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लोकल के लिए वोकल देश के ‌लिए नया सूर्योदय

स्वदेशी विचार और स्थानीय उत्पाद को बढ़ावा देकर देश विकास का नया मॉडल विकसित करने में सक्षम
छोटे उद्योगों को राहत: स्थानीय बुनकरों को देना होगा बढ़ावा

‘आत्मनिर्भर भारत मिशन’ का कौन समर्थन नहीं करेगा? यह विचार भारतीय लोकाचार और जन सामान्य से सीधे जुड़ा है। अंग्रेजों को हराने के लिए महात्मा गांधी ने इसी उपकरण का उपयोग किया था। 12 मई 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी स्थानीय उत्पादों और खादी के उपयोग के साथ इन पर गर्व का आग्रह किया था। जाहिर तौर पर यह आज के वैश्वीकरण से विपरीत विचार है।

वर्तमान में दुनिया के विकसित देश दूसरे देशों के विकास मॉडल की नकल कर विकसित नहीं हुए। उन्होंने खुद को विकसित करने के लिए अपनी रणनीतियां खुद तैयार कीं। लेकिन हमारे नीति निर्माता विदेशी मॉडलों से अभिभूत रहे, उन्होंने कभी भी लोगों की क्षमता पर भरोसा नहीं किया, न ही देश के लोगों की उद्यमशीलता पर। पिछले 70 वर्षों में, नीति-निर्माताओं ने हमारे स्वदेशी उद्योगों, संसाधनों और उद्यमियों पर यानी देश के स्व पर भरोसा नहीं किया। 1950 के बाद से, जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में नीति निर्माताओं ने विकास के रूसी मॉडल पर विश्वास किया। इस मॉडल को नेहरू-स्टालिन मॉडल भी कहा जाता है। सार्वजनिक क्षेत्र आधारित दर्शन इस मॉडल के मूल में था। यह सोचा गया कि सार्वजनिक क्षेत्र इस देश के विकास को गति देगा और अंततोगत्वा उपभोक्ता वस्तुओं के उद्योगों के विकास में भी वही योगदान देगा। लेकिन उस मॉडल में कृषि और सेवा क्षेत्र को स्थान नहीं दिया गया। 1991 में महसूस किया गया कि जिस मॉडल पर हमारी अर्थव्यवस्था आधारित थी वह विफल रहा है। बढ़ते विदेशी ऋण के कारण देश मुसीबत में आ गया, विदेशी मुद्रा भंडार समाप्त हो गया और डिफॉल्ट का खतरा हो गया था। कहा गया कि अर्थव्यवस्था बचाने का एकमात्र तरीका वैश्वीकरण (वाशिंगटन की सहमति के आधार पर) को अपनाना है। हमने देश की अर्थव्यवस्था को विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआइ), बहुराष्ट्रीय निगमों, यानी विदेशियों के हाथ सौंप दिया। यह नई व्यवस्था विदेशी पूंजी पर आधारित थी। एकाधिकार और बाजार पर कब्जा करना बड़ी विदेशी कंपनियों की प्राथमिकता थी। इस मॉडल के बचाव में तर्क दिया गया कि इसके कारण ग्रोथ में तेजी आई। ग्रोथ तो हुई लेकिन सकल घरेलू उत्पाद में इस ग्रोथ का लाभ कुछ लाभार्थियों तक ही सीमित रहा।

अगर हम करीब से देखें, तो यह ग्रोथ रोजगारविहीन, जड़विहीन और बेरहम थी। विदेशी पूंजी को अंधाधुंध रियायतें देकर पहले से अच्छी चल रही कंपनियों का अधिग्रहण करने की छूट दे दी गई और वैश्वीकरण के नाम पर चीनी माल के आयात की अनुमति देकर, अपने देश में रोजगार को नुकसान पहुंचाने का काम किया गया। इसने आर्थिक असमानता बढ़ाने का काम किया। विदेशी व्यापार और चालू खाते पर भुगतान शेष में घाटा इसी का परिणाम था। इस तरह के बेलगाम भूमंडलीकरण ने कई स्थानीय उद्योगों को तहस-नहस कर दिया। इसका सीधा परिणाम स्थानीय विनिर्माण, रोजगार का नुकसान और शहरी श्रमिक वर्ग और ग्रामीण आबादी की गरीबी के रूप में आया, क्योंकि कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था एलपीजी (उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण) नीति बनाते वक्त ध्यान से बाहर थी।

रोजगार (मनरेगा) और भोजन के अधिकार नए मानदंड बनने लगे। हालांकि, यह नीति लोगों द्वारा सामाजिक और आर्थिक विकास में योगदान देने में बाधा बनती है। विकास को अधिक भागीदार, समावेशी और रोजगारोन्मुखी बनाने के लिए किसी भी सोच की अनुपस्थिति में, ‘यूनिवर्सल बेसिक इनकम’ प्रदान करने के लिए बातें होने लगीं। पिछले छह वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप, खादी आदि पर जोर देते रहे हैं, लेकिन कम टैरिफ और बिना सोचे-समझे एफडीआइ, एफपीआइ और आयात पर निर्भरता की नीति जारी रही। ‘लोकल के लिए वोकल’ के आह्वान से स्वाभाविक अपेक्षा है कि उन स्थानीय उद्योगों को पुनर्जीवित किया जाए, जो वैश्वीकरण के युग में नष्ट हो गए। यह उन आर्थिक नीतियों की शुरुआत करने का भी समय है जो जन कल्याण, स्थायी आय, रोजगार सृजन और सभी के लिए मददगार हों और लोगों में विश्वास पैदा करें।

 

नया सूर्योदय

प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में ‘क्वांटम जंप’ यानि लंबी छलांग की बात कही है। लोकल यानी स्थानीय पर जोर स्वदेशी उद्यमियों के लिए अधिक अवसर और सम्मान पैदा करने वाला है। प्रधानमंत्री की अपील की पहुंच बड़ी है। यह स्वदेशी और स्थानीय ब्रांडों को वैश्विक ब्रांड बनने में सहयोगी होगा। प्रधानमंत्री मोदी के समर्थन से इन उद्यमियों को वैश्विक स्तर पर अधिक सम्मान और स्वीकृति प्राप्त करने में मदद मिलेगी।

दुनिया भर की सरकारें चीन से आए कोरोना वायरस से उत्पन्न संकट से निपटने के लिए सहायता पैकेज उपलब्ध करा रही हैं। सहायता पैकेजों को जीडीपी के अनुपात से मापा जा रहा है। भारत सरकार ने भी जीडीपी के 10 फीसदी के बराबर सहायता पैकेज की घोषणा की है। इस सहायता पैकेज के माध्यम से लघु और कुटीर उद्योगों को ऋण मिलने और ऋण अदायगी में राहत का प्रयास किया गया है। हालांकि, रिजर्व बैंक ने ब्याज दरें घटाई हैं, लेकिन लघु और कुटीर उद्योगों को और राहत दी जानी चाहिए।

 

मजदूरों की त्रासदी

कोरोनावायरस के कारण लागू किए गए लॉकडाउन में नौकरियों और व्यवसायों से वंचित बड़े शहरों से प्रवासी मजदूर वापस गांव लौटने को मजबूर हुए। लॉकडाउन में केंद्र और राज्य सरकारों का स्वाभाविक दायित्व था कि लोगों के भोजन की व्यवस्था करतीं। कुछ सामाजिक संगठनों ने राहत उपलब्ध कराई और गरीबों की मुश्किलों को कम करने का काम किया। मजदूरों की इस हालत का जिम्मेदार कौन है? 1991 से शुरू हुए आर्थिक सुधारों की बात करें, तो उस समय के नीति निर्माताओं ने कहा था कि आजादी के बाद देश में जो सार्वजनिक क्षेत्र पर आधारित कोटा-लाइसेंस राज, घरेलू उद्योगों और खासतौर पर लघु उद्योगों के संरक्षण की नीति आदि थीं, ये असफल हो गई हैं और अब हमें उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीति पर चलना होगा। लघु उद्योगों, और घरेलू उद्योगों का संरक्षण समाप्त कर दिया गया। बड़े कारपोरेट और विदेशी कंपनियों को तरजीह दी जाने लगी। यहां तक कहा जाने लगा कि देश का विकास विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जरिए ही हो सकता है। छोटे-छोटे स्टार्टअप भी विदेशी निवेशकों के चंगुल में फंसने लगे। कई कंपनियों का तो प्रबंधन भी विदेशी हाथों में जाने लगा। इस नीति के पैरोकारों का कहना था कि इससे जीडीपी ग्रोथ में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। इसका प्रभाव नीति-निर्माताओं के मन-मस्तिष्क में इस कदर बढ़ गया था कि उसके अतिरिक्त उन्होंने कुछ भी सोचना मुनासिब नहीं समझा। देश के उद्योगों का संरक्षण जैसे अपराध की श्रेणी में आ गया था। जीडीपी ग्रोथ ही विकास का प्रतिमान मानी जाने लगी थी। इसका असर हमारे सामने है। हमारी मैन्युफैक्चरिंग को भारी नुकसान हुआ। बिजली के उपकरणों, केमिकल, दवाओं के कच्चे माल से लेकर इलेक्ट्रॉनिक, टेलीकॉम उत्पाद सब चीन और दूसरे देशों से आने लगे। प्रश्न यह है कि उच्च ग्रोथ का दंभ भरने वाली आर्थिक नीतियां, गरीब मजदूर को आर्थिक रूप से सशक्त क्यों नहीं बना पाईं? वास्तव में यह एलपीजी नीति गरीब और किसानों की भलाई के लिए थी ही नहीं। कुछ आंकड़े इस नीति की पोल खोल देते हैं। विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और कैपिटल पुस्तक के लेखक थॉमस पिकेटी, भारतीय आर्थिक ग्रोथ के विश्लेषण के बाद लिखते हैं कि 1980 और 2014 के बीच जितनी भी ग्रोथ हुई उसका 66 फीसदी हिस्सा ऊपर के 10 फीसदी लोगों तक पहुंचा।

यदि हम मजदूरों की हालत देखें, तो पाते हैं कि 1991 में कुल फैक्ट्री ‘वैल्यू एडिशन’ यानी उत्पादन में, श्रम का हिस्सा 78 फीसदी होता था वह घटकर अब मात्र 45 फीसदी रह गया है। जबकि लाभ का हिस्सा 19 फीसदी से बढ़कर 52 फीसदी हो गया है। 1991 से अब तक मौद्रिक मजदूरी तो सात गुना बढ़ी है लेकिन कीमतें भी 6.30 गुना बढ़ गईं। यानी वास्तविक मजदूरी में अत्यंत मामूली वृद्धि हुई है। एक तरफ जहां वास्तविक जीडीपी कम-से-कम 10 गुना बढ़ गई, वहीं मजदूरों की हालत बद से बदतर होती गई। आज स्थिति यह है कि गांव में प्रति व्यक्ति आय मात्र 23,000 रुपये प्रति वर्ष है, जबकि शहरों में यह लगभग 290,000 रुपये है। यानी यह कमाई गांव से 12.3 गुना ज्यादा है। लेकिन विडंबना यह है कि मजदूर किसान की इस बदहाली के लिए जिम्मेदार राजनीतिक दल इन मजदूरों के सबसे बड़े हिमायती बने दिखाई दे रहे हैं। अब जरूरत है कि विकास का वर्तमान मॉडल बदला जाए। कॉरपोरेट, एफडीआइ और बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर आधारित मॉडल को बदल कर ऐसा मॉडल बने जिसमें उत्पादन के साथ-साथ रोजगार, आमदनी और संपत्ति के वितरण का भी ध्यान रखा जाए। जिसमें मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं के साथ विकेंद्रित विकास हो। स्थानीय उत्पादन को बढ़ावा देने से दुनिया पर निर्भरता तो कम होगी ही, लघु कुटीर उद्योगों और कारीगरों के विकास के साथ-साथ रोजगार और गरीबों के लिए अधिक आय के अवसर भी मिलेंगे। 

 

असमंजस अभी बाकी है

‘वोकल फॉर लोकल’ पर सरकारी निर्णयों में अभी कुछ असमंजस है। शायद यह अभी तक चल रही नीतियों के कारण है। सरकार को स्पष्ट कहना होगा कि अभी तक चल रही भूमंडलीकरण नीति असफल हो चुकी है। भूमि अधिग्रहण कानून का जहां तक प्रश्न है हमारी औद्योगिक आवश्यकताओं से कई गुना ज्यादा भूमि केंद्र और राज्य सरकारों या सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों के लैंड बैंक में उपलब्ध है। विश्व की चीन से बढ़ती विमुखता के चलते बड़ी संख्या में कंपनियां अपने उत्पादन केंद्र भारत लाना चाहती हैं। इसमें कोई बुराई नहीं कि ये कंपनियां भारत में आकर उत्पादन करें, यहां रोजगार निर्माण करें, निर्यात करें और देश में औद्योगिक वातावरण को पुष्ट करने का काम करें। लेकिन हमें सावधानी बरतनी होगी कि वे भारत के बाजार पर कब्जे की नीयत से नहीं, बल्कि निर्यात बढ़ाने के लिए आएं। वे विदेशों के बजाय भारत से कल-पुर्जे खरीदें और लघु उद्योगों को इसकी तकनीक दें। हमें भी यह शर्त लगानी पड़ेगी कि वे अनुचित रूप से रॉयल्टी का भी अंतरण न करें।

(लेखक स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय सह-संयोजक और पीजीडीएवी कॉलज, दिल्ली विवि में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)

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1991 में महसूस किया गया कि जिस मॉडल पर हमारी अर्थव्यवस्था आधारित थी वह विफल रहा है। बढ़ते विदेशी ऋण के कारण देश मुसीबत में आ गया

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देश में औद्योगिक विकास न होने के पीछे खुले आयात की नीति और अंधाधुंध विदेशी निवेश पर निर्भरता रही है, न कि श्रम और भूमि अधिग्रहण कानून

 

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