनों देशों की जनता के बीच संपर्क बढ़ाने का भी मार्ग प्रशस्त हो सकता है। इन वार्ताओं का एक और महत्वपूर्ण पहलू है कि इससे भारत के इन्फ्रास्ट्रक्चर में चीन से निवेश बढ़ सकता है। इससे दोनों को फायदा होगा। चीन को भारतीय बाजार की दरकार है तो भारत को इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश की जरूरत है। भारत को इसकी जरूरत न सिर्फ अपने यहां बदलाव लाने, बल्कि अकुशल लोगों की खातिर रोजगार के लिए भी है।

लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि दोनों देशों के बीच रिश्ते सुधारने में बाधक मुद्दे खत्म हो गए हैं? इसका सीधा जवाब होगा, नहीं। चीन के सामने भारत के साथ रिश्तों की बात आएगी तो पाकिस्तान अहम भूमिका निभाता रहेगा। यह ऐसा मसला है जिस पर भारतीय नीति निर्धारकों को चीन के साथ आगे बढ़ने वाले क्षेत्रों पर फोकस करते समय विचार करना होगा। एक ही क्षेत्र में चीन के साथ आगे बढ़ना भारत के लिए कभी आसान नहीं रहा है। दोनों देश अपनी प्राचीन सभ्यता और विश्व में अपने योगदान पर गर्व करते हैं। दोनों ही देश अंतरराष्ट्रीय मंच पर बड़ी भूमिका निभाने की इच्छा रखते हैं और इसके लिए मेहनत भी कर रहे हैं। इस प्रक्रिया में भारत के समक्ष चीन नई चुनौतियां पेश करता रहेगा। वह न सिर्फ पाकिस्तान, बल्कि दक्षिण एशिया में भारत के दूसरे पड़ोसी देशों के साथ भी मजबूत रिश्ते बना रहा है। चीन की ‘बेल्ट एेंड रोड’ पहल को भले ही भारत नामंजूर कर चुका है, लेकिन दक्षिण एशिया के अधिकांश देशों के लिए यह अत्यंत आकर्षक है।

ऐसे समय जब दक्षिण एशिया में चीन का असर बढ़ रहा है, भारत को न सिर्फ खुद को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए नए रास्ते तलाशने होंगे, बल्कि पड़ोसी देशों की प्रगति में मदद के लिए खुद को व्यावहारिक विकल्प भी बनाना पड़ेगा। दूसरी ओर, भारत की मौजूदगी एशिया-प्रशांत क्षेत्र में बढ़ रही है, जहां अमेरिका को चीन के बढ़ते प्रभाव को सीमित करने के लिए दूसरे देशों की आवश्यकता है। ऐसे में भारत को अपनी भावी योजनाएं बहुत सोच-विचारकर बनानी होंगी। विकास की रफ्तार बनाए रखने के लिए भारत को इस क्षेत्र में शांति की आवश्यकता होगी। शांति और स्थिरता कायम करने के लिए अन्य देशों के साथ रिश्ते मजबूत करने में भारत को अपनी रणनीति स्वतंत्र रखनी होगी। चीन उस समूह का प्रमुख सदस्य होगा। उसकी चुनौतियों के बावजूद भारत बीजिंग के साथ रिश्ते कैसे सुधारता है, इससे भारतीय नेतृत्व की परिपक्वता और दूरदर्शिता की परीक्षा होगी। अब तक उसने अच्छा काम किया है और उम्मीद है कि करोड़ों भारतीयों के बेहतर भविष्य के लिए वह आगे भी ऐसा ही करता रहेगा।

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