Advertisement

स्मृति: समर्थ कवि का जाना

समर्थ कवि और प्रखर पत्रकार, जिन्होंने समाचार पत्रों में साहित्य को भी बराबर मान-सम्मान दिलाया
मंगलेश डबराल

मंगलेश डबराल: 16 मई 1948-9 दिसंबर 2020 

कोरोना महामारी ने हिंदी साहित्य समाज से एक बड़े कवि को छीन लिया। असमय एक संवेदनशील कवि का जाना, साहित्य की बहुत बड़ी क्षति है। कल शाम तक जैसे उम्मीद की एक डोर थी कि वे कोरोना को मात देकर लौट आएंगे। लेकिन दस-ग्यारह दिनों तक कोरोना से संघर्ष करने के बाद वे जिंदगी की जंग हार गए। साहित्य अकादेमी सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित कवि मंगलेश डबराल को ऑक्सीजन की कमी और सांस लेने में तकलीफ की शिकायत के बाद, 27 नवंबर को जब उनकी बेटी अस्पताल लेकर गईं, तो कहीं भी किसी भी तरह के आशंका के बादल नहीं थे लेकिन स्थिति बिगड़ती गई और उन्हें अंततः एम्स में भर्ती करना पड़ा।

उनका सृजन, जीवन और विचार तीनों ही मोर्चों पर उनके अविराम संघर्षों को देखने वाले जानते हैं कि वे योद्धा थे। वे ऐसे व्यक्ति थे, जो नाउम्मीदी के बीच भी उसके आगे कभी नतमस्तक नहीं होते दिखते थे। निराशा में भी उनमें बहुत सामर्थ्य थी। लेकिन इस योद्धा की यह आखिरी पराजय बहुत खल रही है।

आठवें दशक यानी 1970 के दशक में जो कुछ अच्छे नए कवि आए, उनमें से अधिकतर के पहले संग्रह 1980-81 के दौरान छप गए थे। उन दिनों मैं रोजी-रोटी के चक्कर में धनबाद चला गया था। वहां मुझे नौकरी और पत्रकारिता के साथ-साथ कविता के लिए माहौल निर्मित करने का संघर्ष भी करना था। पटना से उस दौर के सभी नए कवियों के संग्रह मैं ले आया। इनमें दो कवियों के संग्रहों ने मुझे विशेष प्रभावित किया। ज्ञानेंद्रपति और मंगलेश डबराल, क्योंकि इन दोनों की कविताएं प्रचलति ढर्रे से बिलकुल अलग थीं। ज्ञानेंद्रपति की कविताओं से तो मैं पहले से परिचित था, लेकिन मंगलेश डबराल से उनके पहले संग्रह ‘पहाड़ पर लालटेन’ के माध्यम से ही कायदे से परिचित हो रहा था। हालांकि, उससे एक साल पहले प्रकाशित ‘पहल’ के कविता विशेषांक में राजेश जोशी, वीरेन डंगवाल के साथ मंगलेश जी की कविता, ‘खिड़की’ ने भी उनसे पहचान करा दी थी। दरअसल, उस दौर में कविता के कई आलोचक सामने थे, जो अपनी-अपनी तरह से आठेक साल की कविता को सूत्रबद्ध कर रहे थे और अपनी-अपनी ‘त्रयी’ बना रहे थे। जबकि ये दोनों कवि, मंगलेश डबराल और ज्ञानेंद्रपति किसी भी ‘त्रयी’ में नहीं थे, क्योंकि किसी भी प्रकार के फार्मूलेशन में उन्हें शामिल करना संभव नहीं था। ‘पहाड़ पर लालटेन’ की पहली ही कविता है, ‘वसंत।’ उसमें बिम्बों की गतिशीलता में जीवन और भाषा की गतिशीलता संग्रहित है कि कविता का बिलकुल ही एक नया रूप सामने आता हैः

घाटी की घास फैलती रहेगी रात को

ढलानों के मुसाफिर की तरह

गुजरता रहेगा अंधकार

जाहिर है, यह पहाड़ के जीवन अनुभव से ही संभव है, प्रकृति के बाहरी सौंदर्य के अवलोकन मात्र से नहीं। यह मंगलेश जी की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे सौंदर्य की आंतरिक गतिशीलता में प्रवेश करते हैं और उसे मनुष्य के संघर्ष और करुणा से आबद्ध कर देते हैं। इसलिए वे एक साथ सौंदर्य और करुणा के कवि हैं। यह विशेषता उन्हें केदारनाथ सिंह के निकट ले जाती है जबकि, माना उन्हें जाता है रघुवीर सहाय की परंपरा का कवि। वैसे, उनकी कविता की एक धारा वह भी है जो, रघुवीर सहाय से जुड़ी है। इसी संग्रह की अंतिम कविता है, ‘खिड़की’:

रात के स्याह पानी से उभरते

घरों की खिड़कियां खुल रही हैं

आंखों की तरह

मुझे यह खिड़की खोलनी चाहिए

जो तमाम खिड़कियों के

खुलने की शुरुआत है

इन दो धाराओं के मिलने से कविता की एक बिलकुल अलग नई धारा बनती है, जिसे हम मंगलेश डबराल के रूप में जानते हैं। उनके अब तक प्रकाशित कविता संग्रहों में इस ‘मंगलेशियत’ के विस्तार को देखा जा सकता है, जो विविधता से परिपूर्ण है। मंगलेश जी भले ही अब हमारे बीच में नहीं हैं लेकिन मंगलेशियस है और रहेगी। उनकी कविताएं हमेशा हिंदी की दुनिया में एक नई खुशबू की तरह फैली हुई हैं और देश-दुनिया की अन्य भाषाओं में विस्तार पाती हुई हैं।

मंगलेश डबराल की पत्रकारिता भी उनकी कविता से कम धारदार नहीं रही है। उन्होंने दैनिक पत्रों में साहित्य के प्रकाशन को महज औपचारिकता से उठाकर एक सार्थक हस्तक्षेप की भूमिका में ला दिया है। अब जबकि वे नहीं हैं, तब धीरे-धीरे उनके होने का महत्व समझ में आएगा। 

(लेखक प्रसिद्ध कवि हैं)

Advertisement
Advertisement
Advertisement