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कोविड-19/ऑक्सीजन आपदा/हांफते-हांफते जो हमें छोड़ गए

अप्रैल में बांध टूटा और समूचा देश ऑक्सीजन के संकट से घिर गया और पूरा स्वास्थ्य ढांचा चरमरा गया
ऑक्सीजन की किल्लत से कई लोगों ने अपने परिजनों को खो दिया

सावधान! विशेषज्ञों ने पिछले नवंबर में ही चेताया था कि महामारी की बेहद खतरनाक लहर बड़े वेग से आने को है। उनकी सलाह थी कि आपात स्थिति के लिए मेडिकल ऑक्सीजन की पर्याप्त व्यवस्था करें। लेकिन उनकी चेतावनी अनसुनी कर दी गई। नेताओं ने बौड़म-से भरोसे से वादा किया कि कोविड तो हरा दिया गया और लोग भी भोलेपन में इस पर भरोसा कर गए। आखिर अप्रैल में बांध टूटा और समूचा देश संकट से घिर गया। पूरा स्वास्थ्य ढांचा चरमरा गया, लेकिन जिस चीज की भारी किल्लत दूसरी लहर की भयावह त्रासदी का चश्मदीद गवाह बन गई, वह थी ऑक्सीजन और उसे लाने वाले सदाबहार सिलिंडरों की डरावनी कमी। लोग एक अदद सांस के लिए हांफते रहे; कुछ तो हांफते-हांफते दम तोड़ गए और अपने परिजनों को आखिरी दर्दनाक पलों की याद में तड़पते छोड़ गए। यहां हम उन नौ पीडि़तों की कहानियां बता रहे हैं, जो समय पर ऑक्सीजन मिल जाती तो आज जिंदा होते। उनकी आखिरी, दिल दहला देने वाली कराहें हमेशा के लिए निष्ठुर लापरवाही के खिलाफ सबक होनी चाहिए।

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रमन दुग्गल

मम्मी चली गई!’

राजधानी दिल्ली के विवेक विहार की निवासी 54 वर्षीय रमन दुग्गल ने 10 अप्रैल को पहली बार कोरोना वायरस का टीका लगवाया था। अगले ही दिन उन्हें बुखार हो गया, परिवारवालों को लगा कि यह टीके का सामान्य असर है। लेकिन जब बुखार अगले सप्ताह भी जारी रहा तो उनके चिंतित बच्चों ने उन्हें अस्पताल में दाखिले की बेतरह कोशिश की। आखिर 17 अप्रैल को उन्हें गुप्ता मल्टीस्पेशियलिटी अस्पताल में बेड मिला। उन्हें दो दिनों तक जनरल वार्ड में रखा गया। ऑक्सीजन स्तर गिरा तो आइसीयू में भेजा गया। उनके बेटे करण दुग्गल बताते हैं, ‘‘हर दिन हमें अस्पताल से फोन आते थे कि ऑक्सीजन का इंतजाम करें। मैं और मेरी बहन कोविड से पीड़ित थे और ऑक्सीजन सिलिंडर की तलाश में दौड़-भाग करते रहे।’’

23 अप्रैल की रात, अस्पताल ने सभी रोगियों के रिश्तेदारों को एसओएस भेजा कि उनका ऑक्सीजन रिजर्व समाप्त होने वाला है। दुग्गल परिवार ने ऑक्सीजन के लिए हर जगह हाथ-पैर मारा लेकिन सब बेकार था। करण कहते हैं, ‘‘मुझे अंदाजा नहीं था कि अगले दिन दुख का पहाड़ टूटने वाला है। उस सुबह मेरे मुंह से सिर्फ यही निकला कि मम्मी चली गई।’’ आज तक अस्पताल ने रमन की मौत का आधिकारिक कारण नहीं बताया कि ऑक्सीजन की कमी से उनकी जान गई थी।

सरस्वती बिष्ट की बेटियां

सरस्वती बिष्ट

"मम्मी बादलों पर गई है"

हर कोई खतरे को पहले भांप सकता था। 11 साल के एक मानसिक विकलांग बेटे और आठ और छह साल की दो बेटियों की मां, 39 साल की सरस्वती बिष्ट दिल्ली के सोनिया विहार में रहती थीं। अप्रैल के आखिर में उन्हें कोविड हुआ और एक मई को उन्होंने अपने भाई दीपक को बताया कि वे सांस नहीं ले पा रही हैं। दीपक ने बवाना में अपने एक दोस्त की मार्फत खाली सिलिंडर की व्यवस्था की। उस वक्त यह खाली सिलिंडर भी भरे से कुछ कम कीमती नहीं था। रात 8 बजे से अगले दिन सुबह 11 बजे तक दीपक लाइन में लगकर बवाना के एक प्लांट में सिलिंडर भरवाने का इंतजार करते रहे। उन्हें कहा गया कि उनकी बारी एक दिन बाद आएगी। दीपक कहते हैं, "सचमुच मैंने वहां हर जगह भीख मांगी पर किसी ने मदद नहीं की।"

इस बीच सरस्वती की स्थिति बदतर होती गई। दीपक और उनके चचेरे भाई अब अस्पताल में बिस्तर तलाशने लगे। उन लोगों ने आठ अस्पतालों में संपर्क किया और आठों जगह उन्हें निराशा हाथ लगी। इस बीच सरस्वती को लग रहा था जैसे उनकी उर्जा खत्म होती जा रही है। वह लगातार गुहार लगा रही थीं, "मुझे एडमिट करा दो।" अंतत: दीपक की खोज गुड़गांव के मेट्रो अस्पताल पर जाकर खत्म हुई जिसने जगह का वादा किया। लेकिन भाग्य ने फिर धोखा दिया। कुछ घंटों के बाद ही, अस्पताल के स्टाफ ने कहा, "हमारे पास ऑक्सीजन और बिस्तर नहीं है, आपको मरीज को ले जाना पड़ेगा।" अब भी रोते हुए दीपक याद करते हैं, "पूरी रात हम उसे एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल ले गए। किसी ने भी मदद नहीं की। अगले दिन सांसों के लिए संघर्ष करते हुए वह हमें छोड़ कर चली गई।" सरस्वती का बेटा इस त्रासदी को समझ नहीं सकता। उसकी छोटी बहनें भी अभी इस नुकसान को नहीं समझतीं। वे आश्वस्त भाव से बस इतना ही कहती हैं, "मम्मी बादलों पर गई है।" सरस्वती की मृत्यु के बाद भी नियति का क्रूर मजाक जारी रहा। दीपक बताते हैं, "हम उन्हें श्मशान घाट ले जाने के लिए एंबुलेंस का इंतजार करते रहे लेकिन उसकी व्यवस्था नहीं हुई। अंत में हमने मदद की उम्मीद में पुलिस को फोन किया।" जो हुआ वो चौंकाने वाला और पुलिस की क्रूरता का परिचायक था। सोनिया विहार थाने से दो पुलिसकर्मी उनके घर पहुंचे और चिल्लाते हुए पूछा, "हमको यहां क्यों बुलाया? अगर तुम लोगों को उनका अंतिम संस्कार करना होता, तो तुम लोग चले जाते। अब हम शव को अपने कब्जे में ले रहे हैं।"

गिड़गिड़ाने पर भी वे लोग नहीं माने और शव को पोस्टमार्टम के लिए ले गए। सरस्वती का शव वापस पाने के लिए उनके पति ने अगले दिन घंटों मिन्नतें कीं। उनकी मृत्यु के 28 घंटे बाद परिवार उनका अंतिम संस्कार कर पाया।

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अशोक अमरोही

डॉ. अशोक कुमार अमरोही

मेरी जोर से चीख निकली, ‘तुम सब हत्यारे हो’

महामारी की दूसरी लहर के अराजक दौर में, भीषण लापरवाही से हुई मौत ने ऊंची पहुंच वाले रसूखदारों को भी नहीं बख्शा। पूर्व आइएफएस तथा ब्रुनेई, मोजांबिक और अल्जीरिया में राजदूत रह चुके 65 वर्षीय अशोक कुमार अमरोही परिवार के साथ गुड़गांव में रहते थे। 21 अप्रैल को बुखार चढ़ा तो अचानक सांस फूलने लगी। कई घंटे की मशक्कत के बाद परिवारवाले एक ऑक्सीजन सिलेंडर का इंतजाम कर सके। एक दिन बाद अमरोही का ऑक्सीजन स्तर फिर गिरने लगा। डॉक्टरों ने फौरन अस्पताल में भर्ती होने की सलाह दी। काफी हाथ-पैर मारने के बाद आखिर 25 अप्रैल को किस्मत चमकी। किसी के जरिए देश के सबसे अच्छे निजी अस्पतालों में से एक में बिस्तर का वादा किया गया। कहा गया कि अगले दिन शाम लगभग 8 बजे बिस्तर मिल जाएगा। परिवार आधा घंटे पहले अस्पताल पहुंच गया। लेकिन वहां तो भयानक त्रासदी का मंच तैयार था।

अशोक अमरोही की पत्नी यामिनी बताती हैं, ‘‘उन्होंने हमें अंदर नहीं जाने दिया। पहले हमें कोविड टेस्ट होने तक प्रतीक्षा करने को कहा गया। टेस्ट करने में उन्हें घंटे से अधिक का समय लगा। इसी बीच मेरे पति की हालत बिगड़ने लगी। वे बुरी तरह हांफ रहे थे। उन्हें तत्काल इलाज की जरूरत थी।’’ कांपती आवाज में वे कहती हैं, ‘‘तब भी हमें अंदर नहीं जाने दिया गया। कहा, पहले दाखिले की प्रक्रिया पूरी करें।’’ बेटा पांच घंटे से कतार में लगा था और पति जोर-जोर से हांफ रहे थे। हालत बिगड़ती देख वे दौड़ कर अस्पताल में गईं और कम से कम प्राथमिक उपचार देने की भीख मांगने लगीं। लेकिन उन्हें अनसुना कर दिया गया। ‘‘मैं सुबक रही थी और अंदर जाने देने की भीख मांग रही थी। मैं तीन बार अंदर गई, लेकिन उनके कानों पर जूं नहीं रेंगी। मेरे पति की सांस टूटने लगी।’’

उन्हें पांच घंटे से अधिक इंतजार कराया गया। वे कहती हैं, ‘‘मैं उनकी बेरुखी से पागल हो उठी थी। मैं जोर से चीखी, ‘तुम सब हत्यारे हो।’ मैं पति को राहत देने की कोशिश कर रही थी, तभी बेटा दौड़ता हुआ आया और बोला, भर्ती प्रक्रिया पूरी हो गई। मैंने देखा, पति शांत बैठे हैं। उनका चेहरा पीला पड़ गया था। जब स्टाफ स्ट्रेचर लेकर आया, तो डॉक्टर ने उन्हें मृत घोषित कर दिया।’’

उनके निधन के कुछ घंटे बाद विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने ट्विटर पर संवेदना व्यक्त की थी। एक तरफ जयशंकर ऑक्सीजन और चिकित्सा उपकरणों की पर्याप्त आपूर्ति का आश्वासन देने वाले ट्वीट करते हैं और दूसरी तरफ एक आइएफएस की मौत ऑक्सीजन न मिलने से हो जाती है।

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रवीश नारायण

रवीश नारायण

छह ऑक्सीजन सिलिंडर बराबर जीवन

रवीश नारायण की जिंदगी फिर खुशनुमा हो चली थी। 46 वर्षीय रवीश की रेडीमेड गारमेंट की दुकान चल पड़ी थी। पटना में एक और दुकान खोलने के लिए पिछले साल बैंक से 1.20 करोड़ रुपये का लोन लिया था। उन्हें भरोसा था कि पिछले साल के लॉकडाउन का सारा घाटा पूरा हो जाएगा। लेकिन उन्हें आने वाले तूफान का अंदाजा नहीं था। उनकी पत्नी कविता बताती हैं, ‘‘मेरे पति ने हल्के कोविड लक्षण के बाद 13 अप्रैल को आरटी-पीसीआर टेस्ट कराया। दो दिन बाद रिपोर्ट पॉजिटिव आई। बड़े बेटे और मेरी भी रिपोर्ट पॉजिटिव आई।’’ सब घर में ही खुद को आइसोलेट कर दवा लेने लगे। ‘‘शुरुआत में सब कुछ ठीक था लेकिन कुछ दिनों बाद उनका ऑक्सीजन स्तर गिरने लगा। हमने उन्हें अस्पताल में भर्ती कराने की बहुत कोशिश की, लेकिन एम्स पटना समेत कहीं भी बेड नहीं थी। हमें घर में ही ऑक्सीजन सिलिंडर की व्यवस्था करनी पड़ी।’’

अधिकांश रिश्तेदार, दोस्त, पड़ोसी संक्रमण के डर से दूरी रख रहे थे, ऑक्सीजन सिलिंडर ढूंढ़ना तब दु:स्वप्र जैसा था। कविता कहती हैं, ‘‘किसी तरह हम 30,000 रुपये में एक सिलिंडर और 3,000 रुपये में उसका रेगुलेटर खरीद पाए, लेकिन हममें से कोई नहीं लगाना नहीं जानता था। एक नर्स जैसे-तैसे तैयार हुई तो हर बार आने की 2,000 रुपये फीस ली।’’ 20 अप्रैल को रवीश की हालत बिगड़ गई और उन्हें फौरन एक निजी अस्पताल में ले जाना पड़ा। रवीश के रिश्तेदार अविनाश कहते हैं, ‘‘अस्पताल भर्ती लेने को इस शर्त पर राजी हुआ कि हम ऑक्सीजन सिलिंडर की व्यवस्था करेंगे।’’ बकौल अविनाश, अस्पताल को रेमडेसिविर इंजेक्शन की चार वॉयल के लिए 1.06 लाख रुपये देने पड़े, लेकिन उससे कोई लाभ नहीं हुआ। कविता कहती हैं, ‘‘अस्पताल ने हमें बताया कि उनकी हालत को देखते हुए, एक सिलिंडर पर्याप्त नहीं था, छह की जरूरत थी। उन्होंने कहा कि 85 प्रतिशत फेफड़े संक्रमित थे। हमें कहा गया था कि दो घंटे के भीतर सिलिंडर लाओ या मरीज को ले जाओ।’’ यह तो पहाड़ टूटने जैसा था, हर जगह तलाशा गया लेकिन सब बेकार। वे कहती हैं, ‘‘सिलिंडर नहीं मिला तो अस्पताल ने उन्हें ले जाने के लिए कहा।’’ उस खौफ को याद करके अविनाश कहते हैं, ‘‘अस्पताल से बाहर आते वक्त रवीश की सांसें धौंकनी की तरह चल रही थीं। हमने उन्हें ऑक्सीजन सिलिंडर वाली एंबुलेंस में पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल (पीएमसीएच) ले गए।’’ परिवार 23 अप्रैल को किसी तरह रवीश को पीएमसीएच में एक बिस्तर दिलाने में कामयाब रहा, लेकिन आइसीयू बेड नहीं मिला। अविनाश कहते हैं, ‘‘उन्हें आइसीयू बेड और वेंटिलेटर की सख्त जरूरत थी। वे जनरल कोविड वार्ड में घंटों पड़े रहे और आखिरी दम तक तड़पते रहे। आइसीयू के बाहर मरीज की देखभाल करने वाला कोई नहीं था। अगर समय पर ऑक्सीजन मिल जाती तो रवीश को बचाया जा सकता था।’’

गृहिणी कविता के दोनों बच्चे ऊंची फीस वाले स्कूल में पढ़ रहे हैं। कविता के लिए नई चुनौती तैयार है। उन्हें न केवल अपने पति के व्यवसाय को फिर से खड़ा करना है, बल्कि बैंक का कर्ज भी चुकाना है।

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रेणु वाजपेयी

रेणु वाजपेयी

"मुझे जहर दे दो, ये लोग मुझे एडमिट नहीं करेंगे, मैं जिंदा नहीं बचूंगी"

अधिकतर लोगों को लगता है कि अप्रैल-मई में आई दूसरी लहर में ऑक्सीजन के लिए सबसे ज्यादा मारामारी हुई, जिसमें कारण हजारों लोगों की जानें गईं। लेकिन यह घटना इस धारणा को तोड़ती है। वैशाली, गाजियाबाद में रहने वाली 50 साल की रेणु वाजपेयी 13 फरवरी को कोविड संक्रमित हुई थीं। वे घर पर ही होम आइसोलेशन में थीं। लेकिन तीन दिन बाद उन्हें सांस लेने में परेशानी होने लगी। उनका ऑक्सीजन लेवल गिर कर 84 रह गया। परिवार उन्हें नवीन हॉस्पिटल ले गया, जहां अस्पताल ने उन्हें भर्ती करने से मना कर दिया। वहीं से ऑक्सीजन के लिए उनकी अंतहीन, हताश और व्यर्थ खोज शुरू हुई।

रेणु के साथ परिवार ने कई अस्पतालों के चक्कर लगाए। एमीकेयर अस्पताल वैशाली, चंद्रलक्ष्मी अस्पताल इंदिरापुरम, एलवायएफ अस्पताल वसुंधरा, और भी कई। रेणु के देवर अजय कुमार वाजपेयी बताते हैं, "नरेंद्र मोहन अस्पताल में बेड उपलब्ध था। लेकिन कुछ वीआईपी आए और उन लोगों ने कहा कि बिस्तर उनके मरीज को दिया जाएगा।" वैशाली, वसुंधरा, इंदिरापुरम और दिल्ली के करीब 20 अस्पतालों का दरवाजा खटखटाने के बाद परेशान वे लोग तड़के करीब 3 बजे लेडी हार्डिंग अस्पताल पहुंचे। वे बाहर इंतजार कर रहे थे तभी अपनी शिफ्ट खत्म कर घर जा रहे एक डॉक्टर ने उनसे कहा, "हमको सरकार से निर्देश है कि अब हम और कोविड रोगियों को भर्ती न करें।" आखिरकार परिवार ने गुड़गांव, साकेत, पटपड़गंज, कौशांबी में अस्पताल तलाशे और फिर गाजियाबाद लौट आए। लौटते हुए वे लोग कम से कम 10 अस्पतालों में रुके। लेकिन कोई एक दरवाजा भी उनकी मदद के लिए नहीं खुला।

अगले दिन सुबह लगभग 10 बजे सांस लेने में परेशानी झेल रही रेणु ने अपने परिवार से कहा, "मुझे जहर दो। कोई मुझे भर्ती नहीं करेगा। अब मैं नहीं बचूंगी।" वे उन्हें आराम करने के लिए घर ले आए। इस बीच अजय ऑक्सीजन सिलिंडर खोजते रहे। उन्हें बताया गया कि मेरठ में सिलिंडर भरा जा सकता है। लेकिन डीलर ने कहा कि दोपहर 2 बजे से पहले ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं होगी। इस बीच, मुनाफाखोर और धोखेबाज भी अपना काम कर ही रहे थे। नवीन अस्पताल के एक क्लर्क ने 15,000 रुपये के एवज में चोरी से एक सिलिंडर बेचने का वादा किया। अजय के पैसे भेजने के बाद उसने उनका फोन उठाना ही बंद कर दिया।

रेणु का ऑक्सीजन लेवल गिर कर 67 के खतरनाक स्तर पर आ गया। घबराए हुए अजय तुरंत मेरठ भागे और सिलिंडर भरवाने के लिए कतार में लगे ही थे कि उनकी 12 साल की भतीजी का एकदम बड़ों की तरह गंभीर आवाज में फोन आया, "चाचा, वापस आ जाओ।" दुखी अजय कहते हैं, "मेरी भतीजी की आंखों से बचपन की चमक खो गई है। वो हमारी दुनिया की केंद्र बिंदु है। उसकी हंसी, उसका नाचना, बात करना...लगता है जैसे सब कुछ उसकी मां के साथ ही चला गया है।"

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विजय सिंह

विजय सिंह

क्या उनकी अस्थियों का कोविड टेस्ट कराएं?’

उन सबको 14 मई को उस पहले अशुभ संकेत की याद है, जब रांची के 41 वर्षीय विजय सिंह कोविड से बीमार पड़े। वायरस ने उन्हें बहुत थोड़ा समय दिया, अगले दिन वे बुरी तरह हांफने लगे। परिवारवाले ने रांची के सभी प्रमुख अस्पतालों के दरवाजे खटखटाए लेकिन हर जगह उन्हें निराशा मिली। काफी मशक्कत के बाद, उन्हें नए-नए खुले अमृत अस्पताल में एक बिस्तर मिला। अस्पताल में अभी बन ही रहा था। ‘वार्ड’ एक खाली हॉल था जिसमें तीन बेड और न्यूनतम चिकित्सा उपकरण थे। तीन मरीजों के लिए एक ऑक्सीजन सिलिंडर था। जैसे ही विजय के ऑक्सीजन स्तर में उतार-चढ़ाव आया, नर्स को ऑक्सीजन का कन्सेंट्रेशन बढ़ाना पड़ा, जिससे अन्य दो लोगों की जान खतरे में पड़ गई।

विजय की भतीजी कुमकुम बताती हैं, ‘‘अगली सुबह लगभग 4 बजे अस्पताल से फोन आया कि ऑक्सीजन खत्म हो गया। हमने पूछा कि क्या हम ऑक्सीजन की व्यवस्था करें। नर्स ने कहा, ‘‘नहीं, आ रहा है।’’ दो घंटे बाद एक और फोन आया। बड़ी बेरुखी से आवाज आई, ‘‘अपने मरीज को ले जाओ। हालत बिगड़ रही है। अभी तक ऑक्सीजन सिलिंडर नहीं आया है। वेंटिलेटर की भी जरूरत पड़ सकती है। हमारे पास एक भी नहीं है।’’

सुबह छह बजे परिवारवाले, जो खुद भी कोविड ग्रस्त हो चुके थे, विजय के लिए जीवन रक्षक ऑक्सीजन की व्यवस्था में दौड़-भाग कर रहे थे। उनकी तलाश जारी थी, हर अस्पताल और डॉक्टर से मदद के लिए भीख भी बेमतलब होती जा रही थी। उधर विजय पसीने से तरबतर हा॒फ रहे थे। अचानक उनका अंत भी आ गया और बस दुख बच गया।

लेकिन विजय की मौत तो परिवार के दुखों की शुरुआत भर थी। वे लोग कोविड -19 से मरीज की मृत्यु का प्रमाण पत्र लेने अमृत अस्पताल वापस गए, तो अस्पताल ने साफ मना कर दिया। सीटी स्कैन रिपोर्ट में कोविड की पुष्टि हो चुकी थी, लेकिन प्रमाण-पत्र से इसलिए मना किया गया क्योंकि परिवार के पास आरटी-पीसीआर रिपोर्ट नहीं थी। कुमकुम ने प्रशासन के आगे गुहार लगाई तो उन्हें ऐसी सर्द अमानवीयता से सामना हुआ कि अवाक रह गईं। कहा गया कि शव का आरटी-पीसीआर टेस्ट कराओ। वे सुबकती हुई कहती हैं, ‘‘उन्होंने हमें यह तब बताया, जब हम उनका अंतिम संस्कार कर चुके थे। तो, क्या हम उनकी अस्थियों की कोविड जांच करवाते?’’ आज तक, विजय की मृत्यु को कोविड की मृत्यु के रूप में दर्ज नहीं किया गया है।

विजय कीटनाशकों और उर्वरकों की एक कंपनी के मेडिकल रिप्रजेंटेटिव और परिवार के एकमात्र कमाने वाले थे। परिवार आर्थिक संकट में पड़ गया है। उनके छह और सात साल के बेटे और बेटी ने स्कूल छोड़ दिया है। उनकी मां रोज-मर्रा के खर्चों को पूरा करने के लिए हर हफ्ते उधार लेने को मजबूर हैं। विजय की मौत को कोविड-19 से पीड़ित में शामिल नहीं करने से सरकार के लिए सिर्फ एक कम मौत हो सकती है, लेकिन उनकी पत्नी और बच्चों के लिए इसका मतलब भविष्य की किसी भी वित्तीय सहायता वाली योजना से महरूम रहना है।

कुमकुम कहती हैं, ‘‘जो अपने रिश्तेदार का दाह संस्कार करने गया वह जानता है ... श्मशान घाट शवों से भरे हुए थे।’’ उन्होंने झारखंड की कोविड हेल्पलाइन 104 पर डायल किया और पूछा कि क्या कोविड परीक्षण से पहले उसके लक्षणों वाले किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो उसे कोविड की मृत्यु माना जाएगा, तो उत्तर स्पष्ट था, ‘‘नहीं। जाओ और शव का परीक्षण कराओ।’’ हे ईश्वर यह कैसी अमानवीय, निर्दय दुनिया है!

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योगेश गुप्ता

योगेश गुप्ता

"पापा उठो, पापा उठो"

घटना दर घटना, एक ही पैटर्न दिखता है- बीमारी का चुपचाप आना, तेजी से हमला करना और फिर गायब हो जाना। दिल्ली के लक्ष्मी नगर निवासी 56 वर्षीय योगेश गुप्ता छह साल से लकवे से उबर रहे थे। अप्रैल के पहले हफ्ते उनमें कोविड के लक्षण दिखे, तो परिवार ने उन्हें अलग कमरे में रख दिया। 22 अप्रैल को अचानक सांस लेने में परेशानी होने लगी। वे जोर-जोर से हांफने लगे। योगेश के लिए ऑक्सीजन की भागदौड़ करने वाले उनके भतीजे मनीष बताते हैं, "किसी भी अस्पताल में जगह नहीं मिली, उनका ऑक्सीजन लेवल बिगड़ने लगा। दो घंटे के भीतर ही यह 80 से 60 तक गिर गया।" एक स्थानीय डीलर ने उन्हें एक घंटे में सिलिंडर देने का वादा किया था। मनीष इसके लिए तैयार हो गए और उसे 38,000 रुपये ट्रांसफर कर दिए। लेकिन आज तक उससे उनकी कोई बात नहीं हो पाई। इस बीच, डॉक्टरों ने कहा कि योगेश को जल्द अस्पताल में भर्ती कराना होगा। परिवार को एक छोटा ऑक्सीजन सिलेंडर मिला जरूर पर वह तीन घंटे में ही खाली हो गया। योगेश को फिर सांस लेने में दिक्कत होने लगी। छह घंटे बाद एंबुलेंस उनके घर पहुंची, तो वे योगेश को पास के अस्पताल ले गए जहां डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया।

योगेश अपने पीछे पत्नी और 23 साल की बेटी छोड़ गए हैं। अस्पताल के बिल चुकाने में उनकी सारी बचत खत्म हो जाने के कारण अब दोनों को गुजारा करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। पढ़ने में होशियार उनकी बेटी के बहुत बड़े सपने थे, जो उनके पिता को पूरे करने थे। इसके बजाय योगेश का परिवार एक और मौत से जूझ रहा है- उनकी बेटी की उम्मीदें, वे भी दम घुटने से मर गई हैं।

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अमर कुमार वाजपेयी

अमर कुमार वाजपेयी

"वे सांस की भीख मांगते मर गए"

सबसे गंभीर स्वास्थ्य संकट का कारण क्या कोई दुख हो सकता है? शायद हां। 60 साल के कोविड रोगी अमर कुमार वाजपेयी को जब इस बीमारी के बारे में पता चला, तो वे गंभीर अवसाद में चले गए। इस बीमारी ने परिवार के एक करीबी सदस्य की जान ले ली थी। गाजियाबाद में अपने परिवार के साथ होम क्वारंटीन में थे। 20 फरवरी को उनकी हालत बिगड़ने लगी जो सांसों के लिए संघर्ष की बस एक और कहानी थी। परिवार उन्हें पूर्वी दिल्ली के जीटीबी अस्पताल ले गया। परिवार ने बताया, "वहां हमें न जगह मिली न ऑक्सीजन।"

उनका ऑक्सीजन स्तर गिरकर 80 पर आ गया और लगातार गिरता रहा। आरएमएल अस्पताल में भी उन्हें जगह नहीं मिली। अमर, अस्पताल के गेट के पास एक स्ट्रेचर पर लेट गए और बिस्तर उपलब्ध होने की प्रतीक्षा करने लगे। वहां वे अपने जीवन के लिए लड़ रहे थे। खुले में अंतहीन प्रतीक्षा और तिरस्कार झेलने के बाद, अंतत: एक डॉक्टर उनके पास आया। लेकिन तब तक सब खत्म हो चुका था। उनके भाई अजय बताते हैं, "वे नहीं रहे। उनका ऑक्सीजन लेवल गिर कर 12 हो गया था। अगर अस्पताल उन्हें ऑक्सीजन मुहैया करा देता तो वे आज हमारे साथ होते। मेरा भाई सांसों की भीख मांगते हुए गुजर गया। मैं वह दिन कभी नहीं भूलूंगा।"

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नगमा

"मैं अब भी उनकी चीख सुन सकती हूं"

वह मनहूस घड़ी 16 मई की सुबह तीन बजे थी, जब सोनिया को इंस्टाग्राम पर तुरंत मदद का एक मैसेज मिला। यह संदेश दिल्ली के आजादपुर में रहने वाली 25 साल की आसिफा का था। उनकी मां नगमा सांसों के लिए लड़ रही थीं। उनका ऑक्सीजन स्तर गिरकर 60 हो गया था। दो दिन पहले ही बीमार मां के लिए ऑक्सीजन खोजने के दौरान सोनिया को ऑक्सीजन डीलरों का पता मिला था। उन्होंने बताया, "लगातार चार दिनों तक आसिफा के भाई सुबह पांच से रात 10 बजे तक कतार में खड़े रहे, पर हासिल कुछ नहीं हुआ।" जब भी नगमा का ऑक्सीजन लेवल गिरता, वो चीखने लगतीं। सोनिया कहती हैं, "मैं अब भी उनकी दर्द भरी चीख सुन सकती हूं। वो बहुत तकलीफ में थीं।"

काफी मशक्कत के बाद ऑक्सीजन सिलिंडर मिला, लेकिन जल्दी ही खत्म हो गया। सोनिया याद करती हैं, "कतार में खड़े होकर अक्सर मैंने देखा कि बड़ी कारें और पुलिस वैन आतीं और एक साथ कई सिलिंडर भरवा कर चली जातीं। हम जैसे लोग 48 घंटे इंतजार के बाद भी खाली हाथ लौटे।"

सोनिया बताती हैं, "आसिफा का भाई और मैं 18 मई से ऑक्सीजन के लिए कतार में थे। 20 मई को सुबह सात बजे आसिफा ने फोन किया कि मां नहीं रहीं।" आसिफा अभी तक सदमे में है। अक्सर बातचीत के बीच में वह खड़ी हो जाती है और कहती है, "अम्मी को उठाना है" और गिर जाती है। रात में अचानक कांपने लगती है। लगता है दरवाजे पर मां खड़ी हैं। बोलते हुए सोनिया की आवाज अब भी भर्रा जाती है। वे कहती हैं, "एक रात मैंने उसे "अम्मी" चिल्लाते और जोर-जोर से रोते हुए देखा। पता नहीं वह कभी ठीक हो पाएगी या नहीं।"

ऑक्सीजन

मांग और पूर्ति में अंतर

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