पटना के चर्चित पारस अस्पताल कानून-व्यवस्था की दुर्दशा का मिसाल बन गया है। 17 जुलाई को चार-पांच लोग खुलेआम पिस्तौल लिए अस्पताल में दाखिल हुए और पेरोल पर इलाज करा रहे एक सजायाफ्ता मरीज को गोलियों से भून कर एकदम आराम से निकल गए। जुलाई महीने में ही 80 से ज्यादा ऐसी वारदातें हो चुकी हैं और चुनावों के ऐन पहले दहशत बरपा रही हैं। बिहार में इस तरह की यह पहली घटना नहीं है। हत्याओं का एक लंबा सिलसिला चल रहा है, जिससे कानून व्यवस्था पर बड़े सवाल उठ रहे हैं। एक के बाद एक हत्याओं और अन्य अपराधों से लग रहा है जैसे बिहार में कानून का कोई नामलेवा बचा ही नहीं है। 4 जुलाई को भारतीय जनता पार्टी से जुड़े एक व्यवसायी और मगध अस्पताल के मालिक गोपाल खेमका की पटना के गांधी मैदान स्थित उनके घर के बाहर गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। 2018 में उनके बेटे की भी हत्या हुई थी। इन दोनों घटनाओं से शहर के कारोबारी हलके में बेचैनी है। अपराध का आलम यह है कि हर दिन कोई न कोई ऐसी घटना हो रही है। इन दोनों हत्याओं के साथ एक और दिल दहलाने वाली घटना बिहार के पूर्णिया में घटी। 6 जुलाई को एक दलित परिवार के पांच लोगों को जिंदा जला दिया गया। कहा जा रहा है कि परिवार पर जादू-टोना करने का आरोप था।
12 जुलाई को पटना जिले के शेखपुरा गांव में 52 वर्षीय सुरेंद्र केवट को मोटरसाइकिल सवार दो लोगों ने गोली मार दी। 14 जुलाई को बेगूसराय में लोहिया नगर के रेलवे फाटक के पास बाइक सवार चार लोगों की गोलीबारी में 25 वर्षीय अमित कुमार की मौत हो गई और दो अन्य घायल हो गए।
जुलाई के पहले पखवाड़े में ही बिहार में करीब 17 हत्याएं हुईं। इनमें से पटना में ही दो महीनों में लगभग एक दर्जन हत्याएं हो चुकी हैं। राजधानी के इतर स्थिति और भयावह हो चुकी है। 25 जुलाई को बिहार पुलिस की परीक्षा देने निकले सचिन कुमार को नवादा में गोली मार दी गई। गोली उनके सिर के आर-पार हुई और मौके पर ही दम तोड़ दिया। 28 जुलाई को नवादा में ही छह बदमाशों ने इलेक्ट्रिक सामान के दुकानदार प्रकाश लाल पर कई राउंड फायरिंग कर दी। वजह सिर्फ इतनी कि उन्होंने रात के 9 बजे सामान देने से इनकार कर दिया था। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, जनवरी से मई 2024 तक, राज्य में 142 हत्याएं दर्ज की गईं। इस वर्ष इसी अवधि में यह संख्या 116 है।
महिलाओं के खिलाफ अपराधों में बढ़ोतरी भी बड़ा मुद्दा है। 26 मई को मुजफ्फरपुर में एक 10 वर्षीय दलित लड़की के साथ बलात्कार हुआ। बाद में अस्पताल में उसकी मौत हो गई। एक महीने के भीतर, नाबालिग लड़कियों से जुड़े दस और मामले सामने आ चुके हैं। 24 जुलाई को बोधगया में एक युवती गैंगरेप की शिकार हो गई। होमगार्ड भर्ती की फिजिकल परीक्षा देते वक्त वह बेहोश हुई, आनन-फानन उसे एम्बुलेंस में बैठाया गया। लेकिन रास्ते में ही उसके साथ सामूहिक दरिंदगी हो गई। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, बिहार में बलात्कार के मामले 2018 में 651 से बढ़कर 2022 में 881 हो गए हैं। 2019 से 2021 तक, गृह मंत्रालय ने राज्य में यौन हिंसा के 51,896 मामले दर्ज किए, जिनमें 22,360 लड़कियों के लापता होने के मामले शामिल हैं। लापता लड़कियों में 8,000 से ज्यादा नाबालिग थीं। राज्य महिला आयोग के पास महिलाओं के खिलाफ हिंसा से संबंधित 6,000 से ज्यादा मामले लंबित हैं।
इन अपराधों और एक के बाद एक हत्या की घटनाओं से नीतीश कुमार की अगुआई वाली सरकार सवालों के घेरे में है। चुनाव से कुछेक महीने पहले इन घटनाओं से लोग कहने लगे हैं कि बिहार में फिर ‘जंगल राज’ आ गया है। जन सुराज पार्टी के प्रमुख प्रशांत किशोर का कहना है कि बिहार में लालू-राबड़ी शासन के दौरान की अराजक स्थितियां लौट आई हैं। उन्होंने कहा, ‘‘लालू के जंगल राज और नीतीश के शासन में कोई अंतर नहीं है। लालू के शासन में अपराधियों का बोलबाला था और नीतीश के शासन में अधिकारियों का बोलबाला है।’’
उप-मुख्यमंत्री विजय सिन्हा ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया है कि राज्य में पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्था लड़खड़ा रही है। केंद्रीय मंत्री और लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के नेता चिराग पासवान ने भी अपराध पर लगाम लगाने में नाकाम रहने के लिए नीतीश की आलोचना की है। उन्होंने कहा कि हत्याओं का यह सिलसिला आकस्मिक नहीं, बल्कि कानून व्यवस्था में गिरावट का संकेत है।
नीतीश के कार्यकाल के शुरुआती वर्षों में अपराध में भारी गिरावट आई थी और सड़कों तथा स्कूलों के बुनियादी ढांचे में स्पष्ट सुधार हुआ था। उस दौर में सुधार को स्पष्ट रूप से महसूस किया जा सकता था। इसी वजह से उन्हें जनता के बीच, ‘सुशासन बाबू’ कहा जाने लगा था। 2005 में, जदयू ने 88 सीटें जीती थीं। 2010 तक स्वच्छ शासन की छवि के दम पर यह संख्या बढ़कर 115 हो गई। इसके विपरीत, लालू की पार्टी (तब जनता दल, बाद में राष्ट्रीय जनता दल) ने 1990 में 122 और 1995 में 167 सीटें जीती थीं।
बढ़ती आपराधिक वारदातों पर जद (यू) के अभिषेक झा कहते हैं, ‘‘लालू राज में अपराध संगठित और राज्य प्रायोजित होते थे। आज, कानून का राज है, और अपराधियों पर, चाहे वे कोई भी हों मुकदमा चलाया जाता है। कार्रवाई में कोई कोताही नहीं। बरती जाती।’’ भाजपा प्रवक्ता नीरज कुमार कहते हैं, ‘‘लालू के राज में पुलिस कार्रवाई नहीं करती थी। अब, 24 से 72 घंटों के भीतर कार्रवाई की जाती है। बिहार में दोषसिद्धि की दर 62 है, जो उत्तर प्रदेश के बाद दूसरे स्थान पर है। पहले, अपराधियों को राज्य का संरक्षण प्राप्त था; अब, मंत्री के बेटे को भी नहीं बख्शा जाएगा।’’
इन तर्कों पर राजद महासचिव मोहम्मद फैयाज आलम कहते हैं कि ये दावे आंकड़ों के सामने टिक नहीं पाते। वे कहते हैं, ‘‘उन्होंने 20 साल राज किया; हमने 15 साल। आंकड़ों की तुलना कीजिए और देखिए कि ज्यादा अपराध किस दौर में हुए। हमारे समय में संसाधन कम थे; हर थाने में सिर्फ पांच पुलिसकर्मी और सीमित वाहन थे। आज, उनके पास सारी सुविधाएं हैं, फिर भी अपराध बढ़ रहे हैं।’’
राजद के मुताबिक, बिहार में 1990 में 1.24 लाख, 1995 में 1.15 लाख और 2005 में 97,850 संज्ञेय अपराध हुए। नीतीश के कार्यकाल में यह संख्या बढ़कर 1.27 लाख (2005-2010), 1.76 लाख (2010-2015) और 1.96 लाख (2015-2018) हो गई। यह राजद के कार्यकाल की तुलना में 101.2 प्रतिशत की वृद्धि है। नीतीश सरकार को 2018 में टीआइएसएस की एक रिपोर्ट के बाद सबसे कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा, जिसमें मुजफ्फरपुर आश्रय गृह में 34 नाबालिग लड़कियों के साथ बार-बार यौन शोषण का उल्लेख किया गया था।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के 2022 के आंकड़े यही बताते हैं। उस वर्ष, बिहार में अपराध में 23 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई, जो देश में सबसे अधिक थी। 2,930 हत्याओं के साथ, बिहार उत्तर प्रदेश के बाद दूसरे स्थान पर था। अपहरण के 11,822 मामलों के साथ यह तीसरे स्थान पर था। 2017 और 2021 के बीच, राज्य में 14,800 से ज्यादा हत्या की वारदातें दर्ज की गईं, यानी औसतन 2,800 से 3,150 ऐसी घटनाएं प्रति वर्ष हुईं।
बिहार के पूर्व डीजीपी अभयानंद को नीतीश कुमार की पिछली सरकारों में अपराध नियंत्रण में अहम माना जाता था। वे एडीजी (मुख्यालय) के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान अपने ‘‘स्पीडी ट्रायल’’ की पहल को याद करते हैं। अभयानंद कहते हैं, ‘‘हमने फौरन सुनवाई की व्यवस्था की थी, खासकर आर्म्स एक्ट के मामलों में अपराधियों को गिरफ्तारी के सात दिनों के भीतर सजा सुनाई गई। इससे अवैध बंदूक रखने पर अंकुश लगा और अपराध में काफी हद तक कमी आई।’’
उनका मानना है कि अपराध काले धन से प्रेरित होता है और इससे निपटने के लिए इसके वित्तीय स्रोतों पर निशाना साधना जरूरी है। लालू के जंगल राज और बिहार की मौजूदा कानून-व्यवस्था के बारे में पूछे जाने पर अभयानंद कहते हैं, ‘‘उस जमाने में कभी भी कुछ भी हो सकता था। अपराध के नजरिए से, इससे बुरा और क्या हो सकता है? लेकिन अगर आप आज के अपराधों को सिर्फ धारणा के आधार पर देखें, तो आपको ऐसा लगेगा जैसे आप उसी दौर यानी लालू राज में ही जी रहे हैं। उन दिनों अपहरण की घटनाएं आम थीं, जबकि आज हत्याएं ज्यादा होती हैं। मेरे विचार से, अपराध बहुत हद तक धारणा का मामला है, सिर्फ आंकड़ों का नहीं। आंकड़े धारणा को आकार देने का बस एक जरिया हैं।’’
एएन सिन्हा सामाजिक अध्ययन संस्थान के पूर्व निदेशक प्रोफेसर डीएम दिवाकर कहते हैं कि अगर जंगल राज को डर, जबरन वसूली और सरकारी उदासीनता का पर्याय समझा जाए, तो यह राज कभी खत्म ही नहीं हुआ। वे कहते हैं, ‘‘लालू के जमाने में भ्रष्टाचार और अपहरण होते थे, तो आज भी यही सब होता है। बिना रिश्वत काम नहीं हो सकता। पहले मीडिया आवाज उठाता था। आज चुप्पी है, इसलिए उन्हें यह जंगल राज नहीं लगता।’’