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सार्वजनिक स्वास्थ्य में निवेश बढ़ाने की जरूरत

2021 में हमारा फोकस संक्रामक रोगों पर होना चाहिए, टीबी को खत्म करना सामाजिक आंदोलन बने
डॉ. हर्षवर्धन

दुनिया कोविड-19 वैश्विक महामारी की चपेट में है। तमाम देशों की सरकारों की प्राथमिकता में मानव जीवन बचाने से ऊपर कुछ भी नहीं। बीते 10 महीने चक्रवाती तूफान की तरह गुजरे हैं। इस दौरान हमने इस बात की भरसक कोशिश की कि लोग कोविड-19 के मद्देनजर अपने व्यवहार में जरूरी सावधानियां बरतें, क्योंकि इस जानलेवा वायरस से होने वाली बीमारी की रोकथाम का यही सर्वोत्तम तरीका है। ऐसा नहीं कि लोगों को इसका एहसास नहीं है कि कोविड-19 की रोकथाम के लिए कोई जादुई तरीका नहीं है। हम सब यह जानते हैं कि इस बीमारी की रोकथाम के लिए जो भी नए तरीके अपनाए जा रहे हैं, वे 100 फीसदी प्रभावी नहीं हैं। इन उपायों को रोकथाम के पुराने तरीकों के साथ मिलाकर इस्तेमाल करने की जरूरत है। रोकथाम भी अलग-अलग स्तर पर होना है। पहला तरीका कम से कम संपर्क में आना, दूसरा समय रहते पहचान और तीसरा, बीमारी के कारण होने वाली शारीरिक अक्षमता को सीमित करना है।

श्वास के जरिए फैलने वाले कई वायरस की तरह नोवेल कोरोनावायरस भी संक्रमित व्यक्ति के खांसने, छींकने या बोलने पर उसके नाक और मुंह से निकलने वाले जल-कणों के जरिए फैलता है। ये कण लोगों के शरीर, उनके कपड़े या किसी भी चीज की सतह पर जम सकते हैं। इस तरह वायरस का संक्रमण रोकने के लिए बार-बार हाथ धोना और शारीरिक दूरी बनाए रखना जैसे उपाय जरूरी हैं। ऐसे अनेक तरीके मौजूद हैं जिन्हें अपनाने से वायरस के फैलने की रफ्तार कम हो सकती है। इसमें सरकारों, बिजनेस जगत, मीडिया और समुदायों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण हो जाती है।

अभी तक इस बीमारी का कोई इलाज उपलब्ध न होने के कारण विश्व ‘सोशल वैक्सीन’ का ही इस्तेमाल कर रहा है। सोशल वैक्सीन रोकथाम का प्राथमिक तरीका है, जिसमें लोगों को शिक्षित करना और इससे जुड़ी जानकारी देना शामिल हैं। सोशल वैक्सीन को सामाजिक व्यावहारिक उपाय भी कह सकते हैं जो महामारी के बारे में समाज के भीतर जागरूकता पैदा करने के लिए जरूरी है। सामाजिक व्यावहारिक उपायों में फेस मास्क पहनना, साफ-सफाई रखना, दो लोगों के बीच पर्याप्त दूरी बनाए रखना, खांसते-छींकते-बोलते वक्त नाक और मुंह को ढंक कर रखना तथा बार-बार हाथ धोना शामिल हैं। भारत जैसे विकासशील और घनी आबादी वाले देशों में संक्रामक रोगों को नियंत्रित करने के लिए सामाजिक वैक्सीन की स्वीकार्यता निरंतर बढ़ रही है। कोविड की बढ़ती रफ्तार को रोकने के प्रभावी उपाय के तौर पर इस सामाजिक वैक्सीन का पालन करना हम सबके लिए अत्यंत आवश्यक है।

संक्रामक रोगों के फैलने से रोकने के लिए ज्यादा से ज्यादा लोगों को टीका लगाकर उनमें प्रतिरोधक क्षमता विकसित करना (हर्ड इम्युनिटी) सफल रणनीति रही है। इस मामले में भी सरकार जेट गति से काम कर रही है। जिनके शरीर में प्रतिरोधक क्षमता कम है या जो दुर्बल हैं, उन्हें वैक्सीन देकर बचाया जा सकता है।

बीते एक वर्ष के दौरान हमें कई बातें पहली बार देखने को मिलीं। वैक्सीन के लिए रिसर्च और विकास कार्य जितनी तेजी से हुए, वैसा पहले कभी नहीं देखा गया। दुनिया भर में 50 वैक्सीन क्लिनिकल रिसर्च के चरण में हैं। इनमें से 25 का एडवांस ट्रायल चल रहा है। भारत में करीब 30 वैक्सीन अलग-अलग चरणों में हैं। इनमें से पांच का क्लिनिकल ट्रायल चल रहा है। चार वैक्सीन तो दूसरे और तीसरे चरण के ट्रायल में हैं। इनमें भी दो वैक्सीन काफी एडवांस चरण में पहुंच चुके हैं। इनमें आइसीएमआर और भारत बाॅयोटेक के साझा सहयोग से बनने वाली कोवैक्सीन और सीरम इंस्टीट्यूट आफ इंडिया में बन रही कोवीशील्ड शामिल हैं। दोनों वैक्सीन अभी क्लिनिकल ट्रायल के तीसरे चरण में हैं।

भारत वैक्सीन तैयार करने के प्रयासों में ही अग्रणी नहीं, बल्कि यह वैक्सीन मैन्युफैक्चरिंग का भी हब है। यहां 19 कंपनियों के 24 मैन्युफैक्चरिंग प्लांट हैं। 60 फीसदी वैक्सीन विकासशील देशों को सप्लाई की जाती है। हम 140 से ज्यादा देशों को वैक्सीन के 145 करोड़ डोज की सप्लाई करते हैं। हमने रोटावायरस, जापानी इनसेफलाइटिस और टायफाइड की वैक्सीन भी विकसित की है। संक्रमण रोकने के लिए भारत में दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण कार्यक्रम पहले ही चल रहा है। हम हर साल 10 करोड़ से अधिक बच्चों को 65 करोड़ डोज देते हैं। वैक्सीन वितरण का भी हमारे पास अच्छा-खासा अनुभव है, जिसका इस्तेमाल हम कोविड-19 की वैक्सीन में करेंगे। हमारे पास 27 हजार से अधिक वैक्सीन स्टोरेज पॉइंट हैं, जिनके दायरे में देश के 95 फीसदी तहसील आ जाएंगी। हम इस इन्फ्रास्ट्रक्चर को पहले ही बढ़ाने के साथ और बेहतर कर रहे हैं। हमने ‘को-विन डिजिटल प्लेटफॉर्म’ तैयार किया है, जिस पर स्वास्थ्यकर्मियों, वैक्सीन के स्टॉक, उसके आॅर्डर, जिन लोगों को वैक्सीन लगी उनकी ट्रैकिंग आदि का रियल टाइम डाटा उपलब्ध होगा। कोविड वैक्सीन विकसित करने का काम भी फास्ट ट्रैक आधार पर किया जा रहा है।

संक्रामक रोगों का फैलना मानव व्यवहार से जुड़ा है, इसलिए संक्रमण को रोकने और वायरस पर काबू पाने का प्रभावी मॉडल बनाने में व्यवहार विज्ञान का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। लोग अक्सर किसी खतरे की गंभीरता को तो समझ लेते हैं लेकिन दुर्भाग्यवश उसके असर को कमतर आंकते हैं। हर व्यक्ति को समझना पड़ेगा कि वह जो भी कर रहा है उसका असर दूसरों पर होगा। इसलिए हर व्यक्ति का योगदान महत्वपूर्ण है। संकट के समय यह भी जरूरी है कि इस संदेश को प्रासंगिक तरीके से, ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ निरंतर लोगों तक पहुंचाया जाए। तब कोविड से जुड़ी बातें सबको स्वीकार्य होंगी।

हाल के महीनों में मैंने कई बार यह बात कही कि इस वैश्विक महामारी की वजह से एक आशा की किरण भी दिखाई दी है। इसने हमें कमर कसने और सार्वजनिक स्वास्थ्य में ज्यादा से ज्यादा संसाधनों को लगाने, साफ-सफाई के प्रति लोगों को और जागरूक करने, चिकित्सा उपकरणों के मामले में आत्मनिर्भर बनने की दिशा में कदम उठाने के लिए बाध्य किया है। इसने हमें अपना व्यवहार बदलने के लिए भी विवश किया है, जिससे आगे चलकर हमें न सिर्फ कोविड-19, बल्कि दूसरे संक्रामक रोगों को फैलने से रोकने में भी मदद मिलेगी।

अभी तक टीबी नियंत्रण पर लोगों का उतना ध्यान नहीं गया है जितना जाना चाहिए, खासकर भारत जैसे उन देशों में जहां इससे पीड़ित लोगों की संख्या काफी है। कोविड-19 ने दिखाया कि हेल्थ केयर सिस्टम में स्वास्थ्यकर्मियों को सुरक्षित रखने के उपाय तलाशे जा सकते हैं और लोग न सिर्फ अपने लिए, बल्कि दूसरों के लिए भी जोखिम कम करने के मकसद से अपना व्यवहार बदल सकते हैं। स्वास्थ्यकर्मियों के नियमित रूप से पर्सनल प्रोटेक्शन इक्विपमेंट (पीपीई) इस्तेमाल करने, आम लोगों के व्यापक स्तर पर फेस मास्क प्रयोग करने, हवा के जरिए संक्रमण फैलने की दिशा में एडवांस रिसर्च से कोविड-19 के साथ-साथ टीबी की रोकथाम में भी मदद मिलेगी। फेस मास्क इस्तेमाल करने को लेकर लोगों में हिचक दूर हुई है और वे इस बात को स्वीकार करने लगे हैं कि श्वास संबंधी संक्रमण से कोई भी पीड़ित हो सकता है।

इस महामारी के कारण विश्व स्तर पर कई गठजोड़ और साझेदारी हुई हैं, नई दवाएं विकसित करने के लिए फंड इकट्ठा किया गया है, पेटेंट अधिकार साझा किए गए हैं। निकट भविष्य में हम टीबी के लिए भी इस तरह की साझेदारी की योजना बना रहे हैं। कोविड-19 के मामले में हमने देखा कि विश्व स्तर पर उपजी चिंता के कारण प्रौद्योगिकी के गठजोड़ में तेजी आई है और वैश्विक स्तर पर एकजुटता भी देखने को मिली है। ओपन साइंस, ओपन डाटा और रिसर्च तक सबकी पहुंच और प्रौद्योगिकी का साझा इस्तेमाल, यह सब इतनी तेजी से हुआ जैसा पहले कभी नहीं हुआ था। भारत टीबी और स्वास्थ्य संबंधी अन्य खतरों के लिए भी यही विजन अपनाना चाहता है।

कोविड के कारण एक बात साबित हुई कि हमें एक सुदृढ़, साझा और चुस्त डिजिटल हेल्थकेयर इन्फ्रास्ट्रक्चर की जरूरत है। भले ही इस वायरस का प्रकोप आने वाले दिनों में कम हो जाए, लेकिन इससे स्वास्थ्य जगत अपने प्रयासों को कम नहीं कर सकता। स्वास्थ्य के लिए सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश कई गुना बढ़ाने की जरूरत है। मैं फिर यह बात कहना चाहूंगा कि 2021 में हमारा फोकस संक्रामक रोगों पर होना चाहिए, खासकर टीबी को खत्म करना एक सामाजिक आंदोलन बनाना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देशवासियों से कोविड से जुड़े व्यवहार को जन आंदोलन में बदलने का आग्रह किया है। मैं इसमें एक और बात जोड़ना चाहूंगा कि जब हम कोविड से लड़ने के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार कर रहे हैं और राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखा रहे हैं, तब हमें इस इन्फ्रास्ट्रक्चर का इस्तेमाल टीबी से लड़ने में भी करना चाहिए। आखिरकार स्वास्थ्य हम सबका मौलिक अधिकार है।

इस संकट से उपजी आशा की एक और किरण है। 21वीं सदी में जीवन की तेज गति ने हमें अपने परिवार और दोस्तों से दूर कर दिया। ऐसे में मुझे अक्सर गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की पंक्तियां याद आती हैं, “एक बार हमने स्वप्न देखा था कि हम अपरिचित हैं, लेकिन नींद खुली तो पाया कि हम एक-दूसरे के कितने करीब हैं।”

(लेखक केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री हैं)

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