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बिहार: लव-कुश लामबंदी

नीतीश और कुशवाहा को उम्मीद कि गैर-यादव ओबीसी राजनीति की नई धुरी बनेंगे
उपेंद्र कुशवाहा और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार

वर्षों तक बिहार में अग्रणी भूमिका के बाद नीतीश कुमार एनडीए गठबंधन में अपना वर्चस्व फिर से कायम करने में जुट गए हैं। उन्होंने पुराने दोस्तों और दुश्मनों की वापसी के लिए जनता दल-यूनाइटेड का दरवाजा खोल दिया है। 14 मार्च को पूर्व केंद्रीय मंत्री  उपेंद्र कुशवाहा ने राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (आरएलएसपी) का जद-यू में विलय कर कई दिनों से चल रहे अटकलों पर विराम लगा दिया, जो हाल के वर्षों में नीतीश के कटु आलोचकों में से एक रहे हैं।

कुशवाहा के लिए यह दूसरी घर वापसी है। पहले वे दो बार नीतीश पर तानाशाही रवैया का आरोप लगाकर जद-यू छोड़ चुके हैं, लेकिन पिछले सप्ताहांत सब गिले-शिकवे बिसरा दिए गए। उन्होंने जद-यू को राज्य में फिर नंबर एक पार्टी बनाने के संकल्प के साथ नीतीश के नेतृत्व में अपने विश्वास को दोहराया। नीतीश ने कुशवाहा को जद-यू संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष बनाने का ऐलान किया, लेकिन यह ऐसा कदम है जो उनकी पार्टी के अलावा उनके सहयोगियों में भी नाराजगी पैदा कर सकता है।

कुशवाहा 2017 में एनडीए और नरेंद्र मोदी सरकार से बाहर आ गए थे। इस कारण उनकी नीतीश के दल में वापसी भारतीय जनता पार्टी के लिए खुशी का सबब नहीं हो सकती है। लेकिन नीतीश और कुशवाहा की गलबहियां दोनों नेताओं के लिए फायदे का सौदा दिखती हैं। पिछले विधानसभा चुनावों के परिणाम के बाद से नीतीश और कुशवाहा दोनों अपने-अपने घाव भरने की कोशिश कर रहे हैं।

नवंबर 2020 में, नीतीश एनडीए सरकार में मुख्यमंत्री तो बने, लेकिन उनकी पार्टी केवल 43 सीटों पर सिमट गई। उसकी सीटें भाजपा से 31 कम हैं, जो 2005 से लगातार जूनियर पार्टनर हुआ करती थी। इससे एनडीए में नीतीश का दबदबा काफी हद तक कम हो गया। दूसरी ओर, कुशवाहा का प्रदर्शन और भी खराब रहा। मायावती के बहुजन समाज पार्टी और असदुद्दीन ओवैसी के एआइएमआइएम के साथ गठबंधन करने के बावजूद उनकी पार्टी एक भी सीट जीतने में नाकाम रही। 2019 के लोकसभा चुनावों में महागठबंधन के सहयोगी के रूप में रालोसपा एक भी सीट जीतने में सफल नहीं हो पाई थी। 

इसलिए दोनों नेताओं का एक साथ आना वक्त का तकाजा था। कुशवाहा के लिए राज्य की राजनीति में प्रासंगिक बने रहने के लिए और नीतीश को उसी सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले को फिर मजबूत करने के लिए, जिसकी बदौलत वे डेढ़ दशक से अधिक समय तक बिहार की चुनावी राजनीति में अपनी मजबूत पकड़ बनाए रखने में सफल हुए थे।

नीतीश कुर्मी जाति से हैं और कुशवाहा कोयरी बिरादरी के बड़े नेता हैं। अब दोनों मिलकर गैर-यादव, ओबीसी मोर्चे को पुनर्जीवित करना चाहते हैं। राज्य में इन दोनों जातियों के मतदाताओं की संख्या लगभग 10 प्रतिशत है और बिहार की राजनीति में उन्हें ‘लव-कुश’ के रूप में जाना जाता है। 2005 में लालू प्रसाद की पार्टी राजद को सत्ता से बेदखल करने में उनकी एकता ने बड़ी भूमिका निभाई थी।

नीतीश ने बाद के वर्षों में अति पिछड़ी जातियों में पैठ बना कर अपनी स्थिति और मजबूत कर ली, लेकिन कुशवाहा के जद-यू से बाहर निकलने से लव-कुश एकता को चोट पहुंची। नीतीश को इससे पिछले विधानसभा चुनावों में विशेष नुकसान पहुंचा। भले ही आरएलएसपी को कुल मतों का केवल 1.72 प्रतिशत मिला हो, लेकिन लगभग एक दर्जन निर्वाचन क्षेत्रों में रालोसपा के उम्मीदवारों ने जद-यू को हराने में भूमिका अदा की। 

कुशवाहा हालांकि जोर देकर कहते हैं कि उन्होंने अपनी पार्टी का जद-यू में विलय करने के लिए कोई शर्त नहीं रखी थी, लेकिन हाल के दिनों में उन्होंने नीतीश के साथ करीब आधा दर्जन बैठकें कीं। इससे राजनीतिक हलकों में कयास लगाए जा रहे हैं कि कुशवाहा को राज्यसभा भेजा जा सकता है या उनकी पत्नी को नीतीश मंत्रिमंडल में मंत्री बनाया जाएगा, लेकिन वे इनकार करते हैं। ‘‘मैं यह स्पष्ट कर दूं कि मैंने जद-यू में लौटने के लिए कोई शर्त नहीं रखी है। मैं केवल घर वापस आया हूं।’’

61 साल के कुशवाहा का नीतीश के साथ वर्षों से कभी नीम-कभी शहद जैसा संबंध रहा है। वे जॉर्ज फर्नांडीस और नीतीश द्वारा 1994 में स्थापित समता पार्टी के संस्थापक सदस्य रहे हैं और पार्टी के शरद यादव के जद-यू के साथ 2003 में विलय के बाद उन्हें बिहार विधानसभा में विपक्ष का नेता भी बनाया गया था। लेकिन नीतीश के सत्ता में आने के बाद मोहभंग हो गया और उन्हें 2007 में ‘पार्टी विरोधी गतिविधियों’ के कारण जद-यू से निकाल दिया गया। कड़वाहट ऐसी हुई कि कुशवाहा को 2008 में पटना में सरकारी बंगले से निकाल दिया गया।

लेकिन कुछ महीनों के भीतर ही वे पुन: नीतीश के साथ आ गए और राज्यसभा सदस्य भी बन गए। बाद में उन्होंने फिर जद-यू छोड़कर 2013 में रालोसपा बनाई। उन्होंने 2014 का आम चुनाव एनडीए के साथ लड़ा और मोदी सरकार में राज्यमंत्री बने। 2017 में उन्होंने इस्तीफा दे दिया और महागठबंधन में शामिल हो गए। जद-यू के जरिए अब उनकी एनडीए में वापसी हो गई है, भले ही भाजपा को यह नागवार गुजरे। यह देखना दिलचस्प होगा कि उनकी वापसी से नीतीश को आने वालों चुनावों में कितना लाभ मिलता है।

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