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नारों से आगे ही है जहां

मतदाताओं को गंभीरता से सोचना होगा कि क्या वे नारों के बीच ही झूलते रहेंगे या फिर अपने बेहतर भविष्य के लिए कुछ मुश्किल सवाल राजनीतिक दलों के सामने खड़े करेंगे, क्योंकि आने वाले दिन मुश्किल भरे हैं
प्रतीकात्मक चित्र

यूरोप और अमेरिका की नई पीढ़ी जब कैपिटलिज्म को नकार कर नए विकल्प या नए तरह के समाजवाद की जरूरत पर बहस कर रही है, उस समय हमारी युवा पीढ़ी चौकीदार के नारों में उलझी हुई है। 17वीं लोकसभा के लिए मतदान की तारीखें करीब आ रही हैं। इसलिए एक बार फिर नारों, जुमलों और न पूरे किए जाने वाले वादों के जरिए राजनैतिक दल मैदान में हैं। जब हम मानते हैं कि टेक्नोलॉजी और ग्लोबलाइज्ड इकोनॉमी ने सभी कुछ करीब ला दिया है, तो इतना बड़ा फासला क्यों है? जब दुनिया में आर्थिक विकास और सामाजिक बराबरी के लिए नए विकल्पों पर बहस हो रही है, हम कुछ नया सोच ही नहीं रहे हैं। हमारे तमाम राजनैतिक दल भी 1991 के बाद से शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण को ही देश के विकास का मॉडल मान कर आगे बढ़ रहे हैं। सत्तारूढ़ भाजपा हो या मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस, दोनों का मॉडल तो लगभग समान ही है। इसलिए हमारे नीति-निर्धारक और अर्थविद तक सहज भाव से कहते हैं कि हमारी नीतियों में निरंतरता है, चाहे किसी भी दल की सरकार क्यों न आए। पिछले 28 साल से हमने इसे स्वीकार भी किया है, इसीलिए किसी राजनैतिक दल को आउट ऑफ बाक्स सोचने की जरूरत ही नहीं पड़ी। वैसे भी देश में सामाजिक, वैचारिक और आर्थिक हितों के लिए कोई आंदोलन या पुनर्जागरण नदारद है। जो भी कुछ छोटा-मोटा होता भी है, तो उसके पीछे राजनैतिक कारक ज्यादा होते हैं। इस मोर्चे पर करप्शन के विरोध में अन्ना आंदोलन इस का उदाहरण भर है। लेकिन क्या हमें कुछ गंभीर होने की दरकार नहीं है और वह भी तब जब पांच साल के लिए नई सरकार का चुनाव होने जा रहा है।

दुनिया भर में जब अमीरों की बढ़ती संख्या और उनके पास जमा संपत्ति पर बहस हो रही है, तो इसके लिए कीमत चुका रहे लोगों के बारे में भी तो बात होनी जरूरी है। वह भी तब जब देश और दुनिया मंदी के मुहाने पर खड़ी है। यानी बेरोजगारी बढ़ने और कमजोर तबके की स्थिति बदतर होने की आशंका है। विश्व बैंक का ताजा आंकड़ा कहता है कि दुनिया की आर्थिक वृद्धि दर अगले दो साल कमजोर रहेगी। दुनिया की दो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं अमेरिका और चीन की आर्थिक गतिविधियां इसका संकेत दे रही हैं। घरेलू परिस्थितियों में तो यह चिंता और बढ़ जाती है। देश की सबसे बड़ी ऑटोमोबाइल कंपनी उत्पादन में एक-चौथाई कटौती कर रही है। निम्न मध्यवर्ग की सवारी दुपहिया वाहनों के डीलरों के पास 90 दिन की इनवेंटरी है। निवेश की दर 14 साल के निचले स्तर पर है। रिजर्व बैंक की रिपोर्ट कहती है कि निजी कंपनियों का पूंजीगत निवेश सातवें साल भी गिर रहा है। कोर सेक्टर के उत्पादन में गिरावट है। औद्योगिक उत्पादन दिसंबर, 2018 के दो फीसदी के मुकाबले जनवरी, 2019 में 1.7 फीसदी पर आ गया है। कृषि क्षेत्र पहले ही मंदी के दौर से गुजर रहा है। कैपिटल गुड्स का आयात घट रहा है। एनएसएसओ की लीक रिपोर्ट के मुताबिक बेरोजगारी 45 साल के उच्चतम स्तर पर है। चालू वित्त वर्ष में जीडीपी विकास दर पिछले साल से कम रहेगी, क्योंकि पिछली तिमाही में यह 6.6 फीसदी रही, जो पांच तिमाहियों में सबसे कम है। आर्थिक मोर्चे पर हालत खुशनुमा नहीं है। लेकिन सरकार की उपलब्धियों की फेहरिस्त बहुत लंबी है। क्या देश के करीब 90 करोड़ मतदाताओं को यह सब नहीं पता कि उनके लिए उम्मीदों की जो सुनहरी तस्वीर पेश की गई थी, वह धुंधली पड़ती जा रही है।

वैसे तो हम उत्सवधर्मी हैं। लोकसभा का आगामी चुनाव भी लोकतंत्र का उत्सव है। लेकिन यह उत्सव हर मतदाता को ताकत के साथ अधिकार देता है कि जो उसके लिए सही है वह उसी का चुनाव करे। एक बड़ी बहस यह भी है कि हमने सामूहिक संसाधनों को लोगों से छीन लिया है और जीवन जीने की लागत बढ़ा दी है। जल, जंगल, जमीन और तरंगें सभी का कीमतें वसूलने के लिए कॉरपोरेटीकरण कर दिया गया है। कुछ भी चाहिए तो पहले कमाइए, लेकिन कमाने के लिए रोजगार के अवसर चाहिए और वह कम हो रहे हैं। इसीलिए ब्रिटिश अर्थशास्‍त्री गॉय स्टेंडिंग ने थ्योरी दी है कि सबको न्यूनतम आय की गारंटी दीजिए। उनका तर्क है कि संसाधनों पर सभी का हक है। इसलिए सरकार का जिम्मा बनता है कि वह सभी लोगों को जीवन जीने के लिए जरूरी आमदनी के बारे में आश्वस्त करे। इन बातों पर देश के आमजन को सोचना चाहिए। कुछ राजनीतिक दल भी इस पर बात कर रहे हैं, लेकिन उनका फार्मूला आधा-अधूरा है।

अगले कुछ दिनों में राजनीतिक दलों के सैकड़ों पेज वाले चुनाव घोषणा-पत्र लोगों के सामने होंगे, जिनको अब कई तरह के लुभावने नाम दिए जा रहे हैं। लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में इसको लेकर राजनीतिक दलों ने ऐसी अगंभीरता दिखाई कि चुनाव आयोग को मतदान से कम से कम 48 घंटे पहले घोषणा-पत्र जारी करने का नियम बनाना पड़ा। अब मतदाताओं को गंभीरता से सोचना होगा कि क्या वे नारों के बीच ही झूलते रहेंगे या फिर अपने बेहतर भविष्य के लिए कुछ मुश्किल सवाल राजनीतिक दलों के सामने खड़े करेंगे, क्योंकि आने वाले दिन मुश्किल भरे हैं, इसलिए आपको बेहतर को चुनना होगा।

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