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लक्ष्मण रेखा लांघने का वक्त

मुसलमानों का धर्मनिरपेक्ष पार्टियों से भरोसा उठा, अब उन्हें खुद का राजनैतिक संगठन खड़ा करना चाहिए
एकजुटताः अल्पसंख्यक समुदाय संगठित होकर ही आज के माहौल से लड़ पाएगा

फरवरी के आखिरी हफ्ते में उत्तर-पूर्वी दिल्ली के सांप्रदायिक दंगों में मुसलमानों को जान-माल के भारी नुकसान के साथ लगभग सभी राजनैतिक दलों की जैसी बेरुखी झेलनी पड़ी, उससे एक स्वाभाविक नतीजा तो यह निकलता है कि भारत में मुसलमानों के पास अपनी राजनैतिक गोलबंदी ही एकमात्र विकल्प बचा है। अभी तक उनके आजमाए सारे विकल्प निहायत ही बेमानी साबित हुए हैं। अपने ही समुदाय के लोगों की राजनैतिक गोलबंदी हमलावर भीड़ से कारगर बचाव के उन्हें शायद बेहतर मौके मुहैया करा पाती। संकट की इस घड़ी में उनकी बात उठाने और नेतृत्व करने के लिए दिल्ली में मुस्लिम समुदाय का एक भी जाना-पहचाना नेता नहीं है, यह इस बात का सबूत है कि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों पर निर्भरता और उनका शोषण भी, अब और झेल पाना संभव नहीं रहा।

 

वजहें हैं चार

चार वजहें हैं कि क्यों भारतीय मुसलमानों को अपने समुदाय के अधिकांश लोगों को एक राजनैतिक छतरी के तले गोलबंद करने के बारे में गंभीरता से सोचना होगा? एक, आज के हालात में भारत में किसी मुसलमान की हैसियत उसके पक्के समर्थक गैर-मुसलमान धर्मनिरपेक्ष लोगों से भी एकदम अलग है। दिल्ली हिंसा के दौरान योगेंद्र यादव और निधि राजदान के ट्वीट उनकी स्थिति में फर्क को दर्शाते हैं। दोनों ही अमेरिकी राष्ट्रपति के दौरे के समय भारत की छवि बिगड़ने को लेकर चिंतित थे। इसमें दो राय नहीं कि भारत में बहुलतावाद के प्रति उनकी प्रतिबद्धता संदेह से परे है, लेकिन उनकी सामाजिक स्थिति उन्हें देश की छवि को लेकर चिंतित होने की सुविधा मुहैया कराती है। इसके विपरीत कोई मुसलमान सिर्फ जिंदगी की दुआ ही मांग सकता था क्योंकि कत्लेआम के हालात ने उसकी और उसके परिवार की जान और उसकी जायदाद सब खतरे में डाल दी थी। फिर, सीएए, एनआरसी और एनपीआर उसकी नागरिकता पर ही सीधा खतरा पेश कर रहे हैं। ऐसे में मुसलमान अपना दरवाजा खोलकर बड़े धीर-गंभीर लहजे में हत्यारी भीड़ से यह तो नहीं कह सकते थे, ‘‘दोस्तों, अमेरिकी राष्ट्रपति अभी दौरे पर हैं। अगर आप हमें मारोगे औरे घरों को जलाओगे तो देश की छवि खराब होगी। कुछ दिन बाद आना।’’

दूसरे, आजादी के बाद से ही सेक्युलर पार्टियों ने भारतीय मुसलमानों की अपने ऊपर निर्भरता का खूब फायदा लिया। लेकिन उन्हें दंगों के समय बचाने और उनकी दशा सुधारने के लिए कुछ नहीं किया। किसी भी सेक्युलर पार्टी के शीर्ष नेता के पास इतना साहस नहीं है कि वह दंगों के बीच आकर खड़ा हो जाए और पीडि़तों की मदद करे। इसकी मुख्य वजह है कि उन्हें हिंदू वोट कटने का भय रहता है। शायद उनका यह मानना है कि बहुसंख्यक हिंदू संघ परिवार के इस दुष्प्रचार को सही मानता है कि हिंदुओं का उत्पीड़न हुआ है। अगर दिल्ली में मुस्लिम समुदाय का मजबूत राजनैतिक नेतृत्व होता तो संकट के समय आगे आने की जिम्मेदारी से बच नहीं पाता। मुसलमानों के राजनैतिक रूप से एकजुट होने से मुस्लिम नेतृत्व उभरने के अलावा उन कट्टरपंथी तत्वों पर भी अंकुश लगेगा, जो अपने आसपास के इलाकों में जाकर निर्दोष हिंदुओं पर हमले करते हैं।

तीसरे, हमारा राजनैतिक इतिहास गवाह है कि समाज के कमजोर समुदायों ने राजनैतिक ताकत और कुछ आत्मविश्वास का एहसास तभी किया, जब वे राजनैतिक रूप से संगठित हुए। सपा, बसपा, राजद और आइयूएमएल ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं। चौथे, मुसलमानों का सही सोच वाला सामाजिक और राजनैतिक नेतृत्व संभावित कट्टरता और बहकावे से बचाने के लिए वाजिब विकल्प होगा। देश के राजनैतिक हालात मुस्लिम समाज के इस कदर पूरी तरह खिलाफ हो चुके हैं कि संकट की इस आग में हाथ सेंकने को तत्पर कट्टरपंथी तत्वों को अपना काम बेहद आसान लगेगा। हम बड़े गर्व से कहते हैं कि देश के 20 करोड़ मुसलमानों में से महज कुछ सैकड़ा ही वैश्विक जेहादी संगठनों की ओर आकर्षित हुए्र लेकिन यह जल्दी ही बीते दिनों की बात हो जा सकती है। भारतीय मुसलमानों ने जेहादी संगठनों के दुस्साहस में कभी दिलचस्पी नहीं दिखाई क्योंकि संविधान में प्रदत्त समान नागरिकता का अधिकार उन्हें आश्वस्त करता रहा है, भले ही असलियत में समान व्यवहार दूर की कौड़ी हो। लेकिन अब वे महसूस कर रहे हैं कि उन्हें एक ओर तो साथियों से धोखा मिला और नागरिकता छिनने, यहां तक कि हत्या और कत्लेआम का वास्तविक डर बड़े पैमाने पर मोहभंग पैदा कर रहा है। 

मुसलमानों का देश की सभी संस्थाओं सरकार, पुलिस, न्यायपालिका, मीडिया, सिविल सोसायटी और राजनैतिक पार्टियों से भरोसा उठ चुका है। उन्हें पता है कि उनके खिलाफ नफरत हिंदुओं में जंगल की आग की तरह फैल रही है। उन्हें यह भी मालूम है कि नफरत फैलाने वालों में सत्ता में शीर्ष पदों पर बैठे लोग शामिल हैं, जो मुसलमानों का वजूद अपने ही देश में नारकीय बनाने के मकसद से बड़े करीने से नए कानूनों और नीतियों पर काम कर रहे हैं। ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियां कट्टरता और उग्र प्रवृत्तियों की जड़ें जमाती हैं। ऐसे में, मुस्लिम समुदाय में कोई मजबूत नैतिकता आग्रहों और संविधान के मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध सामाजिक-राजनैतिक नेतृत्व नहीं उभरता, तो नेतृत्व के मौजूदा खालीपन को उतावले कट्टरपंथी और सनकी भाषण-वीर भरने की कोशिश करेंगे।

 

नई मुस्लिम राजनीति का स्वरूप

नई मुस्लिम राजनीति समग्र रूप में गांधीवादी होनी चाहिए, जिसमें समुदाय के भीतर और बाहर विविधता स्वीकार्य हो, हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए प्रतिबद्धता हो और अहिंसा की पक्षधरता हो। उसे न सिर्फ खुला होना चाहिए, बल्कि संगठन और नेतृत्व में तमाम पंथों, नास्तिकों, सुन्नी, शिया, एलजीबीटीक्यू समुदायों और स्वतंत्र विचारकों को शामिल करके विविधता लाने के प्रति सक्रिय पहल दिखनी चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें तो मुसलमानों की तरह हिंदुत्ववादी ताकतों के निशाने पर आने की संभावना वाले सभी को समान स्थान मिलना चाहिए। दूसरे, महिलाओं को राजनैतिक संगठन और उसके संचालन में अगली कतार में होना चाहिए। इतिहास गवाह है कि पुरुष प्रधानता की सोच में पगे आदमी हमेशा ही अपने क्षुद्र स्वार्थों के आगे महान साझा मकसदों को पीछे धकेलते रहे हैं। शाहीन बाग ने दिखा दिया कि औरतों के नेतृत्व में कोई आंदोलन अपने स्वरूप में एकदम अनोखा हो सकता है, हिंसा से अछूता रह सकता है और मकसद के प्रति अडिग रहता है। मुस्लिम औरतों का कमान हाथ में लेने के लिए बाहर निकलना समुदाय के भीतर बेहद जरूरी सामाजिक मंथन की शुरुआत हो सकता है।

तीसरे, नए संगठन को धार्मिक चिह्न और नारों से बचना चाहिए, बल्कि उसे भारतीय राष्ट्रीयता के प्रतीक और चिह्नों को चुनना चाहिए। शाहीन बाग ने इसे न सिर्फ रणनीति बल्कि नागरिकता पर जोर देने के लिए प्रभावी मॉडल साबित किया। वहां और दूसरे प्रतिरोध स्थलों पर भारत के बहुलतावादी इतिहास के प्रतीकों और चिह्नों पर जोर देने और संविधान की प्रस्तावना पढ़े जाने से धर्मनिरपेक्षता का एक नया मुहावरा गढ़ा गया है। चौथे, यह कोई एकरूप संगठन नहीं होना चाहिए, बल्कि क्षेत्रीय और राज्य स्तरीय दलों का ढीला-ढाला ढांचा होना चाहिए। प्रत्येक राज्य में राजनैतिक स्थितियां अलग-अलग हैं इसलिए कोई एकरूप संगठन उलटे नतीजे दे सकता है। इससे किसी खास क्षेत्र या राज्य का दबदबा बढ़ सकता है। राष्ट्रीय स्तर पर एकमात्र साझा तत्व नैतिक सिद्धांत और भारत को उसके विवेकसंपन्न स्वरूप में लौटा ले जाने का सपना होना चाहिए।

पांचवें, ऐसे संगठन को कम से कम दस साल तक चुनावों में शामिल होने से दूर रहना चाहिए और संगठन खड़ा करने, राजनैतिक प्रशिक्षण, समाज कल्याण और धर्मों के बीच संवाद पर फोकस करना चाहिए। फौरन चुनाव में उतर जाने से ऐसे संगठन को उन तमाम वजहों के लिए संदिग्ध माना जाने लगेगा जिसके लिए भारतीय राजनीति को गलत माना जाता है। सुझाव चुनावों के बहिष्कार का नहीं, बल्कि उस वक्त तक रुकने का है, जब  समुदाय को यह महसूस हो कि भरोसेमंद चुनावी गठजोड़ करने के लिए परिपक्व है। छठे, उसे सांप्रदायिकता, पर्यावरण विध्वंस, नागरिक आजादी और मानवाधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ लड़ने वाले सिविल सोसायटी समूहों के साथ मिलकर काम करना चाहिए। अधिकांश सिविल सोसायटी समूहों और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के बीच अंतर यह है कि तात्कालिक फायदों के लिए सिविल सोसायटी समूह अपने आदर्शों को राजनैतिक दलों की तरह आसानी से तिलांजलि नहीं देते। राजनैतिक दल आदर्शों से समझौता करने और दगा करने में पीछे नहीं है। इसका एक उदाहरण यह है कि अधिकांश धर्मनिरपेक्ष पार्टियां कभी न कभी भाजपा के साथ गठजोड़ कर चुकी हैं।

सातवें, उसे ऐसा कुछ नहीं कहना या करना चाहिए जो हिंदुओं को संघ के पाले में जाने को उन्मुख करे। नए संगठन को ऐसे शब्दों और कृत्यों पर हमेशा ध्यान देना होगा, जिनसे एक ओर हिंदुत्व और संघ परिवार और दूसरी ओर विशाल हिंदू समाज के बीच अंतर किया जा सके। आठवें, नए राजनैतिक संगठन को पहचान की राजनीति की लालच में फंसने के बदले नागरिकता का दावा करने पर फोकस करना चाहिए। हर्ष मंदर ने हाल में कहा, ‘‘यहां मौजूद मुसलमान भाई-बहनें और बच्चे अपनी पसंद से भारतीय हैं। बाकी हम सभी संयोग से भारतीय हैं। हमारे पास कोई विकल्प नहीं था। हमारे पास सिर्फ यही देश था। लेकिन आपके (मुसलमानों) पास और विकल्प था लेकिन आपके पूर्वजों ने इस देश में रहने का विकल्प चुना। आज, जो लोग सरकार में हैं, वे यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि जिन्ना सही थे और महात्मा गांधी गलत।’’

भारतीय मुसलमानों की यह नैतिक और ऐतिहासिक जिम्मेदारी है कि वे जिन्ना और सावरकर को गलत साबित कर दें। यही उनके पुरखों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी जिन्होंने भारत में रहना चुना था।

(लेखक सांस्कृतिक टिप्पणीकार हैं। उनकी ताजा किताब गॉड इज नाइदर ए खोमैनी नाॅर ए भागवत है। यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं)

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इतिहास गवाह है कि हाशिए के समुदायों को तब ताकत मिली जब वे राजनीतिक रूप से संगठित हुए

 

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