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23 जनवरी 2023 · JAN 23 , 2023

स्टार किड्स की नई खेप/ नजरिया: परदे पर बेमानी रहा नेपोटिज्म

आज की तारीख में न तो कोई चेहरा सफलता की गारंटी रहा, न ही कोई बैनर
कुमार गौरव उदहरण हैं कि बॉलीवुड में प्रतिभा के बिना सफलता नहीं मिलती

एक सूप का वीडियो विज्ञापन आजकल हर जगह दिख रहा है, जिसमें करण जौहर काजोल से पूछते हैं, “सूप पियोगी?” काजोल व्यंग्य में कहती हैं, “स्टार किड्स के बिना बना लोगे?” करण पलट कर कहता है, “तुम भी तो स्टार किड हो न।” फिर काजोल के सामने सूप आता है, सूप के बारे में बताया जाता है और काजोल कहती हैं, “अब फिल्में भी ऐसी ही बना लेना, बगैर स्टार किड्स के” और दोनों ताली बजाते हुए हंसते हैं।

यह है बॉलीवुड। हम जब-जब नेपोटिज्म को भुलाने की कोशिश करते हैं, तब किसी न किसी रूप में हमें दिलाने की कोशिश होती है कि स्टार सिस्टम हिंदी सिनेमा के लिए अपरिहार्य है जबकि ऐसा है नहीं, इसे दर्शकों ने बार-बार स्पष्ट किया है। याद करें, करण जौहर ने ही अपने लंबे फिल्म करियर में कितने स्टार किड्स के साथ फिल्में बनाई हैं। आखिर कितनों को काजोल स्टार किड के रूप में याद हैं। लॉन्च तो देव आनंद साहब ने भी अपने बेटे को किया था, आज उसका नाम भी याद नहीं आता। सच तो यही है हम कलाकार को पसंद करते हैं, जबकि बॉलीवुड मनवाना चाहता है कि हम स्टार किड्स को पसंद करते हैं।

कंगना रनौत अक्सर आरोप लगाती रहती हैं कि बॉलीवुड में भाई भतीजावाद है

कंगना रनौत अक्सर आरोप लगाती रहती हैं कि बॉलीवुड में भाई भतीजावाद है

बचपन में चिढ़ाना हम लोगों का एक प्रिय शगल रहता था, जिसके लिए न जाने कितनी बार पिटते भी रहे। चिढ़ाना भी क्या होता था, कोई जिस काम से चिढे, वही काम उसके सामने बार-बार करना। कुछ समय पहले जब जोया अख्तर की फिल्म द आर्चीज की पहली झलक जारी हुई थी, तब भी ऐसा ही लगा था जैसे द आर्चीज हिंदी दर्शकों को चिढ़ाने के लिए बनाई गई है। कुछ वैसे ही जैसे एक अवॉर्ड शो में करण जौहर, वरुण धवन और सैफ अली खान ने नेपोटिज्म के सवाल पर कंगना का सार्वजनिक मजाक उड़ाते हुए बेशर्मी से अपनी सफलता का श्रेय नेपोटिज्म को दिया था। बाद में हालांकि उन लोगों ने माफी भी मांग ली थी। नेपोटिज्म बॉलीवुड के लिए कोई नई बात नहीं, फिल्म से जुड़े लोगों के बच्चों का फिल्म में आना कोई अस्वाभाविक भी नहीं, लेकिन जोया अख्तर के निर्देशन में एक ही फिल्म में जब 20 वर्ष की औसत उम्र वाले अमिताभ बच्चन के नाती अगस्त्य नंदा, शाहरुख खान की बेटी सुहाना खान और श्रीदेवी-बोनी कपूर की बेटी खुशी कपूर लॉन्च होते हैं तो यह उतना स्वभाविक भी नहीं लगता। लॉन्चिंग हमने ह्रितिक रोशन की भी देखी थी, किस तरह तैयारी के साथ वे आए थे। यहां तो स्पष्ट लगता है जैसे दर्शकों की समझ को चुनौती दी जा रही हो, हालांकि यह भी सच है कि सिनेमा जैसे विशेषज्ञ क्षेत्र में नेपोटिज्म कभी सफलता की गारंटी नहीं रहा और इसी के साथ यह भी सच है कि नेपोटिज्म कभी सफलता की राह में रुकावट भी नहीं बना। रोहित शेट्टी हिंदी सिनेमा में आज सफलता के पर्याय बने हैं, कितनों को उनके साथ उनके पिता स्टंटमैन शेट्टी की याद आती है?

पिता सदी के महानायक कहे जाते हैं लेकिन अभिषेक उस सफलता को छू भी नहीं पाए

पिता सदी के महानायक कहे जाते हैं लेकिन अभिषेक उस सफलता के आसपास भी नहीं पहुंचे 

हिंदी सिनेमा में नेपोटिज्म के सवाल पर चर्चा सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु के साथ शुरू हुई थी। हिंदी सिनेमा के कई बड़े नामों को उसकी मौत के लिए जवाबदेह बताया जा रहा था जिन्होंने सुशांत के करियर को रोकने की कोशिश की। टेलीविजन पर इन सवालों को लेकर कई दिनों तक बहस चलती रही कि उसे इंडस्ट्री में बाहरी होने के कारण संकट झेलना पड़ा, लेकिन समय के साथ बातें आई गई हो गईं। नेपोटिज्म को नए सिरे से कंगना रनौत ने उठाया। करण जौहर के एक टेलीविजन शो में सीधे करण को ही उन्होंने नेपोटिज्म का सबसे बड़ा अलंबरदार घोषित कर दिया। सवाल यह है कि वाकई बॉलीवुड नेपोटिज्म से ग्रस्त है तो कंगना, आज कंगना कैसे बनी हैं। धाकड़ की असफलता के बावजूद कंगना आज हिंदी सिनेमा की सबसे पावरफुल अभिनेत्रियों में एक मानी जा रही हैं, वे अभिनेताओं के बराबर मेहनताने की मांग कर रही हैं। फिल्म की डिजाइनिंग, स्क्रिप्टिंग में वे घोषित रूप से हस्तक्षेप करने की स्थिति में हैं, जिस स्थिति में दीपिका और कटरीना तक नहीं। कंगना इसलिए हस्तक्षेप की स्थिति में हैं क्योंकि उन्होंने अभिनय के साथ बाकायदा अमेरिका जाकर पटकथा लेखन की पढ़ाई की है। वे फिल्म निर्देशन और निर्माण के तत्वों को समझने की कोशिश कर रही हैं। हिंदी क्षेत्र हिमाचल से आने के कारण हिंदी समाज और हिंदी भाषा के प्रति उनकी एक खास समझ है, जिसका प्रभाव उनके लेखन,बातचीत और अभिनय में दिखता भी है।

ड्रीम गर्ल की बेटी ईशा देओल को असफलता के कारण छोड़ना पड़ा बॉलीवुड

ड्रीम गर्ल की बेटी ईशा देओल को असफलता के कारण छोड़ना पड़ा बॉलीवुड

सोनाक्षी सिन्हा तो शत्रुघ्न सिन्हा जैसे प्रभावशाली अभिनेता और नेता की बेटी हैं। सलमान खान जैसे पारस पत्थर माने जाने वाले अभिनेता ने उन्हें ब्रेक दिया। नेपोटिज्म सफलता की शर्त होती तो आज बॉलीवुड के केंद्र में कंगना रनौत नहीं, सोनाक्षी सिन्हा होतीं। कंगना ही क्यों, हिंदी सिनेमा की किस अभिनेत्री की सफलता का श्रेय नेपोटिज्म को दिया जा  सकता है- दीपिका पादुकोण, कटरीना कैफ, अनुष्का शर्मा? याद करें, तापसी पन्नू को पहला ब्रेक किस भूमिका के लिए मिला। आज वे कई महिलाप्रधान फिल्में कर रही हैं, कहां है नेपोटिज्म? राजेश खन्ना और डिंपल खन्ना, दो-दो सफल और कुशल कलाकारों की विरासत लेकर ट्विंकल खन्ना परदे पर आईं और चली गईं। हेमा मालिनी और धर्मेंद्र की पहचान के साथ ईशा देओल धूमधाम से आईं और चुपके से चली गईं। हिंदी सिनेमा आज इन्हें याद करने की भी जरूरत नहीं समझता। सुनील शेट्टी की बेटी आद्या (अथिया) शेट्टी का नाम आज कितने लोग याद करते हैं और कितनी फिल्में उसके पास हैं?

वास्तव में दर्शक जब पैसे खर्च कर सिनेमा देखने जा रहा होता है, तो वह कहानी देखने जा रहा होता है, जो उसकी संवेदनाओं को छूते हुए उसका मनोरंजन कर सके। उसे फर्क नहीं पड़ता कहानी किसके माध्यम से कही जा रही है। जो जितनी खूबसूरती से उस तक कहानी संप्रेषित कर दे, उसकी नजर में वही सितारा। आखिर कोई तो बात होगी कि पंजाब के एक छोटे से शहर से निकला जतिन खन्ना, हिंदी सिनेमा का राजेश खन्ना बन कर लोकप्रियता की तमाम सीमाएं तोड़ देता है। अपने जमाने के जुबली कुमार के रूप में जाने गए राजेंद्र कुमार अपने बेटे कुमार गौरव को लॉन्च करने के लिए जी जान लगा देते हैं, पहली फिल्म लव स्टोरी बड़ी हिट भी होती है, लेकिन दो फिल्मों के बाद कुमार गौरव हाशिये से भी बाहर हो जाते हैं। वास्तव में नेपोटिज्म के बल पर मौके आपको ज्यादा मिल सकते हैं, लेकिन सफलता तय करने का अधिकार जिसके हाथ में है उसके लिए इसका कोई मतलब नहीं।

नेपोटिज्म की बात करें तो अमिताभ बच्चन से बेहतर उदाहरण नहीं मिल सकता। शुरुआती दिनों में सिनेमा के सभी दरवाजों से दुत्कारे जाने के बाद लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास ने अपनी फिल्म सात हिन्दुस्तानी में इस कविपुत्र को छोटी सी भूमिका सौंपी। आज जो अमिताभ दिखते हैं वह कोई कविपुत्र होने के कारण नहीं, यह उनका दशकों का श्रम और समर्पण है। यदि वाकई हिंदी सिनेमा में नेपोटिज्म प्रभावी होता तो अपने बेटे अभिषेक बच्चन को सफल अभिनेताओं की पंक्ति में खड़ा करने में उन्हें कितनी देर लगती? आज भी अमिताभ बच्चन को लीड भूमिकाएं मिल रही हैं, अभिषेक को अव्वल तो भूमिकाएं मिल ही नहीं रहीं। मिल भी रही हैं तो ओटीटी के लिए बन रही दसवीं जैसी फिल्म में। और आश्चर्य कि वहां भी ये क्रेज नहीं बना पा रहे। वास्तव में सिनेमा ऐसा माध्यम है जहां पूंजी किसी की भी हो, वापसी की कुंजी आम दर्शकों के हाथ में होती है। संबंधों के आधार पर कोई एक बार पूंजी लगा सकता है,पर आगे का तय दर्शक ही करते हैं।

अगर नेपोटिज्म होता, तो बॉबी देओल और ट्विंकल खन्ना सबसे बड़े स्टार होते

अगर नेपोटिज्म होता, तो बॉबी देओल और ट्विंकल खन्ना सबसे बड़े स्टार होते

वरुण धवन खुश हो सकते हैं कि वे अपने समय के सफल निर्देशक डेविड धवन के बेटे हैं। पिता का नाम लेना अच्छी बात है, लेकिन क्या उन्हें अभी तक इस बात का विश्वास नहीं कि उनकी सफलता की वजह डेविड धवन का बेटा होना नहीं है? पिता के ही नाम से सफलता मिलती तो हैरी बावेजा के बेटे हरमन बावेजा को 38 साल की उम्र में इंडस्ट्री छोड़नी नहीं पड़ती जबकि प्रियंका चोपड़ा, आशुतोष गोवारिकर जैसे बड़े नामों का साथ उसे मिला। वरुण सफल हैं तो इसलिए कि इस दौर के तमाम नायकों से अलग वे अपनी पहचान बनाने की कोशिश में लगे हैं। उन्हें भेडि़या जैसी फिल्म करने में घबराहट नहीं होती। नेपोटिज्म पर तुषार कपूर से बड़ा सवाल और कौन होगा, जो अपने समय के सफल अभिनेता जीतेंद्र के बेटे और आज की सफल निर्मात्री एकता कपूर के भाई होने के बवजूद कभी भी सफलता का मुंह नहीं देख सके। कुछ पहचान मिली भी तो अश्लील फिल्मों के द्विअर्थी संवाद वाली भूमिकाओं से। आखिर क्यों एकता कपूर फिल्मों के लिए नए अभिनेताओं पर तो भरोसा कर लेती हैं, लेकिन तुषार कपूर पर नहीं कर पाती हैं? बॉलीवुड में नेपोटिज्म की बातें सही हैं तो एकता कपूर की सभी फिल्मों में तुषार कपूर को नायक होना चाहिए।

संजय लीला भंसाली की फिल्में बिरले ही फ्लाप होती हैं। इसमें एक है सांवरिया। इस फिल्म में उन्होंने ऋषि कपूर के बेटे रणबीर कपूर और अनिल कपूर की बेटी सोनम कपूर को लॉन्च किया था, हालांकि बाद के दिनों में रणबीर कपूर और सोनम दोनों ही सफल रहे, लेकिन इस फिल्म को दर्शकों ने तवज्जो नहीं दी। यदि वाकई नेपोटिज्म का कुछ प्रभाव सिनेमा पर है तो दोनों सितारों की पहली ही फिल्म को सफल करना चाहिए, लेकिन सच यही है कि दोनों को दर्शकों ने तब तक तवज्जो नहीं दी जब तक दोनों अपनी स्वतंत्र पहचान और क्षमता दिखाने में सफल नहीं हुए।

बात नेपोटिज्म की है तो सवाल आमिर खान और सलमान खान पर भी होनी चाहिए। आमिर खान अपने समय के मशहूर निर्देशक ताहिर हुसैन के बेटे हैं, जिन्होंने कारवां जैसी एक से एक हिट फिल्में दीं। क्या दंगल, जिसने चीन और जापान तक में सफलता का रिकॉर्ड बनाया, उसकी वजह आमिर खान का ताहिर हुसैन का बेटा होना है? सलीम खान होंगे अपने समय के मशहूर पटकथा लेखक, लेकिन सलमान ने सफलता का जो सफर तय किया वह कभी सलीम खान से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता।

कंगना रनौत ह्रितिक रोशन के बारे में कहती हैं कि उसके पास अपना क्या है, उसके पिता राकेश रोशन के पास पैसे हैं, फिल्म बना देते हैं, हिट हो जाती है। वास्तव में ह्रितिक की सफलता में उसके श्रम और समर्पण को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, जिसने पहली ही फिल्म में उसे लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचा दिया था। यदि फिल्म बना भर लेना हिट होने की शर्त होती तो कोई भी अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र या हैरी बावेजा अपने बेटे को सुपरस्टार बनाने से नहीं चूकता।

उल्लेखनीय है कि समय के साथ पहले मल्टीप्लेक्स और फिर अब ओटीटी ने सिनेमा देखने की आदत में जिस तरह का बदलाव किया है, दर्शकों के सामने चयन के विकल्प ज्यादा और सहज हो गए हैं। उनकी उंगली की एक जुम्बिश पर दुनिया की तमाम फिल्में एक साथ उपलब्ध हैं, फिर वे क्यों किसी के नाती और किसी की बेटी की फिल्म की प्रतीक्षा करें।

इस वर्ष ओटीटी पर सबसे अधिक यदि किसी कंटेंट की चर्चा थी तो वह थी पंचायत का दूसरा सीजन। बुजुर्ग पात्र के रूप में रघुवीर यादव और नीना गुप्ता के अलावा सारे चेहरे अतिसामान्य थे, आश्चर्य नहीं कि दर्शकों से और भी अधिक सहजता से ये कनेक्ट हो सके। वास्तव में चेहरे जब अनजान होते हैं तो पात्र अधिक करीब हो जाते हैं। आश्चर्य नहीं कि साउथ के हिंदी में अपरिचित चेहरे की पुष्पा, कार्तिकेय 2 और कांतार जैसी फिल्म सुपरहिट हो जाती है और जाने-पहचाने प्रभाष की राधेश्याम एकदम पीछे छूट जाती है।

राजेन्द्र कुमार जुबली कुमार थे और बेटा कुमार गौरव सिर्फ एक हिट देकर गुमनामी में चला गया

राजेन्द्र कुमार जुबली कुमार थे और बेटा कुमार गौरव सिर्फ एक हिट देकर गुमनामी में चला गया

वास्तव में हिंदी सिनेमा से चेहरे की अहमियत अब लगभग समाप्त हो गई है। ऐसे में स्थापित चेहरों की संतानों के चेहरे में दर्शक कितनी रुचि दिखाएंगे, कहना कठिन हो, पर समझना कठिन नहीं है।

2022 की ही बात करें तो भरपूर बोल्डनेस के साथ आई दीपिका पादुकोण की गहराइयां से लेकर अमिताभ बच्चन की झुंड और फिर अजय देवगन के साथ आई रनवे 34 दर्शकों को सिनेमाघर ही नहीं ओटीटी पर भी आमंत्रित नहीं कर सकी। अनिल कपूर बेटे हर्षवर्धन कपूर के साथ थार में आए, फिल्म का पता तक नहीं चला। आमिर खान की लाल सिंह चड्ढा और अक्षय कुमार की बच्चन पांडे को भी दर्शकों ने तवज्जो नहीं दी।

आज की तारीख में न तो कोई चेहरा सफलता की गारंटी रहा, न ही कोई बैनर। आखिर दक्षिण भारतीय भाषाओं की फिल्मों के बीच में द कश्मीर फाइल्स ने इतिहास क्यों रचा? इसलिए क्योंकि दर्शकों से वह कनेक्ट हो पाई। कभी रहा होगा समय जब हिंदी दर्शक अपने सितारों से कनेक्ट होते होंगे, अब वे सिर्फ और सिर्फ कहानी से कनेक्ट हो रहे हैं। ऐसे में नेपोटिज्म की कोई भी कोशिश बेमानी ही मानी जाएगी।

इस साल आने वाली द आर्चीज जैसी फिल्म शायद सफल भी हो जाए, लेकिन इसका श्रेय तयशुदा रूप से अमिताभ बच्चन के नाती और शाहरुख खान या श्रीदेवी की बेटी के इसमें होने को नहीं दिया जा सकता। वैसे ही, जैसे कपूर परिवार की सफलता का श्रेय पृथ्वीराज कपूर को देने की जरूरत नहीं समझी गई।

(लेखक राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं)

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