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9 जनवरी 2023 · JAN 09 , 2023

नेहरू/ पिता-पुत्री : 'बचपन से ही वे पिता से बढ़ कर साथी जैसे रहे'

दोनों बाप-बेटी के बीच इतना लंबा और व्यापक रिश्ता रहा कि नेहरू इंदिरा के मां और बाप दोनों हो जाते हैं
पिता जवाहरलाल के साथ इंदिरा

पंडित जवाहरलाल नेहरू भारत के महानतम स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे और देश के पहले प्रधानमंत्री भी। हिंदुस्तान की बहुत सी चीजों और बहुत से लोगों पर उनकी छाप है, लेकिन जब चर्चा इस बात की हो कि उनकी पुत्री और खुद भी हिंदुस्तान की चर्चित प्रधानमंत्री रहीं श्रीमती इंदिरा गांधी अपने 'पापू' के बारे में किस तरह सोचती थीं और पंडित जी ने अपनी बेटी के जीवन को किस तरह प्रभावित किया था, तब कोई भी टिप्पणी करना जरा नाजुक और जटिल मामला है।

एक शख्सियत, दूसरी शख्सियत के प्रभाव को अपने ऊपर कितना मानती थी या कितना महसूस करती थी, इसे बताना कठिन है। 2 नवंबर 1972 को मुंबई में नेहरू सेंटर की आधारशिला रखते समय इंदिरा गांधी ने इस बात को इस तरह कहा था, "पुत्री के लिए अपने पिताजी के बारे में कुछ कह सकना आसान नहीं होता, खासकर ऐसी स्थिति में जबकि दोनों के बीच संबंध केवल पिता-पुत्री का न होकर बचपन से ही साथी का रिश्ता रहा हो... मैं सोचती हूं कि मेरे पिताजी में तथा अन्य लोगों में अंतर यह था कि उन्होंने अपने व्यक्तित्व के सभी पक्षों को पुष्पित और पल्लवित होने दिया और इसीलिए वे जीवन के अनेक पहलुओं में एक साथ दिलचस्पी रखते थे।"

इंदिरा गांधी के इस वक्तव्य की गहराई में जाने के लिए कुछ बातें समझनी पड़ेंगी। एक तरह से देखें तो इंदिरा गांधी का कोई सगा भाई-बहन नहीं था। जब वे 14 साल की थीं तो उनके दादा मोतीलाल नेहरू और जब 19 साल की थीं तब मां कमला नेहरू का निधन हो गया। दोनों बाप-बेटी के बीच इतना लंबा और व्यापक रिश्ता रहा कि नेहरू इंदिरा के मां और बाप दोनों हो जाते हैं। वहीं, आजादी के पहले एक समय ऐसा भी रहा जब इंदिरा एक तरह से अनाथ रहीं क्योंकि मां का स्वर्गवास हो चुका था और पिता लगातार कारावास में थे। इसी कारागार की अवधि में पिता और पुत्री के बीच पत्रों के माध्यम से जो संवाद हुआ, उसमें सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर दुनिया के भविष्य तक की बहुत सी बातें इंदिरा के बहाने नेहरू जी ने पूरी दुनिया को बताईं। जेल में लिखी गई नेहरू जी की मशहूर पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया का अंतिम संपादन इंदिरा ने ही किया क्योंकि जेल से छूटने के बाद नेहरू को उसके पन्ने दोबारा पलटने का खास मौका नहीं मिला।

इंदिरा जी की हर बात पर नेहरू की छाप है यहां तक की असहमतियों में भी। जैसे, इंदिरा के विवाह का मामला ही लें। प्रचलित धारणा यही है कि नेहरू जी इस विवाह के खिलाफ थे, लेकिन उस समय का नेहरू जी का पत्राचार देखें तो उन्होंने बाकायदा अखबार में बयान जारी करके कहा था कि इस तरह की बातें बेबुनियाद हैं। नेहरू ने कहा कि विवाह के लिए लड़के और लड़की की सहमति पर्याप्त है। अगर वे दोनों अपने अभिभावकों को सहमत करते हैं तो यह अच्छी बात है, लेकिन यह सहमति अनिवार्य नहीं है।

अपनी बेटी के अंतरधार्मिक विवाह के समय उन्होंने स्पष्ट किया कि इस विवाह से वर और वधू का धर्मांतरण नहीं होगा, बल्कि इससे भारत के उस विशेष विवाह कानून की भूमिका तैयार होगी जिसकी जरूरत आने वाली पीढ़ियों को पड़ने वाली है।

विवाह के बाद जब इंदिरा जी की पहली संतान होने वाली थी और उन्होंने उसके नामकरण के लिए कई नाम जेल में बंद अपने पिता को सुझाए तो नेहरू जी ने अपनी बेटी से पूछा कि तुमने सारे नाम लड़कों के ही क्यों सुझाए हैं, बेटी भी तो हो सकती है? वे अपनी पहली संतान का नाम राहुल रखना चाहती थीं, लेकिन आचार्य नरेंद्र देव की सलाह पर नेहरू जी ने राजीव नाम को ही बेहतर माना। इंदिरा जी ने बेटे का नाम जरूर राजीव रख दिया, लेकिन राहुल नाम उन्होंने अपने पौत्र के लिए बचा कर रख लिया। इस छोटे-से वाकये से पता चलता है कि इंदिरा के हर काम पर नेहरू की कितनी छाप थी और इंदिरा भी किस तरह अपने विचारों पर दृढ़ थीं।

लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद जब इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनीं तो उनके सार्वजनिक जीवन और वक्तव्यों में नेहरू की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। इंदिरा गांधी ने नेहरू जी के बारे में एक बार कहा था, "कभी-कभी लोगों ने उनको स्वप्नदर्शी कहा है, मानो ऐसा होना कोई गलत बात हो। लेकिन हम सब जानते हैं कि विश्व में कुछ भी, छोटी से छोटी बात भी तब तक कामयाब नहीं हो पाई है जब तक किसी न किसी ने पहले उसके बारे में स्वप्न न देखा हो, चाहे वह अविष्कार रहा हो जिसने सभ्यता की संपूर्ण प्रक्रिया की शुरुआत की या कोई अन्य। केवल स्वप्न और कल्पना के द्वारा ही कोई कार्य संभव हो सकता है। अगर हमें यही कल्पना न हो कि हम चाहते क्या हैं तो हम कोई काम कैसे कर पाएंगे? इसलिए वे स्वप्नदर्शी थे और मुझे निजी तौर पर गर्व है कि वे स्वप्नदर्शी थे। लेकिन वे केवल स्वप्न में उलझकर नहीं रह जाते थे, वे यह सोचना शुरू कर देते थे कि उस सपने को कैसे सत्य बनाया जा सकता है।"

इंदिरा गांधी की सार्वजनिक नीतियों में नेहरू जी के काम और सपनों को आगे बढ़ाने की चेष्टा स्पष्ट दिखाई देती है। हां, उनका तरीका जरूर कई बार नेहरू से बहुत मुख्तलिफ और तेज हो जाता है। जैसे, नेहरू समाजवादी थे, लेकिन इस शब्द को भारतीय संविधान में इंदिरा गांधी ने शामिल किया। नेहरू जी की राजाओं से व्यक्तिगत अरुचि थी, लेकिन मौके की नजाकत को देखते हुए उन्होंने राजाओं के बहुत से अधिकार बचे रहने दिए थे, यह अवशेष अधिकार इंदिरा गांधी ने समाप्त कर दिए। पाकिस्तान के विषय पर नेहरू जी लगातार चौकन्ने थे। वे युद्ध और शांति के बीच समन्वय में लगे रहे, लेकिन जब इंदिरा गांधी को मौका मिला तो उन्होंने पाकिस्तान के दो टुकड़े करके युद्ध को ही शांति का रास्ता बना दिया। गरीबी हटाना नेहरू की नीति का बुनियादी अंग था, लेकिन इसे "गरीबी हटाओ" के नारे की शक्ल देने का काम इंदिरा गांधी ने किया।

वे अपने पिता की तरह आक्रामक स्वभाव की थीं, लेकिन उन्होंने अपने पिता की तरह खुद को सार्वजनिक जीवन में आक्रामक दिखने से नहीं रोका। नेहरू जी भारत में परमाणु शक्ति को 'एटम्स फॉर पीस' के नाम से लाए थे। यह कार्यक्रम पूरी तरह से नागरिक कार्यक्रम था। इंदिरा गांधी ने इसे सैन्य शक्ति में बदलने में देर नहीं लगाई, लेकिन अपने पहले परमाणु विस्फोट को भी उन्होंने शांति के पुजारी "बुद्ध" की मुस्कान का नाम दे दिया।

अगर नेहरू जी ने किसानों के खेत तक पानी पहुंचाया था तो इंदिरा गांधी ने पट्टे बांटकर गरीबों तक खेत ही पहुंचा दिया। नेहरू जी ने सार्वजनिक उपक्रमों का जाल बिछाया तो इंदिरा गांधी ने यह जाल बिछाने के साथ ही बड़े पैमाने पर निजी संस्थाओं का राष्ट्रीयकरण कर इसकी रफ्तार कई गुना बढ़ा दी।

कई बार तो लगता है कि आपातकाल भी इंदिरा गांधी की इसी तेजी का परिणाम था। उन पर इल्जाम लगता है कि नेहरू जैसे लोकतंत्र के संस्थापक की बेटी होने के बावजूद उन्होंने देश पर तानाशाही थोप दी। इसका बड़ा दिलचस्प जवाब आपातकाल के समय उनके मुखर आलोचक रहे पत्रकार राजेंद्र माथुर ने इंदिरा जी की मृत्यु पर लिखे अपने कॉलम में दिया है। माथुर लिखते हैंः

"दरअसल इमरजेंसी के 21 महीनों ने इस बात को रेखांकित ही किया है कि मौका मिलने पर भी इंदिरा गांधी कभी तानाशाह नहीं बन सकतीं। लोग समझते थे कि वे आधे मन से प्रजातंत्र चला रही हैं, लेकिन आपातकाल ने साबित किया कि वे तानाशाह भी आधे मन से ही हो सकती थीं। जिन देशों में तानाशाही आई है, उनका जरा रिकॉर्ड देखिए। सत्ता में आने के बाद 16 महीनों के अंदर हाकिम लोग एक पार्टी, एक झंडा, एक नेता, एक जेलर और कुल मिलाकर एकतंत्र कायम करने लगते हैं। क्या एकतंत्र के अरमान रखने वाला नेता 16 साल तक इंतजार करता है? क्या इस देश की इंद्रधनुषी योजना का सम्मान करने की खातिर वह जान दे देता है?

श्रीमती गांधी ने भारत के राजसी किले के सारे दरवाजे खुले रखे ताकि इस किले की ठाठ-बाट और उसके महलों की चकाचौंध सिर्फ 1 करोड़ या 50 लाख हिंदुस्तानियों के भोग की वस्तु न बन जाए। जनतंत्र की गुंजाइश का फायदा उठाकर समाज के जो भी वर्ग जागृत और वजनदार बनते जाएं, धक्का-मुक्की करके किले के अंदर घुस सकें, यह अवसर श्रीमती गांधी ने हमेशा बनाए रखे। इंदिरा गांधी की यह अदा भी अपने पिता से प्रभावित है।

कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के बाद 1937 में नेहरू ने अपने खिलाफ लेख लिखकर कहा था कि नेहरू, तुम्हें सीजर अर्थात तानाशाह नहीं बनना है। आपातकाल के बाद हुए चुनाव में हार के बाद एक साक्षात्कार में इंदिरा गांधी ने कहा था कि कोई तानाशाह इतनी आसानी से निष्पक्ष चुनाव नहीं कराता और न ही तानाशाही लाने के लिए इतने लंबे समय तक इंतजार करता है।

यह नेहरू की ही परवरिश और सोहबत का असर था कि सेकुलरिज्म की भावना इंदिरा गांधी के भीतर गहराई तक भरी थी। उन्होंने अपने जीवन में तो सेकुलर मूल्यों का पालन किया ही, इसी धर्मनिरपेक्षता की कसौटी पर खरा उतरने के लिए अपने प्राणों की आहुति भी दी। बाप-बेटी का यह रिश्ता, न सिर्फ एक-दूसरे पर गहरा असर डालने वाला है, बल्कि भारतीय लोकतंत्र, आधुनिकता, धर्मनिरपेक्षता की बेल को पुष्पित और पल्लवित करने वाला भी है।

पीयूष बबेले

(लेखक की नेहरूः मिथक और सत्य चर्चित किताब है)

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