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ग्लोबल से पहले लोकल जरूरी

दूसरे देशों के साथ होने वाले कृषि समझौतों से पहले सरकार किसानों से बात नहीं करती, वह इनको गोपनीय बनाकर रखती है
धरती कथा

आजकल आरसीईपी यानी रीजनल कांप्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप को लेकर काफी चर्चा है। हाल में गांव की एक पंचायत में एक किसान संगठन इस मसले पर लोगों को जागरूक करने के लिए बैठक भी करता दिखा। देश में कई स्वयंसेवी संगठन इस पर बात कर रहे हैं। कृषि उत्पादों से जुड़े कॉरपोरेट और को-ऑपरेटिव भी इस पर चर्चा कर रहे हैं। किसानों के हितों की चिंता करने वाले संगठनों के ग्लोबल होने का यह बड़ा प्रमाण है। दरअसल, सरकार चाहती है कि दूसरे देशों के साथ कारोबार बढ़े, हमारे उत्पादों को बड़ा बाजार मिले और इससे हमारी अर्थव्यवस्था को फायदा होगा। लेकिन यह बात भी सच है कि जिन देशों के साथ आप यह पार्टनरशिप करने जा रहे हैं वह भी यही चाहते हैं। यानी यह बिलकुल शेयर बाजार जैसा मसला है, जहां हर कोई पैसा कमाने के लिए इन्‍वेस्ट करता है। लेकिन जब तक कोई गंवाएगा नहीं तो दूसरा कमाएगा कैसे। वहां तो कोई उत्पादन होता नहीं, केवल वित्तीय लेन-देन होते हैं। इसलिए आरसीईपी में भी सभी को तो फायदा होना नहीं है।

अब बात करते हैं किसानों के तथाकथित संगठनों की। इनमें से कुछ जिस तरह से सक्रिय हैं, उससे लगता है कि उन्होंने किसानों की स्थानीय समस्याओं का हल करा लिया है। मसलन, गन्ना किसानों के इलाके के संगठन डेयरी सेक्टर पर असर को लेकर काफी चिंतित हैं, जबकि उनके राज्य में गन्ना किसानों का चार हजार करोड़ रुपये से अधिक का भुगतान चीनी मिलों पर बकाया है और नया पेराई सीजन शुरू हो चुका है। दूसरे, डेयरी क्षेत्र में दूध किसानों को मिलने वाली कीमत देश के कई हिस्सों के मुकाबले काफी कम है। ऐसे में, इन संगठनों का आरसीईपी पर सक्रिय होना बताता है कि आप स्थानीय मसलों को छोड़कर आगे जा चुके हैं।

सरकार की बात भी कुछ ऐसी ही है। अमेरिका के साथ जब व्यापार पर चर्चा होती है, तो वह कैलिफोर्निया बादाम पर भारत से छूट मांगता है। वह भारत को बड़े पैमाने पर अमेरिकी सेब का निर्यात करता है। इन दोनों के लिए उसके अपने संगठन यहां काफी सक्रिय हैं। इसी तरह मलेशिया से जब पाम ऑयल का आयात बढ़ना शुरू हुआ तो उन्होंने यहां अच्छी खासी लॉबिंग की। उसके पीछे-पीछे सोयाबीन तेल के लिए अमेरिका और दक्षिण अमेरिकी देश भी सक्रिय हुए। नतीजा, हमारे तिलहन किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य भी ठीक से नहीं मिलता लेकिन हम आयातित तेल का खूब उपयोग करते हैं। दालों पर लंबे समय तक सीमा शुल्क शून्य रहा। हमने बड़े पैमाने पर दालों का आयात किया। अब भले ही आयात कुछ कम हुआ हो, लेकिन जारी है। दाम बढ़ने पर खाद्य तेलों पर भी सीमा शुल्क में भारी कटौती की जाती रही है। लेकिन हमारी सरकार भारतीय कृषि उत्पादों के लिए द्विपक्षीय और बहुपक्षीय समझौतों में इस तरह से बातचीत नहीं करती है। साथ ही, इन समझौतों के लिए किसान संगठनों या किसानों से सीधे चर्चा भी नहीं होती है। अब तो टेक्नोलॉजी और इंटरनेट का जमाना है, ऐसे में क्यों नहीं इस तरह के समझौते किसानों की राय के लिए वेबसाइट पर डाले जाते हैं? सरकारें इनको टॉप सीक्रेट की तरह रखती हैं, जबकि जरूरत पारदर्शिता की है। वैसे, डब्‍ल्यूटीओ में भी हमने बहुत सारी गलतियां की हैं, खासतौर से कृषि सब्सिडी और मार्केट पहुंच की सुविधा के मामले में।

बात केवल इन समझौतों की नहीं, बल्कि सरकार की सोच और नीतियों की भी है। यहां कृषि उत्पादों के अंतरराष्ट्रीय व्यापार के मामले में दीर्घकालिक नीति या तो होती नहीं, या फिर उस पर घरेलू बाजार की कीमतें हावी रहती हैं। घरेलू बाजार में किसी उत्पाद की कीमतें बढ़ी नहीं कि सरकार तुरंत उसके निर्यात को रोकने के लिए तत्पर हो जाती है। जब बाकी कदम नाकाम हो जाते हैं तो निर्यात पर सीधे प्रतिबंध ही लगा दिया जाता है। यह बात गेहूं, चावल, चीनी, दालें, खाद्य तेल, कपास और प्याज से लेकर तमाम उत्पादों के मामले में सही साबित होती रहती है। अब ऐसे फैसलों पर बहुत हंगामा भी नहीं होता है। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के ऐन बीच में प्याज निर्यात पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय यह साबित करने के लिए काफी है कि सरकार के फैसलों पर किसानों का कोई दबाव नहीं है। इसलिए सरकारी बाबुओं और मंत्रियों को आरसीईपी में जो सही लगेगा, वही करेंगे। किसान संगठनों की पंचायतों का उनके ऊपर कोई असर नहीं होता है। बेहतर होगा कि वे अपने स्थानीय मसलों को हल करने के लिए ज्यादा ऊर्जा खपाएं, न कि आरसीईपी जैसे हाइ-प्रोफाइल मुद्दों पर।

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