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प्रोफाइल/निहंग: नीले चोले में ‘योद्धा’

सिंघू बॉर्डर पर दलित की हत्या से निहंगों की छवि को नुकसान, लेकिन त्याग की भावना वाली ‘गुरु की फौज’ सदियों से सम्मानित रही
बाबा बकाला शिविर में निहंग

वह फौज के सपने देखता है और खुद को लाखों में गिनता है। अगर वह अकेला हुआ तो भी कहेगा, “सवा लाख खालसा हैं।” आप पूछिए कैसे हैं, तो जवाब देगा, “फौज अच्छी है।” पटियाला स्थित पंजाबी यूनिवर्सिटी से प्रकाशित और प्रो. हरबंस सिंह के संपादित सिख इनसाइक्लोपीडिया में निहंग की कुछ ऐसी ही परिभाषा दी गई है। हरियाणा और दिल्ली के बीच सिंघू बॉर्डर पर एक व्यक्ति की निहंगों ने हत्या कर दी। उसके बाद मैं अमृतसर जिले के बकाला गया। आरोप है कि जिसकी हत्या हुई, उसने गुरु ग्रंथ साहिब का अपमान किया था। मैं तरुण दल की छावनी बाबा बकाला साहिब जाना चाहता था। तरुण दल खुद को गुरु की फौज (गुरु गोविंद सिंह) कहने वाले निहंगों का प्रमुख दल है।

एक संकरे रास्ते के दूसरे सिरे पर बाबा बकाला साहिब गुरुद्वारा है। वहां भीड़ नहीं थी। कुछ निहंग नीले रंग के कपड़े और पगड़ी पहने कृपाण और तलवार लिए थे। गुरुद्वारे के भीतर गहरे नीले रंग के कपड़े में लिपटा एक खंभा था जिसके सिरे पर कृपाण बंधा था। वह खालसा का झंडा ‘निशान साहिब’ है।

बाईं तरफ छोटा सा लंगर चल रहा था। नीली पगड़ी और सफेद कुर्ता पहने जरनैल सिंह मुझे आमंत्रित करते हुए कहते हैं, “मैं 25 वर्षों से पास के अपने गांव से यहां आता रहा हूं।” मैं कहता हूं, “मैं निहंग सिंह के बारे में और जानना चाहता हूं।” वे जवाब देते हैं, “लोग उनके बारे में चाहे जो कहें, वे गुरु गोविंद सिंह के योद्धा हैं। उन्होंने हमेशा गरीबों की रक्षा की है। लंगर देखिए, आपको यहां सिर्फ गरीब खाते हुए मिलेंगे।”

ग्रामीण पंजाब में निहंगों का प्रभामंडल आज भी है। इतिहास से लेकर किंवदंतियों तक, निहंगों की दिलेरी के किस्से हर जगह भरे पड़े हैं। भौतिकता के प्रति उनके संयम और त्याग का सम्मान किया जाता है। लेकिन लोग उनसे डरते भी हैं। दूसरे गुरुद्वारों के विपरीत इनके शिविरों में लोग कम ही जाते हैं। कैब ड्राइवर ने मुझे भी चेताया था, “निहंग सिंहों के पास जाने से बचिए।” मैंने वजह पूछी तो वह चुप हो गया।

लेकिन गुरुद्वारे में एक वृद्ध निहंग यह जानकर खुश हुए कि दिल्ली से कोई गैर-सिख मिलने आया है। उन्होंने चाय दी और मुझे अपनी प्याली साफ भी नहीं करने दी। बोले, “आप दूर से आए हैं। मैं आपको बर्तन साफ नहीं करने दे सकता।” मैंने उनसे पास ही निहंगों के आवासीय इलाके में जाने का आग्रह किया। उन्होंने तत्काल एक युवा सिख को बुलाया और मुझे साथ लेकर कैंप जाने को कहा। वह भीड़-भाड़ वाले संकरे रास्ते पर मोटरसाइकिल से जा रहा था। हम कैब में उसके पीछे चल रहे थे। कुछ देर बाद हम बड़ी-सी खुली जगह पर पहुंचे। दोनों तरफ खाली जमीन थी। बाईं तरफ एक जगह कई घोड़े खूंटे से बंधे थे। दाईं तरफ गायें और भैंसें बंधी थीं। तीन ऊंचे खंभों पर गहरे नीले रंग के कपड़े में निशान साहिब बंधे थे। एक प्लॉट पर निहंगों के टेंट थे। तस्वीरें खींचने पर उन्हें कोई आपत्ति नहीं हुई। निहंग शिविरों में तीन तरह के पशु-पक्षी हैं- घोड़े, मवेशी और बाज। निहंग घोड़े पर ही लंबी यात्रा करते हैं। बकाला निहंग बाबा खड़ग सिंह ने बताया कि अमृतसर के निहंगों का एक बड़ा दल घोड़े पर ही दशहरा-दिवाली के मौके पर महाराष्ट्र के नांदेड़ गया।

निहंग घोड़े, मवेशी के साथ बाज पालते हैं

निहंग घोड़े, मवेशी के साथ बाज पालते हैं

निहंग शब्द की उत्पत्ति पर हरबंस सिंह के संपादित सिख इनसाइक्लोपीडिया में एक अध्याय में लिखा है, “निहंग शब्द का इस्तेमाल फारसी में भी हुआ है जिसका अर्थ घड़ियाल या तलवार होता है। संस्कृत के निशंक (निडर) शब्द से भी इसकी उत्पत्ति हो सकती है। यह सिख रचनाओं में इस्तेमाल हुए शब्द निसंग (बेदाग, निष्पाप) का भी अपभ्रंश हो सकता है।”

निहंग गतिविधियों का मुख्य केंद्र आनंदपुर साहिब है, जहां खालसा का जन्म हुआ। हर साल मार्च में सिख यहां होला मोहल्ला उत्सव मनाने इकट्ठा होते हैं। यहां निहंग हथियारों के साथ घोड़ों और हाथियों की सवारी करते हैं। छद्म लड़ाई में वे अपनी युद्ध कला भी प्रदर्शित करते हैं।

निहंग कैसे बने, इसे लेकर कई कहानियां प्रचलित हैं। एक कहानी है कि गुरु गोविंद सिंह के बेटे फतेह सिंह एक दिन उनके सामने गहरे नीले रंग का चोला पहने, बड़ी-सी पगड़ी बांधे आए। उन्हें देखकर गुरु ने कहा कि यही अकालियों की पोशाक होनी चाहिए। दूसरी कहानी के मुताबिक साल 1705 में सिखों और वजीर खान की अगुवाई वाली मुगल सेना के बीच चमकौर साहिब की लड़ाई हुई थी। चमकौर से निकलकर गुरु ने मुगलों से बचने के लिए नीला चोला धारण किया था। कोटकपूरा के पास ढिलवां पहुंचने के बाद उन्होंने उसे जला दिया, लेकिन उनके सेवक मान सिंह ने नीले कपड़े का एक छोटा सा टुकड़ा बचा लिया और उसे अपनी पगड़ी के ऊपर बांध लिया। तीसरी कहानी यह है कि निशानवली मिसल के नैना सिंह अकाली ने लंबी पगड़ी की शुरुआत की जो बाद में निहंगों की वेशभूषा बन गई।

पंजाबी यूनिवर्सिटी में पंजाबी भाषा पढ़ाने वाले त्यागी मोहन बताते हैं कि निहंगों से जुड़ी कहानियां लोक कथाओं का हिस्सा हैं। वे पंजाबी की एक कहावत सुनाते हैं, “खाता पीता लाहे का, बाकी अहमद शाहे का” जिसका अर्थ है, आप जो खा-पी रहे हैं, वही आपका है, बाकी सब अहमद शाह अब्दाली का है। इससे पता चलता है कि एक समय आम आदमी किस तरह आक्रांताओं से पीड़ित था। मोहन उन दिनों निहंगों से जुड़ी एक प्रचलित कहावत भी सुनाते हैं, “आए हैं निहंग, बुआ खोल दो निसंग।” वे कहते हैं, “पंजाबी लोक कथाओं में निहंगों की इसी तरह प्रशंसा की गई है। संदेश यह है कि आक्रमण के दिनों में कोई परिवार तब सुरक्षित हो जाता था जब वहां निहंग आ जाते थे।”

18वीं सदी के बाद के वर्षों में जब महाराजा रणजीत सिंह ने सिख राज्य की स्थापना की, तो निहंगों को अलग तरह का सम्मान और स्वायत्ता दी गई। उनकी वीरता और अनुशासन से प्रभावित होकर महाराजा ने उन्हें अपनी सेना की विशेष शाखा में शामिल किया, क्योंकि वे वेतन लेकर सिपाही बनने को राजी नहीं थे। कसूर (1807) तथा नौशेरा (1823) की लड़ाइयों और मुल्तान (1818) तथा कश्मीर (1819) के अभियानों में निहंगों ने अपनी वीरता दिखाई। इनसाइक्लोपीडिया के अनुसार मुगलों और ब्रिटिश शासन के दौरान निहंगों पर काफी अत्याचार हुए।

त्यागी मोहन इस बात को स्वीकार करते हैं कि सिंघू बॉर्डर पर दलित की हत्या से निहंगों की छवि खराब हुई है। लेकिन वे यह भी कहते हैं कि ऐसे तत्व स्थापित निहंग दलों के नहीं हैं। निहंगों के दो प्रमुख दल हैं- बुड्ढा दल और तरुण दल। वे सब निहंग आचार संहिता का पालन करते हैं। लेकिन कुछ ऐसे तत्व भी हैं, जो नीला चोला धारण तो कर लेते हैं लेकिन आचार संहिता नहीं मानते और हिंसा फैलाते हैं। सिंघू बॉर्डर पर हुई घटना ऐसे ही तत्वों की है।

निहंगों की आचार संहिता में सुबह जल्दी उठना और नितनेम का पाठ करना है। इसमें गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी होती है। इसके अलावा सरब लौह ग्रंथ की वाणी का भी पाठ करते हैं। इस ग्रंथ में अच्छाई और बुराई के बीच लड़ाई का वर्णन है। वे बड़े चाव से गुरु गोविंद सिंह की ‘चंडी दी वर’ का भी पाठ करते हैं जिसमें देवी दुर्गा की अगुवाई में देवताओं और असुरों के बीच युद्ध का वर्णन है।

वे अपने घोड़ों और मवेशियों की देखभाल करने के साथ जत्थेदार के निर्देश पर सेवा भी करते हैं। वे धूम्रपान नहीं करते। मांस खाते हैं, लेकिन उसके लिए खुद पशु वध करते हैं। बाजार से मांस नहीं खरीदते। उनके सभी हथियार और बर्तन स्टील के होते हैं। त्यागी के अनुसार उनकी अपनी एक कूट भाषा भी है, जिसे दूसरे लोग नहीं समझते। उदाहरण के लिए ट्रेन को निहंग भूतनी और बीड़ी को खोटी कहते हैं।

कुछ लोग अपनी मर्जी से निहंग बनते हैं। कुछ माता-पिता अपने बच्चे को भेजते हैं। खासकर वे जो मन्नत मांगते हैं कि अगर उनके बच्चे हुए, तो एक को खालसा की सेवा में भेजेंगे। सिखों में एक लोकप्रिय कहावत है, “सवा लाख से एक लड़ाऊं।” यानी एक खालसा सवा लाख के बराबर होता है। निहंगों का बुड्ढा दल ‘96 करोड़ी’ कहलाता है। यानी एक सेना 96 करोड़ के बराबर होती है। बुड्ढा दल पटियाला, समाना और जीरकपुर में तीन स्कूल चलाता है जहां अंग्रेजी मीडियम में पढ़ाई होती है। निहंग दल प्राकृतिक आपदाओं के समय भी सेवाएं देते हैं।

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