Advertisement

स्मृति: कई चांद बुझ गए सरे-आसमां

शम्सुर्रहमान फारूकी के चले जाने से कुछ यूं महसूस होता है जैसे अचानक हमारे आसमान से कई चांद एक साथ रुखसत हो गए हों
शम्सुर्रहमान फारूकी

शम्सुर्रहमान फारूकी

30 सितंबर 1935 - 25 दिसंबर 2020

पिछले सौ बरसों में हिंदुस्तानी साहित्य और संस्कृति के आसमान में कई चांद जगमगाए और अपनी रोशनी बिखेर कर रुखसत हो गए। लेकिन शम्सुर्रहमान फारूकी के चले जाने से कुछ यूं महसूस होता है जैसे अचानक हमारे आसमान से एक नहीं, कई चांद एक साथ रुखसत हो गए हों। ऐसा इसलिए है कि फारूकी साहब ने अपनी एक जिंदगी में इतने सारे बड़े काम इतनी महारत से अंजाम दिए जो, आम तौर पर किसी बहुत बड़े साहित्यकार के लिए भी एक ही जिंदगी में अंजाम दे पाना आसान नहीं है। वे आलोचक थे, कहानीकार थे, कवि थे, साहित्यिक पत्रकार और संपादक थे, इतिहासकार और अनुवादक थे, सरकारी अफसर थे, गजब के वक्ता थे और बहुत कुछ थे। सबसे दिलचस्प बात यह है कि अगर कोई व्यक्ति उनके बहुत सारे कामों में से किसी एक काम से भी वाकिफ हो, तो उसके लिए वह काम ही फारूकी साहब को हिंदुस्तानी साहित्य और संस्कृति के आसमान का एक ताबनाक चांद मानने के लिए काफी है।

शम्सुर्रहमान फारूकी का जन्म 1935 में हुआ था और 25 दिसंबर 2020 को कोविड-19 ने उन्हें हमसे जुदा कर दिया। उन्होंने 85 साल के अपने जीवन का अधिकतर समय साहित्य की सेवा में लगाया और उनकी इस लंबी यात्रा में हमें कई पड़ाव नजर आते हैं। इस यात्रा का पहला और सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव उनकी साहित्यिक पत्रिका शबख़ून का प्रकाशन है, जिसके जरिए उन्होंने 40 वर्षों तक उर्दू साहित्य में एक नए तरह के साहित्य को बढ़ावा दिया। 1966 में शबख़ून का प्रकाशन उर्दू साहित्य के इतिहास में निस्संदेह एक बड़ी घटना है। शबख़ून का अर्थ ‘आधी रात में दुश्मन पर अचानक हमला’ है और शबख़ून ने सचमुच उर्दू साहित्य की दुनिया में न केवल हलचल मचाई बल्कि एक तरह से एक नए युग का आरंभ कर दिया। जाहिर है कि एक बड़े और नए काम के जवाब में सराहना और आलोचना के रूप में जिस तरह की तीव्र प्रतिक्रियाएं होती हैं वे शबख़ून के हिस्से में भी आईं। शबख़ून को जहां एक तरफ पश्चिमी आधुनिकतावाद और प्रयोगवाद से जोड़ा गया, तो दूसरी तरफ उसे प्रगतिशील लेखन पर एक भारी प्रहार भी समझा गया। यह सच भी है कि अपने काम के शुरुआती दौर में फारूकी साहब ने जिस तरह के लेखन को प्रोत्साहित किया, उसने प्रगतिशील लेखन के साहित्यिक मूल्यों पर प्रश्नचिह्न कायम कर दिए और इसी तरह एक आलोचक के तौर पर उन्होंने साहित्य के जो नए मापदंड गढ़े, उनमें उनके अंग्रेजी साहित्य अध्ययन की अहम भूमिका थी। लेकिन फारूकी साहब के साहित्यिक सफर की कहानी एक कहानी भर नहीं, लंबी पुरपेच दास्तान है। वे उन बड़े लोगों में से थे जो जहां ठहर जाएं, वहां एक शहर बस जाता है। शबख़ून के जरिए उर्दू दुनिया में जदीदियत (आधुनिकतावाद) का एक शहर आबाद कर देने के बाद फारूकी साहब वहां रुक नहीं गए। उन्होंने अपना सफर जारी रखा और अपने सफर के रास्ते में कई बेमिसाल नए शहर भी आबाद किए और कई पुराने शहरों को हमारे लिए फिर से दरयाफ्त भी किया। गजल जिसे कई पीढ़ियों से ठुकराया जा रहा था, फारूकी साहब ने उसे फिर से उसका मुकाम  दिलाने में अहम किरदार अदा किया। तफहीमे-गालिब और शेरे-शोर-अंगेज के जरिए उन्होंने न सिर्फ मीर और गालिब की शायरी की परतें खोलीं बल्कि हमें यह भी दिखाया कि अच्छी शायरी के अर्थ तक पहुंचने के लिए उसकी तहदार परतें कैसे सब्र और मेहनत से खोली जाती हैं और उसे समझने के लिए उससे जुड़ी संस्कृति समझना कितना जरूरी है। हिंदुस्तानी साहित्य और उसके मिजाज में किस तरह संस्कृत और फारसी-अरबी के भाषा साहित्य और उनकी परंपराओं का रस है, इसको समझने और समझाने के अमल में फारूकी साहब ने हमें अपनी साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहर को संजोने और उस पर गर्व करने की तरफ आकर्षित किया। हिंदुस्तान की साझी समृद्ध संस्कृति जो हमारे साहित्य की नींव और हमारे सौंदर्यबोध का हिस्सा है, फारूकी साहब के लिए केवल एक साहित्यिक विषय ही नहीं थी। उन्होंने उसको आत्मसात कर लिया था। जिसने भी फारूकी साहब को इस विषय पर बोलते सुना है, वह भली-भांति इसका अनुमान लगा सकता है। जिस तरह वे एक बात समझाने में, सरल भाषा और बड़े ही दो टूक अंदाज में हिंदी, उर्दू, अवधी, संस्कृत, फारसी, अरबी, और यूनानी विद्वानों और ग्रंथों का उदाहरण देते थे, वह अपने आप में मिसाल है। फारूकी साहब ने अंग्रेजी साहित्य में एमए किया था। पश्चिमी साहित्य से उन्होंने साहित्य को समझने और परखने के कई औजार भी हासिल किए थे लेकिन उनका कमाल यह है कि उन्होंने उन औजारों का इस्तेमाल अपनी शर्तों पर, अपनी साहित्यिक धरोहर को संजोने और उसकी कीमत और अहमियत को मनवाने के लिए बड़ी कामयाबी से किया। पश्चिमी शिक्षा जगत में भी उनका नाम भारतीय साहित्य के सबसे जाने-माने विद्वानों में लिया जाता है।

यूं तो फारूकी साहब ने अपने लेखन के शुरुआती दौर से ही कई विधाओं को साधा। उन्होंने कविताएं कही, कहानियां लिखीं लेकिन कहानीकार के तौर पर उनकी शोहरत उनके उपन्यास कई चांद थे सरे-आसमां से हुई। यह शोहरत ऐसी हुई कि उर्दू साहित्य को न समझने वाले और उसमें भी फारूकी साहब की ऐतिहासिक उपलब्धियों का ज्ञान न होने वाले भी उनके मुरीद हो गए। इस उपन्यास में उन्होंने बेदर्दी से मिटाई गई अनूठी संस्कृति को अपने शिल्प के माध्यम से फिर से जीवित कर दिया। यह अकेला उपन्यास ही उनको हिंदुस्तानी साहित्य में अमर कर देने के लिए काफी है। इस उपन्यास की कहानी, उसकी किरदारनिगारी, उसका इंद्रधनुष सरीखा वातावरण, लिबास, जेवरात, रहन-सहन और बोल-चाल का सजीव और मनमोहक वर्णन, सब मिलकर इस बात की तरफ भी इशारा करता है कि फारूकी साहब ने अपनी ज़ात में भाषा, शिल्प, इतिहास और संस्कृति सबको जमा कर लिया था।

शम्सुर्रहमान फारूकी बहुआयामी व्यक्तित्व के मालिक थे। उनकी किताबों की एक लंबी सूची है और साहित्य के क्षेत्र में भी उनकी भूमिकाएं कई रही हैं। लेकिन उनकी महानता इसमें है कि उन्होंने अपनी हर भूमिका के साथ इंसाफ किया। फारूकी साहब ने अपने उपन्यासों में एक जादुई तिलिस्म-सा रच दिया था। वे अपने लेक्चरों से समां बांध देते थे। वे जब साहित्यिक आलोचना करते थे, तो ऐसा लगता था जैसे, एक काबिल वकील जिरह और दलील के बलबूते, बिना लफ्फाजी किए, बड़े ही ठहरे अंदाज में, पूरी तैयारी, आत्मविश्वास और अनुशासन के साथ मुकदमा लड़ रहा हो। सच कहें, तो लफ़्ज़़ो-मानी और शेर, गैर-शेर और नस्र में संकलित उनके आलोचनात्मक लेखन ने 1960 और 1970 के दशकों में ही फारूकी साहब को उर्दू साहित्य की अदालत में एक आलोचक के तौर पर विजयी घोषित कर दिया था। हम उनकी दलीलों और उनके फैसलों से सहमत हों या न हों, लेकिन उनके लेखों की गंभीरता और उनके सीधे और दो टूक अंदाज में जिरह करने के तरीके से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। उन्होंने ही उर्दू में आलोचनात्मक लेखन शैली का आविष्कार किया जो, आज भी उतनी ही अहम और जरूरी है जितनी पचास साल पहले थी। आलोचक के रूप में उर्दू साहित्य में युगप्रवर्तक की भूमिका निभाने के बावजूद यह बात, तो फारूकी साहब ने खुद भी मानी थी कि रचना आलोचना की दासी नहीं होती, रचना का पद आलोचना से कहीं ऊपर है। फिर भी उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन का बड़ा हिस्सा एक आलोचक के रूप में जिया। उनकी पहचान सबसे पहले एक आलोचक के रूप में बनी और देश-विदेश में फैली। यह बताता है कि फारूकी साहब साहित्यिक समुदाय और संस्कृति के लिए आलोचना की भूमिका को अहम मानते थे। उन्होंने हमें सिखाया भी और कर के दिखाया भी कि आलोचना परिश्रम और प्रतिबद्धता की अपेक्षा करती है। आलोचना महज जुमलेबाजी नहीं है।

फारूकी साहब की शख्सियत बहुत बड़ी थी। अपनी साहित्यिक उपलब्धियों के अलावा भी उनमें ऐसी कई जाती ख़ूबियां थीं जो लोगों को, विशेषकर युवा पीढ़ी के लोगों को उनकी तरफ आकर्षित करती थी। इतना बड़ा विद्वान और लेखक होने के बाद भी उनका आपसी बातचीत का सादा और बेतकल्लुफ अंदाज चौंकाने वाला तो था ही, मन को मोह लेने वाला भी था। जिस तरह उन्होंने नए लेखकों को प्रोत्साहित किया, जिस दरियादिली के साथ उन्होंने युवा लेखकों और पाठकों के साथ अपना समय और ज्ञान बांटा, जिस तरह उनकी असहमति को भी हंस कर स्वीकार किया, वह हमारे रूढ़िवादी समाज में आसानी से देखने को नहीं मिलती।

जिस तरह चांद अपनी यात्रा के दौरान अलग-अलग चरणों में अलग-अलग तरह से, अलग-अलग रूप में अपनी छटा बिखेरता है, उसी तरह शम्सुर्रहमान फारूकी ने भी अपने लंबे और व्यस्त साहित्यिक जीवन के अलग-अलग दौर में कई बड़े-बड़े कारनामे अंजाम दिए।

उन्होंने अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व से लोगों को प्रभावित किया और अपनी अनेक शानदार साहित्यिक उपलब्धियों से हिंदुस्तानी साहित्य और संस्कृति को समृद्ध किया। उनका चला जाना आसमान में कई चांदों का एक साथ बुझ जाने जैसा है।

(लेखिका प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के साउथ एशियन स्टडीज विभाग में शिक्षिका हैं)

Advertisement
Advertisement
Advertisement