Advertisement

उत्तराखंड: त्रिवेंद्र नहीं, अब तीरथ राज

विधायकों की बगावत की आशंका से घबरा कर भाजपा आलाकमान ने पहली बार बदला मुख्यमंत्री
नए मुख्यमंत्री तीरथ सिंह को गुलदस्ता भेंट करते त्रिवेंद्र सिंह रावत

आखिरकार देहरादून के ‘अभिशप्त बंगले’ का वास्तुदोष दूर करने की तमाम पूजा और गोमाता का निवास भी त्रिवेंद्र सिंह रावत को नहीं बचा पाया और कार्यकाल पूरा किए बिना ही रुखसत होना पड़ा। पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत एनडी तिवारी के कार्यकाल में बने इस बंगले से चार मुख्यमंत्रियों को बीच अवधि में सत्ता छोड़नी पड़ी है। हालांकि 2017 में 70 विधानसभा सीटों में से 57 जीतकर भाजपा ने ‌त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया तो यह भरोसा भी था कि पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व कोई मुख्यमंत्री नहीं बदलता। लेकिन त्रिवेंद्र सिंह रावत की अफसाराना कार्यशैली से लोगों और पार्टी के विधायकों में बढ़ती नाराजगी ऐसे मुकाम पर पहुंची कि भाजपा आलाकमान यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की जोड़ी को कायदा बदलने पर मजबूर होना पड़ा। खासकर तराई में ऊधम सिंह नगर और हरिद्वार में किसान आंदोलन की आंच और बड़ी संख्या में पार्टी विधायकों में बगावत की आशंका से भाजपा आलाकमान ने आनन-फानन त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाकर सांसद तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री का ताज पहना दिया।

मुख्यमंत्री बनने के साल भर बाद ही त्रिवेंद्र के हटने की चर्चाएं तेज हो गई थीं लेकिन वे बेफिक्र थे। पिछले साल विधायकों की नाराजगी खुलकर सामने आने लगी। सत्तारूढ़ दल के विधायक ही अफसरों पर उपेक्षा और मनमानी के आरोप लगाते रहे। एक विधायक पूरन सिंह ने तो सार्वजनिक तौर पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए। सदन में भी भ्रष्टाचार के मामलों को उजागर किया। कांग्रेसी दिग्गज हरीश रावत को हराने वाले किच्छा के विधायक राजेश शुक्ला ने एक आइएएस अफसर के खिलाफ विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव भी दे डाला। अन्य विधायक भी अफसरशाही के बेलगाम होने का आरोप लगाते रहे।

इतने विरोध के बाद भी कुछ नहीं होने से त्रिवेंद्र और भी बेपरवाह हो गए। मंत्रिपरिषद में दो पद शुरू से ही रिक्त थे तो डेढ़ साल पहले संसदीय कार्यमंत्री प्रकाश पंत की असमय मृत्यु से एक पद और खाली हो गया। विधायक मंत्री पद की बाट जोहते रहे, लेकिन त्रिवेंद्र ने उनकी हसरतों को पूरा नहीं किया। अलबत्ता कुछ लोगों को सरकारी पद अपनी इच्छा से बांट दिए। इधर सरकार ने बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री धामों समेत कुछ अन्य मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण के लिए देवस्थानम बोर्ड का गठन कर दिया। इससे तीर्थ पुरोहित भी खुलकर सरकार के विरोध में आ गए। भाजपा सासंद सुब्रह्मणियम स्वामी ने तो इस बोर्ड के खिलाफ नैनीताल हाइकोर्ट में याचिका दाखिल की। वहां याचिका खारिज हुई तो अब सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई है। ‌‌

अपने खिलाफ बन रहे इस माहौल को संभालने की त्रिवेंद्र ने कोई कोशिश नहीं और 2022 के विधानसभ चुनाव की तैयारी में जुट गए। 10 मार्च से ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैंण में बजट सत्र का आयोजन किया गया। वहां सदन में त्रिवेंद्र ने गैरसैंण को नई कमिश्नरी बनाकर इसमें कुमाऊं और गढ़वाल के दो-दो जनपदों को शामिल करने का ऐलान कर दिया। अचानक इस घोषणा के कुमाऊं के विधायकों में आक्रोश फैल गया। उनका कहना था कि अंग्रेजों के समय कमिश्नरी रहे अल्मोड़ा की सांस्कृतिक विरासत को नष्ट किया जा रहा।

त्रिवेंद्र की इस घोषणा ने आग में घी का काम किया। पुराने दिग्गज भी अंदरखाने सक्रिय हो गए। चर्चा तो यहां तक है कि भाजपा के दो दर्जन से ज्यादा विधायकों ने सदन में बजट के खिलाफ मतदान की तैयारी कर ली थी। बगावत की आशंका के बाद पार्टी आलाकमान सक्रिय हुआ और छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह और प्रदेश प्रभारी दुष्यंत गौतम को पर्यवेक्षक बनाकर तत्काल देहरादून भेजा गया। आलाकमान के इशारे पर ही विधायकों को गैरसैंण से देहरादून भिजवाया गया। बजट सत्र एक घंटे में ही स्थगित कर दिया गया।

उसी दिन त्रिवेंद्र भी डैमेज कंट्रोल के इरादे से दिल्ली पहुंचे। तमाम कोशिशों के बाद भी उन्हें प्रधानमंत्री या गृह मंत्री से मिलने का समय नहीं मिला। आखिर भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा से मुलाकात हुई तो कथित तौर पर त्रिवेंद्र को तत्काल इस्तीफा देने का फरमान सुना दिया गया। त्रिवेंद्र ने पहले शक्ति परीक्षण से अपनी सियासी ताकत दिखाने का फैसला किया, लेकिन आलाकमान ने इस पर भी रोक लगा दी।

आखिर उनके इस्तीफे के बाद पौड़ी से सांसद तीरथ सिंह रावत को नया नेता चुना गया। तीरथ की मंत्रिपरिषद में सभी पुराने मंत्रियों को शामिल किया गया। एक पुराने मंत्री को भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है। इस फैसले से भी यही साबित हो रहा है कि ‌निशाने पर त्रिवेंद्र ही थे। नए मुख्यमंत्री ने सबसे पहले पिछली सरकार के जिला विकास प्राधिकरण बनाने के फैसले को निरस्त किया और बाद में देवस्थानम बोर्ड और गैरसैंण में कमिश्नरी के फैसले पर फिर से विचार की बात की है। नई सरकार ने यह भी तय किया है कि 18 मार्च को प्रदेशभर में होने वाला चार साल पूरे होने का जश्न भी अब नहीं मनाया जाएगा।

सीएम बदलने और पुरानी कैबिनेट ही बहाल होने से विपक्ष को मुद्दा मिल गया है। कांग्रेसी दिग्गज हरीश रावत सवाल उठा रहे हैं कि त्रिवेंद्र नकारा थे तो भाजपा ने उत्तराखंड के चार साल क्यों बरबाद किए। और अगर त्रिवेंद्र बेदाग थे तो उन्हें हटाकर राज्य पर दो-दो उपचुनाव का बोझ क्यों डाला गया।

Advertisement
Advertisement
Advertisement