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मनभावन मोर बढ़े मगर...

दो दशकों में देश में मोरों की संख्या बढ़ी, लेकिन इनसे फसलों को काफी नुकसान
मोर के बारे में अनेक मिथक और धार्मिक मान्यताएं

भारत के राष्ट्रीय पक्षी मोर के बारे में अनेक मिथक और धार्मिक मान्यताएं हैं। आज पर्यावरणविद देश में मोरों की बढ़ती संख्या को लेकर खुश हैं, हालांकि वे भी मानते हैं कि किसानों को इस खूबसूरत पक्षी से फसलों को बचाने के लिए काफी कीमत चुकानी पड़ती है। वन्य जीव सुरक्षा कानून 1972 की अनुसूची-1 के तहत मोर को मारना अपराध है। 1990 के दशक में शिकार के कारण मोरों की आबादी काफी कम हो गई थी। लेकिन वन अधिकारियों और पुलिस की तरफ से सख्त कार्रवाई किए जाने और खेती के बदलते स्वरूप के कारण दो दशकों में इनकी संख्या काफी बढ़ी है। सात साल तक कैद की सजा और कम से कम 10,000 रुपये जुर्माने का प्रावधान होने के बावजूद पंख, वसा और मांस के लिए मोरों का शिकार किया जाता है।

इस साल के शुरू में केरल के पलक्कड़ में दो किसानों को मोर मारने के जुर्म में गिरफ्तार किया गया था। आरोप था कि उन्होंने पत्थर मारकर और कीटनाशकों के जरिए मोरों की हत्या की। किसानों का कहना है कि ऑर्गेनिक खेती करने वाले किसानों के लिए मोर बड़ी समस्या पैदा करते हैं। वे रोपे गए बीज, पौधों, सब्जियों और पकते धान को खा जाते हैं।

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में वन्य जीव विज्ञान के स्नातकोत्तर के छात्र सईद अनवर अली एम.वी. ने बताया कि दो साल पहले उन्होंने केरल के चूलान्नुर पीफाउल सैंक्चुअरी में मोरों की आबादी का अध्ययन किया था। तब उन्होंने पाया कि 2007 में जब यह अभयारण्य बना था, तब की तुलना में वहां मोरों की संख्या 20 फीसदी से अधिक बढ़ गई है। यह अभयारण्य 3.4 वर्ग किलोमीटर में फैला है। अली के अनुसार, “पक्षी अभयारण्य की सीमा नहीं मानते और पास के खेतों में जाकर धान की फसल को नुकसान पहुंचाते हैं।” अली ने पलक्कड़ स्थित विक्टोरिया कॉलेज से स्नातक की डिग्री हासिल की थी। विशेषज्ञों के अध्ययन से पता चलता है कि केरल के साथ अन्य कई राज्यों में भी मोरों की संख्या बढ़ी है।

केरल के किसान संगठन देशीय कृषक समाजम के महासचिव मणि बताते हैं कि मोर बीज और पौधों को नष्ट कर देते हैं, जिसके बाद दोबारा बुवाई की जरूरत पड़ती है। धान की दोबारा रोपाई तो बड़ी मुश्किल होती है। भारतीय किसान एसोसिएशन के महासंघ (सीफा) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कन्हैयालाल सिहाग बताते हैं कि राजस्थान के बीकानेर में नीलगाय और हिरणों के बाद मोर ही फसलों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं। ये अक्सर झुंड में आते हैं और इन्हें भगाने के लिए किसान ड्रम और थाली बजाते हैं। पत्थरों का इस्तेमाल नहीं करते क्योंकि उनसे मोर की मौत हो सकती है। बीकानेर के अलावा जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर, गंगानगर और चूरू जिलों में भी मोर बड़ी चुनौती बन गए हैं। एक साल में बीकानेर के श्रीडूंगरगढ़ में मोर को मारने या घायल करने के जुर्म में कई किसानों के खिलाफ मामले दर्ज हुए हैं।

सिहाग बताते हैं, “भरतपुर और अलवर में मांस के लिए मोरों का शिकार किया जाता है। बाकी जगहों पर हाल के वर्षों में मोरों की संख्या बढ़ी है। किसान असहाय हैं क्योंकि इनका प्रकोप कम करने के लिए न तो केंद्र सरकार, न ही राज्य सरकारें कोई कदम उठा रही हैं।” किसान संगठन इन्हें नियंत्रित करने का मुद्दा संसद में भी उठाने की कोशिश कर रहे हैं।

बाड़मेर जिला अध्यक्ष सरपंच समिति के प्रमुख और किसान, हिंदू सिंह तमलोर बताते हैं कि राज्य के अन्य हिस्सों की तुलना में पश्चिमी राजस्थान में मोर कम हैं। दालें उनकी प्रिय फसल है और वे मूंग और मोठ ज्यादा नष्ट करते हैं। धान और दालों के अलावा मोर फल, टमाटर और हरी मिर्च की फसलों को भी नुकसान पहुंचाते हैं। राजस्थान के प्रधान वन संरक्षक जी.वी. रेड्डी भी कहते हैं कि दो वर्षों में राज्य में मोरों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। उनके मुताबिक, “मोर और किसानों के बीच टकराव की बात अब सही नहीं है। हालांकि कंजर और बावरिया समुदाय के लोग मांस के लिए यदा-कदा मोर मारते हैं।” सफेद मोर के मांस की मांग राजस्थान के चंद समुदायों तक ही सीमित नहीं, बल्कि तमिलनाडु और केरल में भी है।

पर्यावरणविद् बाबूलाल जाजू का आरोप है कि सरकार भले ही मोरों की संख्या बढ़ने के दावे करती हो, लेकिन इसके समर्थन में कोई भरोसेमंद आंकड़ा नहीं है। जाजू ने राजस्थान के हर जिले में मोरों की सालाना गणना के लिए जनहित याचिका दायर की है। उनका आरोप है कि राजस्थान समेत पूरे देश में ठीक से अध्ययन नहीं किया गया है। वे कहते हैं, “मोर पंख ले जाने पर कोई पाबंदी नहीं है। इसके अलावा नियम तोड़ने वालों पर भी उचित कार्रवाई नहीं की जाती। इसलिए मोर पंख से बनी चीजों की मांग की आपूर्ति के लिए इनका शिकार अभी तक जारी है।” जाजू 2018 में की गई गणना को भी सही नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि इसमें बताई गई संख्या वास्तविक से 40 फीसदी अधिक हो सकती है।

श्रीगंगानगर स्थित ग्रामीण किसान मजदूर समिति के संयोजक और किसान रंजीत सिंह राजू भी मानते हैं कि राज्य में मोरों की संख्या घटी है। वे कहते हैं, “अन्य पक्षियों की तुलना में मोरों की संख्या कम है और हर साल घटती जा रही है।” राजू इसकी वजह मूंग जैसी फसलों को बताते हैं जिन पर कई बार कीटनाशकों का छिड़काव किया जाता है।  ऑर्गेनिक खेती से मोरों को बचाने में मदद मिल सकती है, लेकिन यह इस समस्या का समाधान नहीं। जिस तरह किसान अन्य पक्षियों के साथ रहते हैं, उन्हें मोरों के साथ रहने के लिए भी जागरूक करना पड़ेगा। इनसे होने वाली समस्याओं के बावजूद कई राज्यों में किसानों ने यह स्वीकार किया कि जंगली सूअर, नीलगाय या हिरण जैसे जानवरों की तुलना में मोर फसलों को कम ही नुकसान पहुंचाते हैं।

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