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अब असली मुद्दों से मुकाबला

हालिया विधानसभा चुनाव के नतीजे बदलती हकीकतों के संकेत, जमीनी मुद्दे आए सामने
नतीजों की घोषणा के बाद भाजपा मुख्यालय में पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करने जाते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और कार्यकारी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा

भारतीय मतदाताओं की याददाश्त बहुत लंबी नहीं होती है, इसलिए उसे किसी एक मुद्दे पर लंबे समय तक बांध पाना संभव नहीं है। यही वजह है कि हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में मतदाताओं ने अनुच्छेद 370 जैसे मुद्दे को बहुत अहमियत नहीं दी। इसका असर आने वाले दिनों में और कम होता जाएगा। हमें नहीं भूलना चाहिए कि 1971 में पाकिस्तान को दो हिस्सों में बांटने वाली इंदिरा गांधी कुछ सालों के भीतर ही अलोकप्रिय हो गई थीं और 1975 में इमरजेंसी लगाने की नौबत आ गई थी। यह बात सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता ने आउटलुक से कही। उनका खुद का मानना है कि नतीजे पार्टी की अपेक्षा के अनुरूप नहीं आए, इसकी वजह जनता के मन को समझने में कमी रही है। क्योंकि मुद्दों का बदलना और नए राजनैतिक आयाम समय की जरूरत होते हैं। महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव के साथ-साथ 17 राज्यों में 51 विधानसभा और दो लोकसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव के नतीजे राजनीतिक दलों के लिए बड़ा संकेत लेकर आए हैं। पार्टियां राजनीति और आम लोगों के बारे में किस तरह सोचती हैं, यह आने वाले दिनों में बदल सकता है। भावनात्मक मुद्दों के बल पर चुनाव जीतने की उम्मीद लगाए बैठी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। जबकि स्थानीय और आम लोगों से जुड़े मुद्दों पर फोकस कर कांग्रेस और दूसरी क्षेत्रीय पार्टियां सीटों की संख्या बढ़ाने में कामयाब रहीं। वंशवाद भारतीय राजनीति का सच है, यह बात भी इन चुनावों में एक बार फिर साबित हुई क्योंकि दोनों राज्यों में स्थापित राजनैतिक परिवारों के सदस्यों के चुनाव जीतने का आंकड़ा काफी बेहतर रहा है। चाहे वे हरियाणा के चौटाला परिवार के दुष्यंत चौटाला समेत चार सदस्य हों या कांग्रेस के भजनलाल परिवार से कुलदीप बिश्नोई हों या बंसीलाल परिवार की बहू किरण चौधरी हों। उसी तरह महाराष्ट्र के ठाकरे परिवार के आदित्य ठाकरे, सुशील कुमार शिंदे की बेटी, विलासराव देशमुख के बेटे हों या पवार परिवार के सदस्य, अधिकांश चुनाव जीत गए हैं। हालांकि, गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा मुंडे जरूर हार गईं, लेकिन यहां भी उनके चचेरे भाई ने ही उन्हें हराया।

भाजपा ने इन चुनावों में भावनात्मक मुद्दों को हावी करने की पूरी कोशिश की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महाराष्ट्र और हरियाणा में एक दर्जन से ज्यादा चुनावी सभाओं को संबोधित किया और अनुच्छेद 370, तीन तलाक और एनआरसी जैसे मुद्दे बार-बार उठाए। गृह मंत्री और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह रोजाना जो चार-पांच रैलियां कर रहे थे, उनमें भी यही मुद्दे हावी रहते थे। अब तक कहा जाता था कि चुनावों में भाजपा के लिए मुख्यमंत्री अहम नहीं होता है, खेती-किसानी और रोजगार से जुड़े स्थानीय मुद्दे महत्व नहीं रखते हैं। मोदी की करिश्माई छवि को ही जीत का आधार माना जाता था। इससे पहले के चुनावों में ऐसा दिखा भी, जब नोटबंदी से उपजी तमाम परेशानियों के बावजूद पार्टी उत्तर प्रदेश का चुनाव इसी मुद्दे पर जीत गई। लेकिन अब यह भ्रम भी टूटता लग रहा है। विधानसभा चुनावों में स्थानीय सरकार का कामकाज भी मायने रखता है। ऐसा न होता तो महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना सरकार के आठ मंत्री नहीं हारते और हरियाणा में मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर समेत सिर्फ दो मंत्रियों को जीत न मिलती।

विशेषज्ञ मानते हैं कि ये नतीजे सरकार के खिलाफ असंतोष को दिखाते हैं। स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष और देश के जाने-माने चुनाव विश्लेषक योगेन्द्र यादव ने आउटलुक से कहा, “महाराष्ट्र और हरियाणा के जनादेश का निहितार्थ यह है कि जनता में सरकार के खिलाफ असंतोष है। उस असंतोष और परेशानी में जनता को जब विपक्ष का साथ नहीं मिला, तो वह खुद विपक्ष की भूमिका में आ गई। इन परिणामों से भाजपा के अजेय होने का दंभ और मिथक भी टूटता दिख रहा है।”

भाजपा के प्रदर्शन पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के एक पदाधिकारी ने आउटलुक से कहा, “उम्मीद के मुताबिक सीटें नहीं मिलने का सबसे अहम कारण उम्मीदवारों का गलत चयन है। पार्टी ने जिस तरह चुनाव के ठीक पहले विपक्षी दलों से आए उम्मीदवारों को टिकट दिए, उससे कार्यकर्ता नाराज हो गए। ऐसे लोगों के टिकट कटे, जो वर्षों से भाजपा के निष्ठावान काडर रहे हैं। इसका खमियाजा भी उठाना पड़ा है। पार्टी ने कई ऐसे उम्मीदवारों को टिकट दिया, जिनकी छवि दागदार रही है। ऐसे में मतदाताओं के मन में यह संदेश भी गया कि अलग पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा भी अब कांग्रेस जैसी बन गई है।”

महाराष्ट्र और हरियाणा, दोनों राज्यों में सीटें घटने के बावजूद भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता गौरव भाटिया का मानना है कि जनता ने भाजपा के पक्ष में वोट दिया है। उन्होंने आउटलुक से कहा, “देवेन्द्र फड़नवीस की स्वच्छ छवि और उनकी कार्यकुशलता को देखते हुए वे दोबारा मुख्यमंत्री बनेंगे। शिवसेना हमारी पुरानी साथी है। उम्मीद है कि हम मिलकर सरकार बनाएंगे। महाराष्ट्र में हमारा कनवर्जन रेट काफी अच्छा रहा है। हरियाणा में हम सबसे बड़े दल के रूप में बनकर उभरे हैं। यह दिखाता है कि जनता का भरोसा हम पर बना हुआ है।” लेकिन पूर्व केंद्रीय मंत्री शकील अहमद मानते हैं कि यह परिणाम भाजपा के ही उम्मीदों के मुताबिक नहीं है। उन्होंने कहा, “आखिर कब तक आप भावनात्मक मुद्दों से लोगों को बेवकूफ बनाते रहेंगे। अगर मोदी जी भावनात्मक मुद्दों के सहारे चुनाव प्रचार नहीं करते, तो इतनी सीटें भी नहीं मिलतीं। जनता ने जिस तरह से विपक्ष का साथ दिया है, उससे आने वाले चुनावों में बेरोजगारी, आर्थिक संकट, कृषि संकट जैसे मुद्दे छाए रहेंगे और भाजपा को उसका जवाब देना होगा।” उन्होंने यह भी कहा कि नतीजों से लोगों के मन में यह भ्रम भी है कि भाजपा राज्य चुनावों में ईवीएम में छेड़छाड़ नहीं करती है। चुनाव आयोग को स्पष्ट करना चाहिए।

कहने को भले ही महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना बहुमत पाने में सफल रही हों, लेकिन जनादेश में उनके प्रति नाराजगी साफ दिखती है। 2014 में भाजपा और शिवसेना ने अलग-अलग चुनाव लड़कर क्रमशः 122 और 63 (कुल 185) सीटों पर जीत हासिल की थी। इस बार साथ लड़ने के बावजूद दोनों की कुल सीटें घटकर 161 रह गई हैं। अब भाजपा बेहतर स्ट्राइक रेट की बात कहकर खुद को सांत्वना दे रही है। 2014 में पार्टी ने 260 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे और 47 फीसदी स्ट्राइक रेट के साथ 122 सीटें जीती थीं। इस बार यह 150 सीटों पर लड़कर 105 सीटें जीतने में कामयाब हुई, यानी स्ट्राइक रेट 70 फीसदी है। सीटों के नुकसान पर प्रदेश के एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने कहा कि पार्टी के कई नेताओं की बयानबाजी भी नुकसान का कारण बनी। जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं से बेहतर समन्वय भी नहीं बन पाया। इन सबका असर चुनाव परिणामों में दिखा है।

भाजपा-शिवसेना गठबंधन को बहुमत मिलने के बाद अभी तक राज्य में सरकार नहीं बन पाई है। शिवसेना सरकार में ज्यादा भागीदारी चाहती है। महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रवक्ता सचिन सावंत ने आउटलुक से कहा कि जनता ने भाजपा-शिवसेना गठबंधन के पक्ष में जनादेश दिया है। लेकिन आपस में लड़कर वे जनता का अपमान कर रहे हैं। चुनावों में यह तो साफ था कि कांग्रेस की लहर नहीं है। लेकिन मुख्यमंत्री फड़नवीस और अमित शाह जो दिखाने की कोशिश कर रहे थे कि विपक्ष कहीं नहीं है, यह गलत साबित हुआ।

चुनावों में ईडी और सीबीआइ का दांव उल्टा भी पड़ सकता है, यह बात शरद पवार ने अच्छी तरह साबित कर दी। ईडी ने भ्रष्टाचार के मामले में पवार के नाम केस दर्ज किया, तो उन्होंने इसे मुद्दा बनाते हुए नोटिस मिलने से पहले खुद ईडी ऑफिस जाने का ऐलान कर दिया। मजबूरन ईडी को बयान देना पड़ा कि अभी पूछताछ की जरूरत नहीं है। इसके बाद 79 साल के पवार की बारिश में भीगकर चुनावी रैली वाली वायरल तसवीर का इतना असर हुआ कि उनकी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) की सीटों की संख्या 41 से बढ़कर 54 हो गई। यही नहीं, उनके कंधों पर सवार कांग्रेस की सीटें भी 42 से बढ़कर 44 हो गईं। सावंत के अनुसार, “जनता ही चुनाव के नतीजे और मुद्दे तय करती है। इन नतीजों से हमें नई ऊर्जा मिलेगी, जिसका असर आने-वाले चुनावों में दिखेगा। कांग्रेस एक सकारात्मक विपक्ष की भूमिका निभाएगी।” पवार फैक्टर को स्वीकार करते हुए अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में राज्यमंत्री रह चुके महाराष्ट्र के वरिष्ठ नेता दिलीप गांधी ने कहा, जनता के बीच यह संदेश गया कि यह उनका आखिरी चुनाव है, ऐसे में उनके पक्ष में भावनात्मक माहौल बन गया।

हरियाणा में भाजपा ने राष्ट्रवाद का खेल खेलने की ज्यादा कोशिश की। लेकिन यहां ‘75 पार’ का दावा करने वाली पार्टी साधारण बहुमत भी नहीं ला सकी और 47 की जगह 40 सीटों पर सिमट गई। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने आउटलुक से कहा कि पार्टी लोगों का मूड भांपने में नाकाम रही है। उनका यह भी कहना है कि हरियाणा में जाटों ने बहुत ही चालाकी और रणनीति के तहत भाजपा के खिलाफ वोट दिया। दूसरी ओर चुनाव के पहले आत्मविश्वास से लबालब मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने आउटलुक से बातचीत में भारी बहुमत से जीतने और विपक्ष को इक्का-दुक्का सीटें ही मिलने का दावा किया था। लेकिन नतीजे सबके सामने हैं। पार्टी बहुमत से पीछे रह गई और मजबूरी में उसे विरोधी जननायक जनता पार्टी (जजपा) के साथ मिलकर सरकार बनानी पड़ी।

राज्य में लोकसभा चुनाव में भाजपा को 58 फीसदी वोट शेयर मिले थे, लेकिन विधानसभा चुनाव में गिरकर 36 फीसदी रह गए। पार्टी को शायद मतदाताओं की नाराजगी का अंदाजा था और लोकसभा चुनाव में सनी देओल और हंसराज हंस जैसी सेलिब्रिटी की जीत का उदाहरण भी सामने था, इसलिए इसने विधानसभा चुनाव में भी कई सेलिब्रिटी को मैदान में उतारा। लेकिन इस बार दांव नाकाम रहा और बबीता फोगाट, सोनाली फोगाट, योगेश्वर दत्त सबको हार का सामना करना पड़ा। यहां कांग्रेस के भूपेंद्र सिंह हुड्डा और जजपा के दुष्यंत चौटाला स्टार बनकर उभरे। पहली बार चुनाव लड़ रही जजपा को 10 सीटें मिलीं तो कांग्रेस के विधायकों की संख्या 15 से बढ़कर 31 हो गई। कांग्रेस आलाकमान ने हुड्डा को कमान चुनाव से दो महीने पहले तब सौंपी थी जब वे लगभग बगावत के मूड में आ गए थे। हुड्डा ने साबित किया कि वे अब भी प्रदेश के सबसे बड़े जाट नेता हैं। उन्होंने यह भी साफ कर दिया कि अगर उन्हें समय रहते जिम्मेदारी दी जाती तो शायद प्रदेश में कांग्रेस की सरकार होती।

आगे झारखंड, फिर दिल्ली और बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं। कहा जा रहा है कि झारखंड को लेकर आश्वस्त नहीं होने के कारण ही भाजपा वहां महाराष्ट्र और हरियाणा के साथ चुनाव नहीं कराना चाहती थी। हालांकि इन दो राज्यों की तरह झारखंड में भी रणनीतिक रूप से यही प्रचारित किया जा रहा है कि विपक्ष कहीं नजर नहीं आ रहा है, लेकिन इन नतीजों के बाद वहां भाजपा को रणनीति बदलनी पड़ेगी और स्थानीय मुद्दों की ओर लौटना पड़ेगा। यहां विपक्ष पहले ही रोजगार, विकास और शिक्षा जैसे मुद्दों पर रघुवर सरकार को घेरने की कोशिश कर रहा है। लोकसभा चुनाव में प्रदेश की 14 सीटों में से भाजपा ने 11 पर जीत हासिल की थी। लेकिन शकील अहमद कहते हैं, विपक्ष अब ज्यादा मजबूत होकर उभरेगा।

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