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50 वर्ष मील के पत्थर/ 1975 के अन्य ऐतिहासिक मुकाम: जिनसे बदल गई दुनिया

1975 में इमरजेंसी और शोले के अलावा हुई घटनाएं, जिनसे देश और दुनिया हमेशा के लिए बदल गई या जो बदलाव की नींव साबित हुईं
आर्यभट्ट

गगन टोह की नींव

आर्यभट्टः 19 अप्रैल 1975

वह 19 अप्रैल 1975 का ऐतिहासिक दिन था, जब भारत ने अपने पहले उपग्रह आर्यभट्ट का प्रक्षेपण किया। इसी के साथ भारत ने अंतरिक्ष अनुसंधान क्षेत्र में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई। इस काम में सोवियत संघ ने भारत को सहयोग किया था। क्योंकि इसरो के पास उपग्रह डिजाइन करने की क्षमता तो थी, लेकिन लॉन्च करने की तकनीक नहीं थी। दोनों देशों के बीच एक समझौता हुआ था, जिसके तहत भारत ने सोवियत जहाजों को अपने बंदरगाहों का उपयोग करने की अनुमति दी थी, बदले में सोवियत संघ ने उपग्रह लॉन्च में भारत की मदद की। सोवियत संघ के कपुस्तिन यार कॉस्मोड्रोम से कॉस्मोस-3एम रॉकेट ने आर्यभट्ट लॉन्च किया था। इस कामयाबी ने भारत को दुनिया का 11वां ऐसा देश बना दिया जिसने अपना उपग्रह अंतरिक्ष में भेजा।

भारत के 1974 में पहले परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिका ने भारत पर प्रतिबंध लगा दिए थे, जिससे तकनीकी सहायता सीमित हो गई थी। इसके बावजूद, इसरो ने मात्र 30 महीनों में, 150 युवा वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की एक टीम के साथ आर्यभट्ट का निर्माण किया। इस प्रोजेक्ट में 3.5 करोड़ रुपये की लागत आई, जो उस समय के लिए एक उल्लेखनीय उपलब्धि थी।

हालांकि, लॉन्च के चार दिन बाद बिजली आपूर्ति की विफलता के कारण उसके वैज्ञानिक प्रयोग बंद हो गए, लेकिन इसने पांच दिनों तक महत्वपूर्ण डेटा एकत्र किया। इस मिशन के पीछे इसरो के संस्थापक विक्रम साराभाई की दूरदर्शिता थी, जिन्होंने भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम की नींव रखी। प्रतिबंध लगाने वाला अमेरिका आज इसरो का साझेदार है। आर्यभट्ट केवल तकनीकी उपलब्धि नहीं, बल्कि राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक है।

-राजीव नयन चतुर्वेदी

 

पहला विश्व विजय 

हॉकीः 15 मार्च 1975

पहली बार हॉकी विश्वचैंपियनशिप

भारत की सबसे बड़ी खेल जीत की जब भी बात होती है, तो 1983 में क्रिकेट विश्व कप की ऐतिहासिक जीत याद आती है। लेकिन उससे आठ साल पहले, देश एक विश्व कप जीत चुका था। भारत के राष्ट्रीय खेल हॉकी की बदौलत। कुआलालंपुर में भारतीय टीम ने पाकिस्तान जैसे प्रबल दावेदार को हराकर इस खेल में अपना दबदबा कायम किया था। 1975 का हॉकी विश्व कप भारत के लिए निर्णायक था। ध्यानचंद के बेटे अशोक कुमार, कप्तान अजीत पाल सिंह और असलम शेर खान जैसे खिलाड़ियों ने पाकिस्तान के खिलाफ फाइनल में 2-1 की अविस्मरणीय जीत दिलाई थी। विश्व कप फाइनल में अशोक कुमार द्वारा किया गया गोल निर्णायक साबित हुआ, इसे आज भी भारतीय हॉकी इतिहास का प्रतिष्ठित गोल माना जाता है।

1975 के बाद हॉकी कठिन दौर में दाखिल हुई। 1976 से अधिकांश खेल सिंथेटिक टर्फ पर खेल खेला जाने लगा। इससे भारत की पारंपरिक शैली मुश्किल में पड़ गई। 1980 में एक बार फिर भारत ने ओलंपिक गोल्ड जीता, लेकिन इसके बाद लंबे समय तक कोई बड़ी जीत नहीं मिली। हालांकि, राष्ट्रमंडल और एशियाई खेलों में प्रदर्शन ठीक रहा। फिर सन 2000 के बाद धीरे-धीरे हाकी ने भारत में फिर शुरूआत की। हॉकी इंडिया का गठन हुआ, विदेशी कोचों की नियुक्ति हुई और युवाओं पर ध्यान देने से बदलाव दिखने लगे। 2021 के टोक्यो ओलंपिक में ब्रॉन्ज मेडल, 2021-22 प्रो लीग में बेहतर प्रदर्शन, 2024 पेरिस ओलंपिक में कांस्य पदक और महिला टीम की बढ़ती साख, संकेत हैं कि भारत फिर से उस ऊंचाई की ओर बढ़ रहा है, जहां से वह कभी नहीं गिरना चाहता। 1975 की जीत सिर्फ ट्रॉफी नहीं, बल्कि स्वर्णिम युग की प्रतीक थी। 

-मंथन रस्तोगी

 

लोकतंत्र विलय

सिक्किमः 6 अप्रैल 1975

सिक्किम विलय

भारत के खूबसूरत राज्य, सिक्किम की देश में विलय की कहानी दिलचस्प है। बहुत संघर्ष के बाद सिक्किम भारत का हिस्सा बन पाया था। सिक्किम का भारतीय गणराज्य में शामिल होना आसान नहीं था। 26 अप्रैल को इसे भारत का 22वां राज्य बनाया गया था। सिक्किम में भारत में विलय को लेकर चीन शुरू से ही खिलाफ था। लेकिन भारत ने भी राजनैतिक, कूटनीतिक और बल तीनों के बल पर आखिर सिक्किम को भारत में मिला लिया।

दरअसल आजादी से पहले ब्रिटिश सरकार ने सिक्किम को स्वायत्ता दे दी थी। भारत की आजादी से पहले ही सिक्किम ब्रिटिश शासन से बाहर हो गया था। बाद में देश जब स्वतंत्र हुआ, तो सिक्किम और भारत के बीच संधि हुई। इसके बाद 1963 में ताशी नामग्याल की मृत्यु हो गई और उनके बेटे पाल्डेन थोंडुप नामग्याल उनके उत्तराधिकारी बन गए। लेकिन 1973 आते-आते वहां एक बड़ा आंदोलन शुरु हो गया था। क्योंकि 1970 की शुरुआत से ही वहां राजनीतिक उथल-पुथल मची हुई थी। जनता राजशाही हटा कर लोकतांत्रिक की स्थापना की मांग कर रहे थे। 1973 इसी आंदोलन ने बड़ा रूप ले लिया।

तब 6 अप्रैल, 1975 की सुबह लगभग 5,000 भारतीय सैनिकों ने सिक्किम के राजा चोग्याल के महल पर धावा बोल दिया। उस समय महल में सिर्फ 243 सिपाही थे। भारतीय सैनिकों को सिर्फ 30 मिनट में उन सब पर काबू पा लिया। राजा चोग्याल को महल में ही नजरबंद कर दिया गया। भारत सरकार ने वहां मुख्य प्रशासक बी.एस.दास की नियुक्ति कर दी। इसके बाद वहां एक जनमत कराया गया, जिसमें लोकतंत्र के पक्ष में 97.5 प्रतिशत वोट आए। बी.बी.लाल सिक्किम के पहले गवर्नर बने। राज चोग्याल और राज्यपाल के बीच टकराव हुए। जनमत में 97.5 फीसदी लोग भारत के साथ जाने के पक्ष में थे, सो सिक्किम भारत का 22वां राज्य बन गया। लेकिन इससे पहले संविधान का 36वां संशोधन विधेयक लोकसभा में 23 अप्रैल, 1975 को पेश किया गया। उसी दिन यह 299-11 के मत से पास हो गया।

इस तरह 16 मई, 1975 को सिक्किम पूर्ण रूप से देश का 22वां राज्य बन गया। तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने इस बिल पर हस्ताक्षर किए थे। इसके साथ ही नाम्ग्याल राजवंश का शासन समाप्त हो गया। सिक्किम को भारत में मिलाने का चीन और नेपाल ने बहुत विरोध किया था। आज भी भारत और चीन के बीच इसकी सीमा को लेकर विवाद होता है। डोकलाम सीमा को लेकर विवाद पुराना है। सिक्किम में भारतीय सीमा से डोकलाम पठार सटा हुआ है, जहां पर चीन सड़क बनाना चाहता है।

-आकांक्षा पारे काशिव

 

धार्मिक अख्यानों का आरंभ

जय संतोषी मांः 30 मई 1975

जय संतोषी मां का पोस्टर

ऐसी फिल्म जिसके रिलीज होने पर सिनेमाघर मंदिर में तब्दील हो गए थे। जिस समय भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगाने की घोषणा की, उस समय जय संतोषी मां फिल्म ने अपनी धूम मचा दी थी। फिल्म का निर्माण उस समय हुआ, जब माना जा रहा था कि हिंदी सिनेमा में धार्मिक और पौराणिक कथाओं का दौर समाप्त हो गया। रिलीज होने से पहले निर्देशक विजय शर्मा और निर्माता संतराम रोहरा की इस फिल्म को 50 वितरकों ने रिजेक्ट कर दिया था।

अनीता गुहा, आशीष कुमार, कानन कौशल, भारत भूषण जैसे कलाकारों के अभिनय से सजी फिल्म की बॉक्स ऑफिस पर सीधी टक्कर फिल्म शोले से थी। लग रहा था कि शोले की आंधी में जय संतोषी मां कहीं नहीं टिकने वाली। लेकिन यह फिल्म देश के कई सिनेमाघरों में 50 हफ्तों तक हाउसफुल रही। इसकी धूम ऐसी रही कि बॉक्स ऑफिस पर अमिताभ बच्चन की एक और फिल्म दीवार और धमेंद्र की फिल्म प्रतिज्ञा इससे पिछड़ गईं। गुमनाम स्टार कास्ट की फिल्म का ऐसा प्रदर्शन सभी के लिए आश्चर्य था। कुछ लाख रुपयों में बनी फिल्म ने करोड़ों रुपयों का कारोबार किया।

गांव-देहात से लेकर शहरों तक में दर्शक भक्त में बदल गए और लोग जूते-चप्पल उतार कर सिनेमाघर में दाखिल होते थे। संतोषी मां की आरती वाले गीत में महिलाएं परदे की आरती उतारा करती थीं। शो खत्म होने के बाद सिक्कों का ढेर लग जाता था क्योंकि लोग माता को देखते ही सिक्के उछालने लगते थे। संतोषी मां के जयकारे लगाए जाते थे। वितरकों ने जब भावनाओं का ऐसा ज्वार देखा, तो महिलाओं के लिए विशेष शो रखवाए गए। संतोषी मां का किरदार निभाने वाली अभिनेत्री अनीता गुहा संतोषी मां के रूप में पूजी जाने लगीं। लोग उन्हें जहां देखते वहीं उनके पैरों में गिर जाते थे। देश भर की महिलाओं ने फिल्म से प्रभावित होकर शुक्रवार व्रत रखने शुरू कर दिए थे।

-मनीष पांडेय

 

खदान दुर्घटना

चासनालाः 27 दिसंबर 1975

चासनाला हादसा

झा रखंड के धनबाद जिले में एक जगह थी, चासनाला। यहां ऐसी घटना हुई कि पूरा देश हिल गया। यहां की बहुत बड़ी कोयला खदान में एक बड़ा हादसा आज भी लोगों में सिरहन पैदा कर देता है। इस कोयला खदान में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाने से देश में हड़कंप मच गया था। इस घटना को चासनाला हादसा के नाम से जाना जाता है। इस्को की चासनाला कोलियरी की एक गहरी खदान में दिल दहलाने वाली घटना हुई थी। पहली पाली का काम चल ही रहा था कि अचानक से खदान में पानी भरने लगा। उस वक्त खदान में पूरे 375 श्रमिक काम कर रहे थे। कोयला खोदते वक्त वे सब इस खदान में समा गए थे। वर्षों तक इन मजदूरों की शहादत की कहानियां कही जाती रहीं। इस दुर्घटना में किसी मां की गोद सूनी हो गई, तो किसी सुहागिन की मांग उजड़ गई, किसी बहन का भाई चला गया, तो किसी बच्चे के सिर से पिता का साया उठ गया। बाद में जांच होने पर पता चला था कि अधिकारियों की लापरवाही से यह दुर्घटना हुई थी। दरअसल कोयला खुदाई के वक्त खदान से कुछ पानी भी रिसता था। इस रिसने वाले पानी को जमा करने के लिए एक बड़ा बांध बनाया गया था। नियम के अनुसार बांध की 60 मीटर की परिधि में विस्फोट करने की मनाही थी। लेकिन अधिकारियों ने इस हिदायत को नजरअंदाज कर बड़ा विस्फोट कर दिया। विस्फोट होने से पानी खदान में घुस गया और 375 श्रमिकों उस पानी में समा गए। कोई भी बाहर नहीं निकल पाया क्योंकि मजदूर बहुत अंदर थे। इतनी मात्रा में पानी भर गया था कि कई महीनों तक खदान से पानी निकाला जाता रहा। कई महीने तक खदान से शव बरामद होते रहे थे और शवों का अंतिम संस्कार किया जाता रहा। यह दुर्घटना एशिया की सबसे बड़ी खदान दुर्घटना के रूप में इतिहास के पन्नों पर दर्ज है। इस काले अध्याय पर बाद में यश चोपड़ा ने काला पत्थर नाम से एक फिल्म बनाई थी, जिसमें अमिताभ बच्चन ने मुख्य भूमिका निभाई थी।

-आकांक्षा पारे काशिव

 

साम्राज्यवाद ढहा

विएतनामः 30 अप्रैल 1975

वियतनाम युद्ध

वह पुराने तरह के साम्राज्यवाद के आखिरी ठौर जैसा था। विएतनाम के लोगों और अमेरिकी सेना के खिलाफ युद्ध लगभग 7,000 दिन यानी करीब 19 साल 5 महीने तक चला। 30 लाख से अधिक लोग मारे गए, जिनमें 58,000 से ज्यादा अमेरिकी सैनिक शामिल थे।

विएतनाम युद्ध 20वीं सदी का अत्यंत विनाशकारी युद्ध था। यह 1 नवंबर 1955 से 30 अप्रैल 1975 तक चला। लगभग 20 वर्षों तक चला यह युद्ध मुख्य रूप से विएतनाम, लाओस और कम्बोडिया में लड़ा गया।

शुरुआत में यह उत्तर विएतनाम और दक्षिण विएतनाम के बीच गृहयुद्ध था। उत्तर विएतनाम का नेतृत्व हो ची मिन्ह कर रहे थे और वे पूरे देश को कम्युनिस्ट शासन के अंतर्गत लाना चाहते थे। वहीं, दक्षिण विएतनाम को अमेरिका और पश्चिमी देशों का समर्थन प्राप्त था, जो इस क्षेत्र में कम्युनिज्म के प्रसार को रोकना चाहते थे।

1954 में हुए जिनेवा समझौते के तहत विएतनाम को अस्थायी रूप से दो हिस्सों में बांटा गया था और पूरे देश में चुनाव कराने की योजना बनाई गई थी। लेकिन दक्षिण विएतनाम ने इस प्रक्रिया में भाग लेने से इनकार कर दिया, जिससे दोनों पक्षों के बीच तनाव और टकराव की स्थिति पैदा हो गई और संघर्ष की औपचारिक शुरुआत हुई।

वर्षों तक चले इस युद्ध के दौरान कई बड़े घटनाक्रम हुए, जिनमें गल्फ ऑफ टोंकिन की घटना, टेट आक्रमण और मी लाई नरसंहार जैसे मौके शामिल हैं। गल्फ ऑफ टोंकिन की घटना के बाद अमेरिका ने सीधी सैन्य कार्रवाई शुरू की, लेकिन धीरे-धीरे यह स्पष्ट होता गया कि यह युद्ध आसान नहीं है। 1968 का टेट आक्रमण भले ही सामरिक रूप से उत्तर विएतनाम के लिए सफल न रहा हो, लेकिन इसने अमेरिकी जनता के मन में युद्ध को लेकर संदेह और असंतोष को जन्म दिया। इसी वर्ष मी लाई नरसंहार ने अमेरिकी सेना की नैतिकता और युद्ध नीति पर गहरे प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए, जिससे वैश्विक स्तर पर युद्ध-विरोधी लहर और तेज हुई।

1973 में पेरिस शांति समझौते के बाद अमेरिका ने अपने सैनिकों को वापस बुला लिया, लेकिन विएतनाम में युद्ध समाप्त नहीं हुआ। अंततः 30 अप्रैल 1975 को उत्तर विएतनामी सेना ने साइगॉन पर कब्जा कर लिया और दक्षिण विएतनाम की सरकार पूरी तरह से ढह गई। उत्तर विएतनाम ने पूरे देश को एक समाजवादी गणराज्य के रूप में एकीकृत कर दिया।

-उपासना पांडेय

 

बंगबंधु हत्याकांड

शेख मुजीबुर्रहमानः 15 अगस्त 1975

शेख मुजीबुर्रहमान

दक्षिण एशिया के राजनीतिक इतिहास की करिश्माई शख्सियत मुजीबुर्रहमान को ‘बांग्लादेश के राष्ट्रपिता’ के रूप में जाना जाता है। उन्होंने न केवल पूर्वी पाकिस्तान को स्वतंत्रता दिलाई, बल्कि बांग्लादेश नामक एक नए राष्ट्र की नींव भी रखी।

15 अगस्त 1975, बांग्लादेश के इतिहास की सबसे काली सुबहों में से एक बनी, जब एक सैन्य तख्तापलट में शेख मुजीब, उनकी पत्नी, तीन बेटे, दो बहुएं, एक नाती और कुल 16 परिजनों की बेरहमी से हत्या कर दी गई। यह घटना न सिर्फ एक राजनीतिक हत्या थी, बल्कि एक पूरे युग का अंत थी।

17 मार्च 1920 को बंगाल प्रेसीडेंसी (वर्तमान गीपालगंज, बांग्लादेश) में जन्मे शेख मुजीब ने राजनीति की शुरुआत अखिल भारतीय मुस्लिम लीग से की थी। लेकिन जल्द ही वे बंगाली अस्मिता और अधिकारों की लड़ाई के अग्रणी बन गए। उन्होंने अवामी लीग की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो बाद में बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई की अगुआ बनी।

उनका ऐतिहासिक 7 मार्च 1971 का भाषण और ‘जोय बांग्ला’ का नारा आज़ादी की मशाल बन गया। पाकिस्तान के खिलाफ नौ महीने के संघर्ष के बाद, दिसंबर 1971 में बांग्लादेश स्वतंत्र राष्ट्र बना। यह स्वतंत्रता शेख मुजीब के नेतृत्व, साहस और संकल्प का परिणाम था।

शेख मुजीब की राजनीति की जड़ें आम लोगों की समस्याओं में थीं। वे मानते थे कि एक सच्चा राष्ट्र तभी बन सकता है जब उसमें हर नागरिक को समान अधिकार, शिक्षा, रोजगार और सम्मान मिले। उन्होंने ‘चार मूल स्तंभों’ राष्ट्रवाद, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र को बांग्लादेश की बुनियाद में स्थापित किया। भले ही समय-समय पर इन मूल्यों को चुनौती दी गई हो, लेकिन उनकी यह विचारधारा आज भी बांग्लादेश की संवैधानिक और राजनीतिक संरचना की आत्मा बनी हुई है।

15 अगस्त 1975 को तड़के, सेना के कुछ युवा अधिकारी टैंकों और भारी हथियारों के साथ ढाका स्थित उनके आवास पर पहुंचे। कुछ ही पलों में, वह घर जहां बांग्लादेश के भविष्य की योजनाएं बनती थीं, शोक और लाशों का ढेर बन गया। मुजीब की दो बेटियां शेख हसीना और शेख रेहाना जर्मनी में थीं, इसलिए वे इस हत्याकांड से बच गईं।

-उपासना पांडेय

 

स्मार्ट टेक की पहली पहल

माइक्रोसॉफ्टः 04 अप्रैल 1975

बिल गेट्स

मा इक्रोसॉफ्ट की जब नींव रखी गई, तब यह भी एक आम स्टार्टअप जैसा ही था। शुरुआत में माइक्रोसॉफ्ट का मकसद माइक्रो कंप्यूटर के लिए सॉफ्टवेयर बनाना था। लेकिन असली बदलाव तब आया जब 1980 में माइक्रोसॉफ्ट ने आईबीएम के साथ मिलकर एमएस डॉस नाम का ऑपरेटिंग सिस्टम तैयार किया।

इसके बाद, 1985 में विंडोज 1.0 लॉन्च हुआ। नतीजन, कंप्यूटर बड़े अधिकारियों की मोनोपॉली से निकलकर आम आदमी की डेस्क तक पहुंचने लगा। विंडोज 95, विंडोज एक्सपी और विंडोज 7 जैसे संस्करणों ने दुनिया में डेस्कटॉप क्रांति ला दी। इसके साथ ही माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस पैकेज- वर्ड, एक्सेल और पावरपॉइंट ने दफ्तर के कामकाज को पूरी तरह डिजिटल बना दिया। टाइपराइटर,मैनुअल रजिस्टर की जगह स्क्रीन और कीबोर्ड ने ले ली।

2001 में एक्सबॉक्स के लॉन्च के साथ माइक्रोसॉफ्ट ने होम एंटरटेनमेंट की दुनिया में भी दस्तक दी। फिर 2014 में, जब सत्य नडेला ने कंपनी की कमान संभाली, तो माइक्रोसॉफ्ट ने खुद को क्लाउड कंप्यूटिंग और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की दिशा में आगे बढ़ाया। आज माइक्रोसॉफ्ट एज्योर दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी क्लाउड सेवा है। यह लाखों स्टार्टअप्स और कंपनियों की रीढ़ बन चुकी है।

2016 में लिंक्डइन और 2018 में गिटहब के अधिग्रहण ने कंपनी की पेशेवर नेटवर्किंग और ओपन-सोर्स सॉफ्टवेयर विकास में पकड़ को और मज़बूत किया। 2023 में ओपनएआई में निवेश कर माइक्रोसॉफ्ट ने जीपीटी मॉडल को बिंग सर्च इंजन और ऑफिस 365 जैसे उत्पादों में शामिल किया। इसके चलते ‘को-पायलट’ जैसे एआई टूल्स ने यूजर्स को केवल निर्देश देकर रिपोर्ट, ईमेल, विश्लेषण और प्रेजेंटेशन बनाने की सुविधा दी, जिससे तकनीक निजी सहायक बन गई।

माइक्रोसॉफ्ट ने सिर्फ तकनीक को सहज नहीं बनाया, बल्कि डिजिटल साक्षरता, शिक्षा और रोजगार के नए रास्ते भी खोले। विंडोज ने कंप्यूटर को आम जनता तक पहुंचाया, तो एमएस ऑफिस ने दफ्तरों को कागज से स्क्रीन पर ला खड़ा किया। लगभग 2.4 लाख से ज्यादा कर्मचारी कंपनी में काम करते हैं। इसका बाजार मूल्य तीन ट्रिलियन डॉलर के पार पहुंच चुका है। यह 190 से अधिक देशों में सक्रिय है और भारत में बेंगलुरु, हैदराबाद और नोएडा जैसे शहरों में इसके प्रमुख केंद्र हैं।

-राजीव नयन चतुर्वेदी