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बिहार: नीतीश डाउन, आउट नहीं!

भाजपा के निरंतर बढ़ते वर्चस्व और विपक्ष के आरोपों के बीच नीतीश के सामने अपने खोए वजूद को फिर हासिल करने की चुनौती
पटना में राष्ट्रीय कार्यकारिणी में के.सी. त्यागी के साथ नीतीश (बाएं)

राज्य की सत्ता में पंद्रह वर्ष से काबिज होने के दौरान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लगभग हर साल दिसंबर के अंतिम सप्ताह के कुछ दिन अपने गृह जिले नालंदा के पर्यटन स्थल राजगीर की पहाड़ियों पर गुजारे हैं। पटना के सियासी शोर-शराबे और उठापटक से दूर, शांति और सुकून के साथ नववर्ष का आगाज करने के खातिर, मगर इस बार उन्हें वैसा सुकून मयस्सर न हुआ। नए साल आने के कुछ दिन पहले ही, सुदूर अरुणाचल प्रदेश में उनकी पार्टी के सात में से छह विधायक पाला बदल कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए, वही पार्टी जिसके साथ नीतीश के नेतृत्व में ही जद-यू बिहार में गठबंधन सरकार चला रही है। यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि नीतीश और उनकी पार्टी के लिए यह बड़ा झटका था। उन्हें शायद यह उम्मीद न थी कि उनके अपने गठबंधन की अग्रणी सहयोगी, जद-यू के छह विधायकों को अपने दल में बगैर किसी तात्कालिक राजनैतिक कारण या मजबूरी के शामिल कर लेगी। लेकिन ऐसा हुआ, जिसे बिहार में विपक्ष ने भाजपा के बढ़ते मंसूबों और नीतीश के तेजी से घटते वजूद के रूप में प्रचारित-प्रसारित किया।

भाजपा और जद-यू के बीच बढ़ती खाई को देखकर राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी प्रसाद यादव ने पार्टी कार्यकर्ताओं को 2021 में ही मध्यावधि चुनाव के लिए कमर कसने का आह्वान कर दिया है, तो पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने कहा है कि उनकी पार्टी के नेता नीतीश के महागठबंधन में वापसी पर विचार कर सकते हैं, बशर्ते मुख्यमंत्री भाजपा का साथ छोड़ने को तैयार हों। उनका कहना है कि भाजपा के सामने नीतीश की नहीं चलती। राज्य कांग्रेस के नेताओं ने भी कुछ इसी तरह के सुर अलापे हैं। मतलब साफ है, विधानसभा चुनाव के दो महीने के भीतर विपक्ष में आम राय बन गई कि भाजपा-जदयू की सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं करने जा रही है।

विपक्ष का दावा है कि देर-सबेर, बिहार में भी भाजपा ‘अरुणाचल फार्मूला’ लागू कर सकती है और जद-यू के विधायकों को अपने दल में शामिल कर सरकार पर पूर्ण नियंत्रण कर सकती है। और तो और, वरिष्ठ राजद नेता और पूर्व मंत्री श्याम रजक ने यह कहकर खलबली मचा दी कि जद-यू के 43 में से 17 विधायक उनकी पार्टी के संपर्क में हैं।

ये ऐसी परिस्थितियां थीं जिसके लिए नीतीश तैयार नहीं थे। फिर भी, उन्होंने अपनी पार्टी टूटने के तमाम कयासों को बेबुनियाद बताया। वे कहते हैं, “कोई भी, किसी प्रकार का जो भी दावा कर कर रहा है, सब बेबुनियाद है। उसमें कोई दम नहीं है।” जद-यू के कई नेताओं ने तो इसके बाद यह दावा किया कि राजद के ही तीन दर्जन से ज्यादा विधायक ‘खरमास’ की समाप्ति यानी मकर संक्रांति के बाद उनके दल में शामिल होने को तैयार हैं। आखिर, नीतीश मंत्रिमंडल का विस्तार भी उसके बाद ही तय है।

आरोप-प्रत्यारोपों के बावजूद, इसमें दो मत नहीं कि अरुणाचल प्रदेश की राजनीति ने प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूप से बिहार में जद-यू और भाजपा के संबंधों पर असर डाला है। हालांकि प्रदेश भाजपा नेतृत्व ने जोर देकर कहा कि अरुणाचल की घटना का बिहार की गठबंधन सरकार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, लेकिन साल के बीतने के पहले ही पटना में आयोजित जद-यू की राष्ट्रीय कार्यकारणी की बैठक में यह स्पष्ट हो गया कि पार्टी में भाजपा के रवैये के प्रति काफी तल्खी है। इस दौरान, जद-यू के प्रमुख महासचिव के.सी. त्यागी ने स्वीकार किया कि पार्टी अरुणाचल प्रदेश में अपने छह विधायकों के भाजपा में जाने से बहुत आहत है। उन्होंने संवाददाताओं से कहा, “हमारी पार्टी समझ नहीं पा रही है कि आखिर भाजपा ने ऐसा क्यों किया?”

त्यागी के अनुसार, अरुणाचल में जद-यू सकारात्मक, मित्रवत विपक्ष की भूमिका में थी। उन्होंने कहा, “संपूर्ण घटनाचक्र दुर्भाग्यपूर्ण है। इसकी कोई जरूरत नहीं थी। वहां भाजपा सरकार बहुमत में थी और बहुत ठीक से चल रही थी। ऐसे में, जो हुआ, उसका औचित्य समझ में नहीं आया। किसी भी चीज का कोई मतलब होता है।”

अमित शाह के साथ उप मुख्यमंत्री रेणु देवी

अमित शाह के साथ उप मुख्यमंत्री रेणु देवी

जद-यू भले ही इसका मतलब तुरंत नहीं निकाल पाई हो, विपक्ष को यह कहने में देर नहीं लगी कि भाजपा का बिहार में अब नीतीश के राजनैतिक वजूद को खत्म करना ही एकमात्र मतलब और मकसद है और ये सारी कवायद इसी रणनीति के तहत हो रही है। दरअसल, 10 नवंबर को चुनाव परिणाम आने के बाद, जब से जद-यू एनडीए गठबंधन में पहली बार छोटे भाई की भूमिका में सिमट गई है, नीतीश विपक्ष, खासकर राजद के निशाने पर हैं। लालू प्रसाद यादव की पार्टी के नेताओं का कहना है कि नीतीश अब भाजपा के भारी दवाब में हैं। वरिष्ठ भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी के उप-मुख्यमंत्री नहीं बनने से लेकर नए साल में नीतीश के करीबी समझे जाने वाले गृह विभाग के प्रधान सचिव आमिर सुबहानी से अल्पसंख्यक विकास जैसे महत्वपूर्ण विभाग वापस लिए जाने तक के प्रशासनिक फैसले को विपक्ष नीतीश की सरकार पर लगातार कमजोर होती पकड़ के रूप में देख रही है। इसलिए, विपक्षी नेता नीतीश को अपनी और बेइज्जती नहीं करवाने और मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देकर भाजपा विरोध में अपने साथ आने की सलाह दे रहे हैं। राजद के वरिष्ठ नेता और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी का कहना है कि अगर नीतीश तेजस्वी को मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार कर लेते हैं, तो पार्टी उन्हें 2024 में प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश करने को तैयार है।

नीतीश ऐसे आरोपों का जवाब यह कहकर देते हैं कि उन्हें मुख्यमंत्री पद की उन्हें कोई लालसा नहीं है। वे यहां तक कहते हैं कि इस बार चुनाव परिणाम के बाद वे तो मुख्यमंत्री बनने को तैयार न थे और यह पद उन्होंने अंततः दवाब में स्वीकारा। पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारणी की बैठक के दौरान उन्होंने कहा, “मैं तो मुख्यमंत्री बनना ही नहीं चाहता था। एनडीए की बैठक में ही यह कह दिया था। लेकिन सबका बहुत दबाव रहा।” बाद में, सुशील मोदी ने नीतीश की इस बात पर मुहर लगाई। वे कहते हैं, “नीतीश कुमार मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहते थे। उन्होंने हमें बताया था कि सीएम बनने की उनकी कोई इच्छा नहीं है, पर हमारे दवाब पर उन्होंने सीएम बनना स्वीकार कर लिया।”

सुशील के अनुसार, बिहार चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मार्गदर्शन में और नीतीश के नेतृत्व में लड़ा और जीता गया। उन्होंने कहा, “नतीजे के बाद वे (नीतीश) सीएम बनना नहीं चाह रहे थे। हमने उनसे स्पष्ट कहा कि हमें जो जीत मिली है, उसमें चेहरा उनका ही है। लिहाजा, सीएम उन्हें ही बनना चाहिए। पहले तो वे तैयार नहीं हुए, लेकिन बाद में अनुरोध पर उन्होंने हामी भरी।”

सुशील जैसे भाजपा नेताओं के अनुसार, बिहार एनडीए में कहीं, कोई विवाद नहीं है और यह गठबंधन अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा करेगी। दरअसल, पूर्व में भी गुजरात सहित कई प्रदेशों में भाजपा और जद-यू के बीच कोई गठबंधन नहीं रहा है। इसलिए, उनके अनुसार, अरुणाचल प्रदेश जैसी घटनाओं का बिहार में उनके संबंधों पर प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा। हालांकि, जद-यू के प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह का मानना है कि जो कुछ अरुणाचल में हुआ, वह “सुखद और अच्छा अनुभव नहीं है।” वे कहते हैं, “अरुणाचल जैसा आगे न हो, यह भविष्य के लिए बहुत जरूरी है। नीतीश कुमार ने पंद्रह साल से ज्यादा समय तक बिहार में गठबंधन की सरकार चलाई है। कहीं कोई विवाद, तनाव या दरार दिखी? यह साधारण चीज नहीं है।”

सिंह जैसे जद-यू नेता उम्मीद करते हैं कि गठबंधन की भावना से जुड़े सभी पक्षों को समझना होगा और उसे ईमानदारी से अंजाम देना होगा। लेकिन क्या यह अगले पांच साल में भाजपा और जद-यू की बीच दिखेगा? राजनैतिक विश्लेषकों के अनुसार, विधानसभा चुनाव में अपनी बढ़ी संख्याबल के कारण भाजपा की महत्वाकांक्षा बिहार में बढ़ गई है। इस बार, जद-यू की 43 सीटों के मुकाबले भाजपा को 74 सीटें मिली हैं। इसी कारण नीतीश के मुख्यमंत्री पद पर रहने के बावजूद उन्हें भाजपा के प्रदेश नेताओं की आलोचनाओं को सुनना पड़ रहा है। हाल में राज्य में अपराध की घटनाओं में तेजी से वृद्धि होने के बाद भाजपा के पूर्व केंद्रीय मंत्री संजय पासवान ने नीतीश को गृह विभाग का दायित्व किसी और को सौंपने की नसीहत दे डाली।

जाहिर है, भाजपा नीतीश को अब खुली छूट देने का इरादा रखने वाली पार्टी प्रतीत नहीं होती। हाल ही में, भाजपा ने दो नवनियुक्त उप-मुख्यमंत्रियों, तार किशोर प्रसाद और रेणु देवी के दिल्ली में प्रधानमंत्री  मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से शिष्टाचार मुलाकात के बाद यह खबर आई कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व चाहता है कि बिहार के विकास में भाजपा की सहभागिता दिखे। पिछले पंद्रह साल में भाजपा के साथ गठबंधन सरकार चलाने के बावजूद राज्य के विकास का पूरा श्रेय अकेले नीतीश को ही मिलता रहा है, लेकिन भाजपा अब अधिक नहीं, तो कम से कम बराबरी का हक चाहती ही है। लेकिन क्या राजनैतिक रूप से यह संभव है कि भाजपा बगैर नीतीश के नेतृत्व के बिहार में शासन की बागडोर अपने हाथों में ले ले? क्या यह भी संभव है कि नीतीश एक बार फिर लालू प्रसाद के साथ गलबहियां कर किसी गैर-भाजपाई सरकार के गठन के सूत्रधार बनें?

बिहार के राजनीतिक हलकों में फिलहाल ऐसी ही चर्चाओं के बाजार गर्म हैं। ऐसी अटकलों से बेखबर न रहते हुए जद-यू नेतृत्व ने इस बीच विधानसभा चुनाव के परिणामों की समीक्षा कर पार्टी को जमीनी स्तर पर फिर से मजबूत करने की रणनीति बना डाली है। नीतीश ने लंबे समय से अपने विश्वासपात्र रहे, पूर्व आइएएस अधिकारी और राज्यसभा सांसद, आर.सी.पी. सिंह को अपनी जगह जद-यू का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया है, ताकि संगठन की मजबूती पर ध्यान दिया जा सके। राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठकों के दौरान पार्टी ने ‘लव जिहाद’ जैसे मुद्दों का विरोध कर और नीतीश कुमार को अपनी सबसे बड़ी पूंजी मानते हुए उनके चेहरे और काम के हवाले देश में अपने विस्तार की बात की है। पार्टी के एक प्रस्ताव में कहा गया है, “नीतीश कुमार का चेहरा और उनकी स्वच्छ छवि हमारी सबसे बड़ी पूंजी है। राष्ट्रीय स्तर पर उनके प्रति लोगों में आकर्षण है। उनकी नीतियों में विश्वास करने वाले लोग उनके साथ सजह रूप में जुड़ना चाहते हैं। लिहाजा, देश के दूसरे राज्यों में भी बिहार की तर्ज पर पार्टी संगठन को प्रभावी और धारदार बनाया जाए।”

इस दौरान नीतीश को गैर-भाजपाई सहयोगियों का समर्थन भी प्राप्त हुआ है। पूर्व मुख्यमंत्री और एनडीए के घटक दल, हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सेक्युलर) के मुखिया जीतनराम मांझी ने अरुणाचल प्रदेश की घटनाओं के संबंध में भाजपा से फिर ऐसी गलती न करने की बात कही है। वे कहते हैं, “अरुणाचल प्रदेश में जो हुआ वह स्वच्छ राजनीति का तकाजा नहीं है। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व से अनुरोध है कि ऐसी गलती दोबारा न हो पाए, इसका ख्याल रखें। नीतीश कुमार को कमजोर समझने वालों को शायद नहीं पता है कि हम मजबूती से उनके साथ हैं।”

एक समय नीतीश के धुर विरोधी रहे राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा भी नीतीश के समर्थन में खड़े दिख रहे है। उधर, महागठबंधन के नेता भी नीतीश को भाजपा का साथ छोड़ने और उन्हें अपने साथ जुड़ने का बार-बार ‘ऑफर’ दे रहे हैं, लेकिन जद-यू ऐसी सभी संभावनाओं को फिलहाल खारिज करती दिखती है। पार्टी के नए अध्यक्ष आर.सी.पी. सिंह कहते हैं, “यह सब बेकार की बात है। हम लोग किसी (पार्टी) के सामने दरखास्त लेकर नहीं खड़े हैं। हमारी अपनी ताकत है। अपनी ताकत की बदौलत हमारे नेता हैं और रहेंगे। आगे हमारी ताकत और बढ़ेगी।”

बिहार में भाजपा के निरंतर बढ़ते वर्चस्व के बीच अगले कुछ महीनों में यह देखना वाकई दिलचस्प होगा कि नीतीश अपने इस कार्यकाल में अपने खोए हुए वजूद को फिर हासिल करने के लिए किस तरह की रणनीति अपनाते हैं? बिहार की सियासत के जानकारों के अनुसार, नीतीश इस चुनाव के बाद भले ही ‘डाउन’ हों, लेकिन उन्हें इतनी जल्द ‘आउट’ समझना सियासी भूल होगी। और यह सीख या नसीहत भाजपा के लिए भी उतनी ही है, जितनी अन्य लोगों के लिए।

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