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सन्नाटे में दहकते सवाल

सरकार की नजर में स्थिति सामान्य, पर न नाकेबंदी हटी, न मौलिक और लोकतांत्रिक अधिकार हुए बहाल
फारूक और उमर अब्दुल्ला तो रिहा, पर महबूबा मुफ्ती नजरबंद

जम्मू-कश्मीर, अब इस नाम से न तो पर्वतों, वादियों और कलकल करती पहाड़ी नदियों का एहसास होता है, न ही कश्मीरियत में डूबे सूफी अध्यात्म का। वैसे तो यहां 1947 से ही परिस्थितियां कभी सामान्य नहीं रहीं, लेकिन तीन दशकों से सीमापार आतंकवाद, कर्फ्यू और अलगाववादी आंदोलन जैसी घटनाएं, दो केंद्र शासित प्रदेशों में बंट चुके इस राज्य की नई पहचान बन चुकी हैं। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने कभी अपने इस इरादे को नहीं छिपाया कि वह अनुच्छेद 370 को खत्म करना चाहती है, जिसके तहत जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा मिला था। यह बात पार्टी के केंद्रीय एजेंडे में रही है और 2014 तथा 2019 के आम चुनाव के घोषणापत्रों में भी इसे शामिल किया था। 5 अगस्त 2019 को संविधान के अनुच्छेद 35ए और 370 को निष्प्रभावी बना कर एक तरह से भाजपा ने अपना वादा पूरा किया था।

एक साल से कश्मीर घाटी लॉकडाउन में है, हालांकि अब इसका एक कारण कोविड-19 महामारी भी है। मोबाइल फोन और इंटरनेट अब भी प्रतिबंधित है। जून 2018 तक भाजपा के साथ गठबंधन सरकार का हिस्सा रही पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की नेता और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती अभी तक सार्वजनिक सुरक्षा कानून (पीएसए) के तहत नजरबंद हैं। अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाने के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला भी नजरबंद थे, उन्हें इस साल मार्च में रिहा किया गया। रिहाई के बाद से पिता-पुत्र सार्वजनिक रूप से ज्यादा नहीं बोल रहे। राम माधव जैसे भाजपा नेताओं ने यह कहकर उनका मजाक भी उड़ाया है कि ये लोग फेसबुक वॉल और ट्विटर हैंडल के पीछे छिप गए हैं। (आगे पढ़िए राम माधव के साथ बातचीत)

भाजपा की पूर्व सहयोगी शिवसेना का कहना है कि 2016 की नोटबंदी की तरह अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाने का मकसद भी अधूरा रह गया। सुरक्षा के नजरिए से हालात नहीं सुधरे हैं। शिवसेना ने अपने मुखपत्र सामना में लिखा है, “हर दिन सड़कों पर खून बह रहा है और निर्दोष लोगों की जान जा रही है।”

विशेषज्ञों के अनुसार अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाने से कश्मीर मुद्दे का अनावश्यक रूप से अंतरराष्ट्रीयकरण हो गया, जिससे भारत तीन दशकों से बचता रहा था। अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव में डेमोक्रेट उम्मीदवार जो बाइडन ने चुनाव प्रचार में कश्मीरियों के अधिकारों को भी मुद्दा बनाया है। एक पूर्व विदेश सचिव ने कहा, “हमेशा भारत का समर्थन करने वाले ईरान ने पहली बार जम्मू-कश्मीर में भारत के रवैये की आलोचना की है। वह चाबहार रेल प्रोजेक्ट से भारत को बाहर रखते हुए चीन के करीब जा रहा है। यह भारत के लिए अच्छा नहीं है, क्योंकि इसका असर कश्मीर के शिया मुसलमानों पर भी होगा।”

अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाना भी कोई अंतिम परिणाम नहीं है। 3डी यानी डोमिसाइल, डिलिमिटेशन और डेमोग्राफिक्स के रूप में काम अभी जारी है। स्थानीय लोग नए डोमिसाइल नियमों के खिलाफ हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि यह आबादी की संरचना बदलने का प्रयास है। अनुच्छेद 370 पर सरकार का समर्थन करने वाले जम्मूवासियों ने भी विरोध प्रदर्शन किया क्योंकि अब सरकारी नौकिरयां उनके लिए आरक्षित नहीं हैं।

जस्टिस रंजना देसाई की अध्यक्षता वाला आयोग जम्मू-कश्मीर के साथ असम, नगालैंड, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश में भी लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों का परिसीमन कर रहा है। इसे भी आबादी की संरचना में बदलाव के तौर पर देखा जा रहा है, जिससे संभवतः हिंदू बहुल जम्मू में भाजपा को फायदा होगा। परिसीमन पूरा होने के बाद ही इस केंद्र शासित प्रदेश में चुनाव होंगे। टिप्पणीकार प्रो. बद्री रैना जम्मू-कश्मीर में आबादी की संरचना में बदलाव को लेकर आश्वस्त हैं। वे कहते हैं, “हिंदुत्ववादी ताकतें हमेशा यह मानती रही हैं कि इस तरह का बदलाव ही समस्या का समाधान है। उन्हें लगता है कि परिसीमन से हिंदू विधायकों की संख्या बढ़ने पर अगली विधानसभा में हिंदू मुख्यमंत्री बनाया जा सकेगा।”

रणनीतिकारों और सुरक्षा विशेषज्ञों का मत है कि भारत के इस नए केंद्र शासित प्रदेश को राजनीतिक गतिविधियों से अब ज्यादा दिनों तक महरूम नहीं रखा जाना चाहिए। मौलिक और इंटरनेट जैसे लोकतांत्रिक अधिकारों पर भी लंबे समय तक पाबंदी उचित नहीं। विकास के लिए आर्थिक गतिविधियां (कोविड लॉकडाउन से इतर) शुरू करना जरूरी है। पर्यटन यहां की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है और अनिश्चितता के कारण यहां पर्यटन के दो सीजन बर्बाद हो गए। सुरक्षा को देखते हुए निजी निवेशक यहां पैसा लगाने को तैयार नहीं हैं।

अनुच्छेद 370 निरस्त करने के बाद घाटी में हिंसक प्रदर्शन नहीं हुए। स्थानीय लोगों के अनुसार इसकी वजह संचार पर प्रतिबंध, मुख्यधारा के नेताओं की गिरफ्तारी और सुरक्षाबलों की बड़ी संख्या में तैनाती है। आरएसएस से जुड़े राजनीतिक विश्लेषक शेषाद्रिचारी ने आउटलुक से कहा, “पहले कोई अनुच्छेद 370 खत्म करने की बात करता था तो यह धमकी दी जाती थी कि देश जल उठेगा, लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ।” चारी इसकी तुलना 2009 में मारे गए लिट्टे नेता प्रभाकरण से करते हैं। वे कहते हैं, “उसे तमिलनाडु के प्रमुख राजनैतिक दलों का समर्थन हासिल था। माना जाता था कि उसे मारने पर न सिर्फ तमिलनाडु में सरकार गिर जाएगी, बल्कि लोग आत्मदाह करने लगेंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इसी तरह कश्मीर में 50 लोग भी प्रदर्शन के लिए नहीं निकले। हुर्रियत कॉन्फ्रेंस धमकी देती थी कि अनुच्छेद 370 को छुआ गया तो कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा बन जाएगा। अब हुर्रियत कहां है?”

पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा के अनुसार विरोध प्रदर्शन इसलिए नहीं हुआ क्योंकि अनुच्छेद 370 निष्प्रभावी किए जाने से कश्मीरी स्तब्ध रह गए और अपमानित महसूस करने लगे। सेंटर फॉर डायलॉग ऐंड रिकॉन्सिलिएशन की तरफ से सिन्हा कई बार घाटी का दौरा कर चुके हैं। वे बताते हैं, “आखिरी बार मैं नवंबर में गया, तो एक भी व्यक्ति नहीं मिला जिसने शांति या भारत की बात की हो। पहले ऐसा नहीं होता था। अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाए जाने से पहले लोगों में उम्मीद थी।”

रैना विरोध प्रदर्शन नहीं होने की एक और वजह बताते हैं। उन्होंने कहा, “मानसिक रूप से लोगों पर काफी बुरा असर हुआ है। ज्यादातर लोग सोचते हैं कि परिजनों को किसी भी तरह के नुकसान से बचाकर रखना ही सबसे अच्छा है।” रैना के अनुसार अनुच्छेद 370 को लेकर जम्मू-कश्मीर के दो प्रमुख दलों नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी के हित ज्यादा थे। इनके नेताओं को हिरासत में लेकर केंद्र ने आश्‍वस्त किया कि उनका जनाधार कोई चुनौती न बने। आंतरिक मतभेद से ग्रस्त हुर्रियत की प्रतिबद्धता इस अनुच्छेद को लेकर उतनी नहीं थी। ज्यादातर हुर्रियत नेताओं का मत था कि जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए। जहां तक आम लोगों के विरोध की बात है, तो बड़ी संख्या में सुरक्षाबलों की तैनाती से वे इतने डरे हुए थे कि विरोध की बात सोच भी नहीं सकते थे।

रिसर्च ऐंड एनालिसिस विंग (रॉ) के पूर्व विशेष सचिव आनंद अर्नी मानते हैं कि इस तरह के बल प्रयोग से हिंसा कम हो सकती है, लेकिन यह रणनीति लंबे समय में काम नहीं करेगी। उन्होंने कहा, “लोकतंत्र में यह संभव नहीं, इसकी निंदा की जानी चाहिए। लोगों को ताजी हवा में जाने की इजाजत दी जानी चाहिए। यह एक तरह का सेफ्टी वाल्व भी है, वरना पाकिस्तान के लिए हालात का इस्तेमाल करना आसान हो जाएगा।”

पूर्व रॉ प्रमुख और कश्मीर मामलों में दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सलाहकार रहे ए.एस. दुल्लत मानते हैं कि हिंसक प्रतिक्रिया इसलिए नहीं हुई कि आम कश्मीरी अमन पसंद हैं और सामान्य जीवन जीना चाहते हैं। उन्होंने कहा, “मैंने भी कुछ लोगों को यह कहते सुना कि वहां लावा धधक रहा है जो फूटेगा, पर मैं ऐसा नहीं मानता। कश्मीरी बिना 370 के भी जी सकते हैं। अगर सरकार बात करे तो पाकिस्तान भी इसे स्वीकार कर लेगा।”

दुल्लत मानते हैं कि राजनीतिक प्रक्रिया यथाशीघ्र शुरू की जानी चाहिए। वे पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव की तरह कदम उठाने की बात कहते हैं। राव ने छह साल तक राष्ट्रपति शासन के बाद 1996 में जम्मू-कश्मीर में चुनाव कराने का ऐलान किया था। दुल्लत के अनुसार, “राव का तरीका सबसे अच्छा था। कश्मीर को इसी की दरकार है। चाहे कोई एक पार्टी सत्ता में आए या त्रिशंकु विधानसभा हो, यह तय करने का अधिकार लोगों को दीजिए।”

दुल्लत के मुताबिक सरकार सुरक्षा को ज्यादा तवज्जो दे रही है, जबकि बड़ी समस्या लोगों की है। सुरक्षा का पहलू उत्तर कश्मीर में ज्यादा अहम है जहां विदेशी आतंकवादी घुसपैठ करते हैं। दक्षिण कश्मीर में आतंकवाद मुख्य रूप से स्थानीय युवाओं से जुड़ा है जो भविष्य को लेकर उनकी निराशा से उपजा है। दुल्लत के अनुसार स्थानीय पुलिस को इन युवाओं को मारने के बजाय उन्हें समझाना चाहिए। उन्होंने कहा, “उत्तर कश्मीर में किसी को बख्शा नहीं जाना चाहिए, लेकिन बंदूक उठाने वाले स्थानीय युवकों को मारने से कुछ हासिल नहीं होगा। आप एक को मारेंगे तो गुस्से में चार और खड़े होंगे और फिर वे भी मारे जाएंगे। 1990 के दशक में आतंकवादियों का जीवनकाल दो से ढाई साल होता था, अब यह दो-तीन महीने रह गया है। मुझे डर है कि श्रीनगर उत्तर और दक्षिण कश्मीर के बीच फंस सकता है और वहां कोई बड़ी आतंकी वारदात हो सकती है।”

जम्मू-कश्मीर में हिंसा बढ़ने को लेकर कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी भी सशंकित हैं। वे कहते हैं, “आतंकवाद के तीन चरण होते हैं- अलगाव, उग्रवादी विचार और हिंसा। हाल के दिनों में अलगाव बढ़ा ही है। जम्मू में भी असंतोष की ध्वनि सुनाई देने लगी है। सुरक्षा के लिहाज से हालात शायद ही बेहतर हुए हैं।” तिवारी के अनुसार किसी इलाके को कर्फ्यू में रखकर हालात सुधरने का दावा नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि निजी निवेशक वहां उद्योग स्थापित करने को तैयार नहीं। वे अमेरिका के पूर्व रक्षा मंत्री डोनाल्ड रम्सफील्ड की बात दोहराते हैं कि पैसा डरपोक होता है और यह सबसे सुरक्षित जगह ही जाना चाहता है। पूर्व वित्त मंत्री सिन्हा भी मानते हैं कि कोई निवेशक तभी पैसे लगाएगा जब स्थिति सामान्य हो, जबकि हालात इससे कोसों दूर हैं। वहां तो पहले से तय निवेशक सम्मेलन भी नहीं हो सका। नई परियोजनाओं की बात दूर, पीएम डेवलपमेंट पैकेज के तहत घोषित परियोजनाओं की गति भी काफी धीमी है। प्रधानमंत्री ने 2015 में 58,627 करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की थी, इसमें से 49 फीसदी राशि का ही इस्तेमाल हुआ है। कुल 54 प्रोजेक्ट में से नौ पूरी हुई हैं और आठ पूरी होने के करीब हैं।

रैना खुद कश्मीरी पंडित हैं। उन्हें नहीं लगता कि उनके समुदाय के लोग अभी वापस जाएंगे, क्योंकि वे जिस तरह की सुरक्षा चाहते हैं वह सरकार मुहैया नहीं करा सकती। ज्यादातर लोग अनुच्छेद 370 निष्प्रभावी बनाए जाने को स्थायी मानते हैं, लेकिन मनीष तिवारी को ऐसा नहीं लगता। उनके मुताबिक यह अब भी विचाराधीन है। कई बातें स्पष्ट होनी हैं। जैसे, संविधान में दो केंद्र शासित प्रदेशों के लिए एक हाइकोर्ट का प्रावधान नहीं है। हालांकि जम्मू-कश्मीर को पुनः राज्य का दर्जा मिलने की संभावना काफी ज्यादा है। भाजपा महासचिव राम माधव ने भी आउटलुक से बातचीत में यह बात कही।

हालांकि दुल्लत मानते हैं कि सरकार राज्य का दर्जा लौटाने पर कश्मीरियों के साथ सौदेबाजी कर सकती है। बदले में कश्मीरियों को लगेगा कि उन्हें कुछ तो वापस मिला। दुल्लत के अनुसार सरकार को बातचीत के दरवाजे खोलने चाहिए। उमर अब्दुल्ला, सज्जाद लोन, शाह फैजल और यहां तक कि मीरवाइज के साथ बात करने में भी कोई हर्ज नहीं है। सिन्हा भी मानते हैं कि बातचीत ही एकमात्र समाधान है। सरकार सभी पक्षकारों की पहचान करे और उनसे वार्ता के लिए किसी को साधिकार नियुक्त करे। हालांकि रैना के अनुसार जब तक कुछ बुनियादी मुद्दों पर खुले और लोकतांत्रिक तरीके से विचार नहीं होता, तब तक समाधान मुश्किल है।

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