Advertisement

मौद्रीकरण: सवाल कई

जब अर्थव्यवस्था की स्थिति ठीक नहीं तो सार्वजनिक संपत्ति की वैलुएशन भी कम होगी, अर्थव्यवस्था में सुधार के बाद सरकार वही संपत्ति निजी क्षेत्र को दे तो ज्यादा वैलुएशन मिलेगी
मौद्रीकरण नीति के ऐलान के वक्त वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बार 15 अगस्त को जब लाल किला से अपने भाषण में इन्फ्रास्ट्रक्चर पर 100 लाख करोड़ रुपये निवेश का ऐलान किया तो लगा कि इसका हश्र भी पिछले दो भाषणों जैसा ही होगा। वे 2019 और 2020 में भी यह घोषणा कर चुके थे। लेकिन हफ्ते भर बाद ही वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण नेशनल मॉनेटाइजेशन पाइपलाइन (एनएमपी) लेकर आ गईं। इस योजना के जरिए 2024-25 तक सरकारी संपत्ति निजी क्षेत्र को लीज पर देकर या बेच कर छह लाख करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य है। विचार यह है कि तैयार हो चुके या होने वाले प्रोजेक्ट 25-30 साल के लिए लीज पर देकर सरकार धन जुटाएगी, और उस धन को नए इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट में लगाएगी। मॉनेटाइज की गई ज्यादातर संपत्ति का मालिकाना हक सरकार के पास ही रहेगा, निजी कंपनी उसका प्रबंधन करेगी। वित्त मंत्री के अनुसार एनएमपी में उन प्रोजेक्ट को चुना गया है जिनमें निवेश हो चुका है, लेकिन उनका वित्तीय दृष्टि से पूरी तरह इस्तेमाल नहीं हो रहा। राज्य भी ऐसा करें, इसके लिए 5,000 करोड़ रुपये इन्सेंटिव का प्रावधान है।

वैसे तो इस योजना का मकसद इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश के लिए धन का इंतजाम करना है, लेकिन इसकी गंभीर आलोचना भी हो रही है। जाने-माने अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार इसके समय पर सवाल उठाते हैं। वे कहते हैं, “कोई भी निजी कंपनी सरकारी संपत्ति इस आधार पर लेगी कि उससे कितनी कमाई होगी। अभी अर्थव्यवस्था की स्थिति खराब है तो कमाई कम होगी, इसलिए उस संपत्ति की वैलुएशन भी कम होगी। अर्थव्यवस्था में सुधार के बाद अगर सरकार वही संपत्ति निजी क्षेत्र को दे तो ज्यादा वैलुएशन मिलेगी।”

प्रो. कुमार के अनुसार, “सार्वजनिक क्षेत्र की संपत्ति निजी क्षेत्र को देने से पहले उसमें मैनिपुलेशन किया जाता है, जैसा बाल्को के विनिवेश में हुआ था।” बाल्को का विनिवेश 2001 में हुआ, जिस पर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने भी सवाल उठाए थे। उसने कहा था कि कंपनी की संपत्ति की वैलुएशन के लिए कम से कम 45 दिन मिलने चाहिए थे, जबकि यह काम सिर्फ 19 दिनों में पूरा किया गया। कंपनी की 51 फीसदी हिस्सेदारी के लिए सिर्फ 551.50 करोड़ रुपये की रकम को उसने बहुत कम बताया था। विनिवेश से पहले कंपनी की क्षमता करीब 50 फीसदी बढ़ाई गई थी, लेकिन वैलुएशन में उसे पूरी तरह नजरंदाज कर दिया गया।

 मौद्रिकरण

इसलिए एनएमपी का राजनीतिक विरोध भी हो रहा है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इसे ‘नेशनल फ्रेंडशिप स्कीम’ का नाम देते हुए आरोप लगाया है कि 70 वर्षों में जो बेशकीमती रत्न तैयार हुए हैं, उन्हें चुनिंदा बिजनेसमैन को दिया जा रहा है। इससे प्रमुख सेक्टर में उनका एकाधिकार होगा, नौकरियां जाएंगी, अनौपचारिक क्षेत्र खत्म होगा और छोटे कारोबारी बर्बाद हो जाएंगे। पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने तो इसे घोटाला बताया और कहा कि नीति आयोग के जरिए यह साजिश रची जा रही है। उनका कहना है कि सरकारी संपत्ति पहले भी निजी क्षेत्र को दी जाती थी, लेकिन उसका एक मानदंड होता था। जैसे परमाणु ऊर्जा, रक्षा, रेलवे जैसे रणनीतिक क्षेत्र निजी हाथों में नहीं दिए जाएंगे। लेकिन सरकार ने तो रेलवे को रणनीतिक क्षेत्र से ही बाहर कर दिया।

एनएमपी को देश की संपत्ति और इन्फ्रास्ट्रक्चर की लूट बताते हुए माकपा ने कहा, “केंद्र सरकार ने देश को बेचने की औपचारिक घोषणा कर दी है। रोज के खर्चे पूरे करने के लिए इस तरह संपत्ति बेचने का कोई औचित्य नहीं है। जब बाजार दरें नीची हों तब संपत्ति बेचने से कंपनियों को ही फायदा होगा। देशवासियों को इस लूट का विरोध करना चाहिए।”

सरकार के फैसले का बचाव करते हुए सीतारमण ने कांग्रेस के समय के सौदे गिनाए। उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने मुंबई-पुणे एक्सप्रेसवे को मॉनेटाइज करके 8,000 करोड़ रुपये जुटाए थे। यूपीए सरकार 2008 में नई दिल्ली रेलवे स्टेशन को लीज पर देने का प्रस्ताव लेकर आई थी। उन्होंने गांधी परिवार पर हमला करते हुए कहा, “अगर मौजूदा सरकार का मॉनेटाइजेशन सरकारी संपत्ति बेचना है, तो क्या यूपीए ने भी नई दिल्ली स्टेशन को बेच दिया था? क्या अब जीजाजी इसके मालिक हैं?”

यह सच है कि इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट में सिर्फ सरकार के लिए पैसा लगाना मुमकिन नहीं, निजी क्षेत्र की भागीदारी भी जरूरी है। नेशनल इन्फ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन (एनआइपी) के लिए पांच वर्षों में 111 लाख करोड़ रुपये खर्च करने का लक्ष्य है। इसके लिए गठित टास्कफोर्स की रिपोर्ट के अनुसार पारंपरिक स्रोतों से 83-85 फीसदी रकम जुटाई जा सकती है। बाकी 15-17 फीसदी रकम एसेट रिसाइक्लिंग, मॉनेटाइजेशन और विकास के लिए धन देने वाले संस्थानों (डीएफआइ) से जुटानी पड़ेगी। एसेट रिसाइक्लिंग और मॉनेटाइजेशन से पांच से छह फीसदी रकम जुटाई जा सकती है। एनएमपी में जो लक्ष्य तय किया गया है वह एनआइपी का 5.4 फीसदी है। एनआइपी में केंद्र का हिस्सा 43 लाख करोड़ का है।

ज्यादातर राशि सरकारी-निजी भागीदारी (पीपीपी) और इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट ट्रस्ट के जरिए जुटाई जाएगी। नई दिल्ली और मुंबई एयरपोर्ट में निजी क्षेत्र को शामिल करने के लिए 2006 में पीपीपी मॉडल अपनाया गया था। नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत के अनुसार एनएमपी का एक मकसद इन्फ्रास्ट्रक्चर में संस्थागत निवेशकों के लिए विकल्प तैयार करना है। एनएचएआइ इन्फ्रा इन्वेस्टमेंट ट्रस्ट के जरिए 5,000 करोड़ रुपये जुटाना चाहती है। खबरों के मुताबिक इसमें निवेश के लिए ग्लोबल निवेशक स्वतंत्र और प्रोफेशनल बोर्ड के साथ बोर्ड में जगह भी चाहते हैं।

सामाजिक जिम्मेदारी

सार्वजनिक क्षेत्र की संपत्ति निजी क्षेत्र को देने पर ऐतराज की और भी वजहें हैं। प्रो. कुमार के अनुसार सार्वजनिक क्षेत्र की सामाजिक जिम्मेदारियां होती हैं। उन्हें पिछड़े क्षेत्र में भी काम करने को कहा जाता है ताकि वहां विकास हो। एकाधिकार होने के बावजूद सार्वजनिक कंपनियां दाम अधिक नहीं बढ़ाती हैं। ये दाम को नियंत्रित रखने में भी मदद करती हैं। वे कहते हैं, “एम्स किसी हार्ट सर्जरी के लिए 15 लाख रुपये भी ले सकता है, लेकिन वह ढाई से तीन लाख ही लेता है जो उसका वास्तविक खर्च है। कोई कॉरपोरेट अस्पताल उसके आठ-नौ लाख लेगा। लेकिन एम्स न हो तो वह उस सर्जरी के 20 लाख रुपये लेगा। जब सार्वजनिक क्षेत्र रहेगा ही नहीं तो निजी कंपनी जितना चाहे पैसे वसूल सकती है।” महामारी के समय बेरोजगारी दर बढ़ गई है, लोग परेशान हैं। ऐसे समय मॉनेटाइज करने से निजी क्षेत्र का एकाधिकार बनेगा। निजी कंपनियां न तो वेतन का ध्यान रखेंगी न कीमतों पर नियंत्रण।

एनएमपी में 12 मंत्रालयों के 20 तरह के एसेट का मॉनेटाइजेशन किया जाएगा। कंस्ट्रक्शन पूरा होने के कारण कोई जोखिम नहीं होगा, इसलिए संभावना है कि निजी कंपनियां इनमें रुचि दिखाएंगी। अभी ब्याज दरें कम हैं, सो उन्हें सस्ता कर्ज भी मिल जाएगा। सवाल है कि क्या अभी मॉनेटाइजेशन की जरूरत है? अभी जरूरत विकास दर बढ़ाने की है ताकि रोजगार भी पैदा हों। प्रो. कुमार के अनुसार इसके लिए हमें मांग बढ़ाने वाली नीति चाहिए, न कि आपूर्ति बढ़ाने वाली। मॉनेटाइजेशन आपूर्ति बढ़ाने वाली नीति है। इससे निवेश बढ़ने की बात को भी वे गलत मानते हैं। वे कहते हैं, “मान लीजिए सरकार ने 100 रुपये का ऐसेट निजी क्षेत्र को दिया, तो सरकार का एसेट 100 रुपये कम हो गया। अब वही रकम वह दूसरी जगह निवेश करती है, तो इसमें नया निवेश कहां हुआ?”

सरकार बार-बार कह रही है कि यह संपत्ति की बिक्री नहीं, थोड़े समय के लिए वह निजी कंपनियों को दी जाएगी। लेकिन यहीं पेंच है। ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं जहां कंपनी की लागत पूरी हो जाने के बाद भी हाइवे पर टोल वसूली जारी रही। इलाहाबाद हाइकोर्ट ने 26 अक्टूबर 2016 को दिल्ली-नोएडा को जोड़ने वाले डीएनडी फ्लाइवे पर टोल वसूली बंद करने का निर्देश दिया। 7 फरवरी 2001 को शुरू होने के बाद इस हाइवे पर 15 साल टोल वसूला गया था। कोर्ट ने कहा कि कंपनी फ्लाइवे बनाने का खर्च, ब्याज और मुनाफा कमा चुकी है इसलिए अब वह टोल वसूलने की हकदार नहीं है। कोर्ट ने प्रोजेक्ट की लागत निकालने के फॉर्मूले को भी गलत बताया। इसके लिए याचिका किसी सरकार ने नहीं, बल्कि नोएडा रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन की फेडरेशन ने दायर की थी। प्रो. कुमार के अनुसार यह कहकर सार्वजनिक संपत्ति निजी हाथों में सौंप देना ठीक नहीं कि उसका ढंग से इस्तेमाल नहीं हो रहा है। सरकार देखे कि उसका सही इस्तेमाल कैसे हो सकता है।

आखिर एनएमपी की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि कॉन्ट्रैक्ट कितना लचीला और आकर्षक है। इसलिए कुछ आशंकाएं भी हैं। मॉनेटाइजेशन पीपीपी, कन्सेशन या इन्फ्रा इन्वेस्टमेंट ट्रस्ट के जरिए होगा। लेकिन पीपीपी का अनुभव अच्छा नहीं रहा है। यात्री ट्रेन चलाने के लिए रेलवे ने निजी क्षेत्र को आमंत्रित किया था, पर रेस्पांस बहुत खराब रहा। तो क्या उन्हें आकर्षित करने के लिए रेगुलेटरी ढांचा ढीला किया जाएगा? एक और समस्या यह होगी कि रेलवे जैसा प्रोजेक्ट किसी कंपनी को सौंपने पर एकाधिकार जैसी स्थिति बनेगी। तब उस पर नियंत्रण कैसे होगा? 

मॉनेटाइजेशन का बोझ आखिरकार आम लोगों पर ही आएगा, इसलिए प्रो. कुमार कीमत पर नियंत्रण की सलाह देते हैं। “वर्ना निजी कंपनियां तो हमेशा के लिए लोगों से पैसे वसूलती रहेंगी और आम लोग पैसे देने के लिए मजबूर होंगे।” इसे भी हाइवे के उदाहरण से समझा जा सकता है। बिना टोल वाली सड़कें इतनी टूटी होती हैं कि टोल रोड पर चलना लोगों की मजबूरी हो जाती है।

कोरोना महामारी ने सार्वजनिक क्षेत्र की अहमियत भी बताई है। बीमार लोगों को अस्पतालों में भर्ती करने की नौबत आई तो सरकारी अस्पताल ही काम आए। प्रवासी मजदूरों को लाने-ले जाने के लिए रेलवे का इस्तेमाल हुआ। निजी क्षेत्र तो उनसे औने-पौने दाम वसूल रहा था। सरकार ने राशन की दुकानों और जनधन खातों के जरिए लोगों को राहत दी। प्रो. कुमार के अनुसार इनसे पता चलता है कि संकट के समय मजबूत सार्वजनिक क्षेत्र की जरूरत पड़ती है, इसलिए हमें इसे और मजबूत करने की जरूरत है।

प्रोफेसर अरुण कुमार

हमें मांग बढ़ाने वाली नीति चाहिए, न कि आपूर्ति बढ़ाने वाली। मॉनेटाइजेशन आपूर्ति बढ़ाने वाली नीति है

प्रो. अरुण कुमार, जाने-माने अर्थशास्‍त्री

Advertisement
Advertisement
Advertisement