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ये खेमेबंदियां महज फिल्मी नहीं

मोदी समर्थक और मोदी विरोधियों की दो-टूक सियासी बंटवारे की यह आंधी तो सौ साल के इतिहास में कभी नहीं दिखी, फिल्मोद्योग में सियासी खेमेबंदी काफी कड़वाहट भी पैदा करने लगी है, जिसके नतीजे दिख सकते हैं आगे भी
प्रधानमंत्री मोदी के साथ फिल्मी सितारों की सेल्फी

सौगंध मुझे है इस मिट्टी की/ मैं देश नहीं मिटने दूंगा/ मैं देश नहीं रुकने दूंगा/ मैं देश नहीं झुकने दूंगा/ मेरा वचन है भारत मां को/ तेरा शीश नहीं झुकने दूंगा।

लता मंगेशकर इस साल सितंबर में 90 साल की हो जाएंगी। उन्होंने हिंदी सिनेमा के लिए आवाज देना काफी पहले बंद कर दिया था। लेकिन इस साल की शुरुआत में बालाकोट हवाई हमले के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक रैली में इन पक्तियों का पाठ किया तो लता जी का दिल ऐसा पसीजा कि उन्होंने इसे रिकॉर्ड किया और उसे देश की जनता खासतौर पर सेना को समर्पित कर दिया। इसके कुछ दिनों बाद ही देश में आम चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो गई।

अब 1963 का रुख करें। इस सम्मानित गायिका ने चीन युद्ध के दौरान भारतीय जवानों की शहादत को याद करते हुए लाइव ऑडियंस के सामने कवि प्रदीप की एक भावप्रवण रचना ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ गाया, जिसे सुनकर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की आंखों में आंसू आ गए। उसके 56 साल बाद ‘स्वर कोकिला’ ने राष्ट्रवाद के नए गीत को अपनी सुरीली आवाज से सजाया, जिसमें भारतीय वायु सेना के पाकिस्तान में आतंकी ठिकानों पर हमलों के बाद कथित तौर पर जनता का मिजाज की झलक मिलती है। हालांकि, इस बार मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्दों ने उन्हें प्रभावित किया और चुनावों से ऐन पहले हुई सैन्य कार्रवाई को भावनात्मक स्वर देने की कोशिश की गई। लता मंगेशकर ने 30 मार्च को अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल पर वीडियो अपलोड किया, जिसमें इस महान गायिका ने एक ऑडियो संदेश भी दिया, “मैं माननीय प्रधानमंत्री का भाषण सुन रही थी, उन्होंने एक कविता की कुछ पंक्तियां पढ़ीं, जो मुझे हर भारतीय की भावनाओं का सच्चा प्रतिबिंब लगा। इसने मेरे दिल को छू लिया, इसलिए मैंने इसे रिकॉर्ड किया और आज मैं इसे देश की जनता और सैनिकों को समर्पित कर रही हूं।”

1970 में इंदिरा गांधी के साथ फिल्मी दिग्गज

आम चुनाव के पहले चरण के मतदान से करीब दो सप्ताह पहले लता के इस गीत का भला मोदी और उनके गठबंधन के लिए इससे माकूल वक्त और क्या हो सकता था, क्योंकि यह चुनाव तय करेगा कि मोदी सत्ता में लौटते हैं या नहीं। इससे अभिभूत मोदी ने जल्द ही जवाब दिया। उन्होंने ट्विटर पर लिखा, “मैं गीत में आपके गहरे स्नेह और आशीर्वाद से भाव-विभोर हूं।”

यह अभी साफ नहीं है कि लता के गाने की टाइमिंग क्या चुनाव में एनडीए को बढ़त दिलाने के लिए थी, लेकिन यह शायद ही आश्चर्यजनक था। आखिरकार लता मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बहुत पहले से ही उनकी प्रशंसक मानी जाती हैं। नवंबर 2013 में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में चुने जाने के कुछ महीनों बाद लता ने खुले तौर पर कहा था कि वे मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहेंगी।

लता की टिप्पणी ने उस समय फिल्म जगत या उससे बाहर भले ही ज्यादा हलचल नहीं मचाई हो, लेकिन आज जबकि फिल्म जगत राजनैतिक रूप से मोदी समर्थक और मोदी विरोधी खेमे में बंटा है, तो बेहद सक्रिय सोशल मीडिया के दौर में यह निश्चित रूप से बहस का मुद्दा बन गया। 23 मई को बहुप्रतीक्षित मतगणना वाले दिन मोदी की तकदीर के फैसले को लेकर पहले से ही गहमागहमी शुरू हो गई है।

बॉलीवुड अपने 106 साल के इतिहास में हमेशा अराजनैतिक (और धर्मनिरपेक्ष भी) होने पर गर्व करता रहा है। दशकों तक फिल्मी हस्तियां अपने पेशेवर काम में दलगत राजनैतिक रुझानों के घालमेल से बचती रही हैं और अपने साथियों के साथ शायद कभी इस बारे में उलझते रहे हैं। लेकिन अब बदली परिस्थितियों में, दो-टूक बयानों और खेमेबंदियों से परहेज ही असामान्य हो चला है।

हालांकि, बॉलीवुड में हर कोई मोदी या उनकी नीतियों का मुरीद नहीं है। लता की ओर से मोदी के समर्थन में वीडियो अपलोड करने के पांच दिन बाद ही थिएटर पृष्ठभूमि से जुड़े फिल्मी हस्तियों अमोल पालेकर, नसीरुद्दीन शाह और गिरीश कर्नाड से लेकर युवा तुर्क अनुराग कश्यप, कोंकणा सेन शर्मा और मानव कौल ने इस चुनाव में मोदी सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिए मतदाताओं से अपील की। 4 अप्रैल को 12 भाषाओं में आर्टिस्टयूनाइटडॉटकॉम पर अपलोड की गई अपील में इन कलाकारों ने भाजपा और उसके सहयोगियों के खिलाफ वोट करने पर जोर दिया। संयुक्त बयान में कहा गया है, “कट्टरता और नफरत के खिलाफ वोट करें... धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक और समावेशी भारत के लिए वोट करें। सपने देखने की आजादी के लिए वोट करें। समझदारी से वोट करें।”

जवाहरलाल नेहरू के साथ दिलीप कुमार, देवानंद और राजकपूर

इन कलाकारों के मुताबिक, मोदी के शासनकाल में भारत की मूल विचारधारा खतरे में रही है और निस्संदेह आजाद भारत के इतिहास में मौजूदा चुनाव सबसे महत्वपूर्ण हैं। उनके बयान में सख्त लहजे में कहा गया, “भाजपा पांच साल पहले विकास के वादे के साथ सत्ता में आई, लेकिन इसने हिंदुत्व के गुंडों को नफरत और हिंसा की राजनीति करने के लिए खुली छूट दे दी। पांच साल पहले जिस शख्स को देश के मसीहा के रूप में चित्रित किया गया था, उसने अपनी नीतियों के जरिए लाखों लोगों की आजीविका को बर्बाद कर दिया। उसने काले धन को वापस लाने का वादा किया, लेकिन इसकी जगह ठगों ने देश को लूट लिया और भाग गए। अमीरों की संपत्ति अप्रत्याशित रूप से बढ़ी, जबकि गरीब और भी गरीब होते चले गए।”

आश्चर्य नहीं कि इस पहल को मोदी और उनकी राजनीति में यकीन रखने वाले दूसरे खेमे से तीखी प्रतिक्रिया हुई। दिग्गज अभिनेता अनुपम खेर हमला करने वालों में सबसे आगे थे। खेर ने ट्वीट किया, “तो, मेरी बिरादरी के कुछ लोगों ने संवैधानिक रूप से चुनी गई मौजूदा सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिए जनता से वोट करने के लिए एक चिट्ठी जारी की है। दूसरे शब्दों में, वे आधिकारिक तौर पर विपक्षी दलों के लिए प्रचार कर रहे हैं। अच्छा है! कम-से-कम यहां कोई दिखावा नहीं है।” इस पर सिर्फ उनकी साथी कलाकार स्वरा भास्कर ने व्यंग्यपूर्ण लहजे में ट्वीट किया, “जी सर, इसे लोकतंत्र कहते हैं।”

खेर ने इसका जवाब दिया, “सहमत! लेकिन तभी तक जब दूसरा ऐसा करे, तो असहिष्णुता के साथ भ्रम की स्थिति न पैदा हो।” अब खेर पर सवाल दागने की बारी अभिनेत्री सोनी राजदान (संयोग से, फिल्म निर्माता महेश भट्ट की पत्नी, जिन्होंने खेर को 1984 में सारांश में बड़ा ब्रेक दिया था) की थी। उन्होंने पूछा, “बस इस बात के लिए उत्सुक हूं कि अगर आप खुद को मौजूदा सरकार से जोड़ सकते हैं, तो दूसरे जब ऐसा कर रहे हैं तो यह आपको अलग क्यों लग रहा है?”

ज्यादा पहले की बात नहीं है, जब मसान की अदाकारा ऋचा चड्ढा ने नफरत की राजनीति को खारिज करने के लिए स्पष्ट रुख अपनाने पर कलाकारों की बिरादरी की तारीफ की। उन्होंने कहा, “मैं देश के सामाजिक, नैतिक ताने-बाने को बर्बाद करने के लिए लोगों की प्रेरणा को भी समझती हूं, जैसे वे ट्वीट के बदले नकदी और लाल बत्ती जैसी सुविधाएं हासिल करना चाहते हैं। यह अनिश्चित उद्योग है।”

अनिश्चित है या नहीं, यह तो पता नहीं, लेकिन फिल्म उद्योग में निश्चित रूप से बंटवारे की गहरी खाई है और 2014 के बाद से मोदी के पांच साल के कार्यकाल के दौरान जो हुआ, अतीत में कभी भी ऐसा नहीं हुआ था। हालांकि, फिल्म निर्माता अनुभव सिन्हा का कहना है कि इसमें कुछ भी असामान्य नहीं है। उन्होंने आउटलुक को बताया, “फिल्म उद्योग बाकी देश की तरह ही व्यवहार कर रहा है। बात चाहे जाति, धर्म या किसी भी अन्य कारक की हो, आज हमारे समाज का ध्रुवीकरण हो गया है। फिल्म उद्योग में भी इसी तर्ज पर जंग की रेखाएं खींच गई हैं।”

 

मशहूर फिल्म मुल्क (2018) में एक युवा हिंदू लड़की की अपने मुस्लिम ससुराल वालों के सम्मान को बहाल करने के लिए कानूनी लड़ाई की कहानी है। इसमें हिंदू लड़की दक्षिणपंथियों से लोहा लेती है। इस फिल्म के निर्माता अनुभव फिल्म उद्योग के भीतर इस व्यापक विभाजन से बिलकुल हैरान नहीं हैं। वे कहते हैं, “मैंने वास्तव में इसे पांच साल पहले भांप लिया था, जब एक हस्ताक्षर अभियान शुरू किया गया था। हालांकि, तब यह इतना बुरा नहीं था। फिल्म उद्योग कम-से-कम दो समूहों में बंट गया है और अब इसके भीतर विरोध के लिए कोई जगह नहीं है।”

अनुभव का अपना तर्क है। इन दिनों बॉलीवुड में जो कुछ भी हो रहा है, वह निश्चित रूप से असामान्य नहीं है। 2014 के आम चुनावों के दौरान लगभग 60 फिल्मी हस्तियों ने इसी तरह का हस्ताक्षर अभियान चलाया था। इन हस्तियों में महेश भट्ट, इम्तियाज अली, विशाल भारद्वाज, नंदिता दास, गोविंद निहलाणी, सईद मिर्जा, जोया अख्तर, नंदिता दास और अदिति राव हैदरी शामिल थीं। इन सभी ने लोगों से धर्मनिरपेक्ष पार्टी को वोट देने की अपील की थी। मोदी ने जब चुनाव अभियान की कमान संभाल ली थी, तो उन्होंने उस दौरान कहा था, “आज, भारत की मूल भावना बहुत कमजोर है। आज वक्त की जरूरत है कि हम अपने देश की धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद की हिफाजत करें...भारतीय नागरिक जो हमारी मातृभूमि से मोहब्बत करते हैं, हम आपसे धर्मनिरपेक्ष पार्टी को वोट देने की अपील करते हैं, जिसके चुनाव में जीतने की सबसे अधिक संभावना है।”

उन दिनों मधुर भंडारकर, विवेक ओबेरॉय और तुषार कपूर जैसे कुछ फिल्मी सितारों ने मोदी के नेतृत्व वाली तथाकथित विभाजनकारी ताकतों को रोकने के नाम पर बॉलीवुड जैसी धर्मनिरपेक्ष जगह को बांटने का आरोप लगाया था। लेकिन पिछले पांच वर्षों में मोदी के कट्टर समर्थकों की संख्या में भारी बढ़ोतरी हुई है। तब शायद ही किसी को कोई आश्चर्य होता कि विवेक ओबेरॉय, कोयना मित्रा, पल्लवी जोशी, शंकर महादेवन और अनुराधा पौडवाल सहित विभिन्न क्षेत्रों के 900 से अधिक हस्तियां मोदी के समर्थन में संयुक्त बयान जारी कर लोगों से भाजपा के पक्ष में वोट करने की अपील करते।

फिल्मी हस्तियों और कलाकारों की यह अपील बेशक भाजपा और मोदी विरोधी अभियान की धार को कुंद करने के लिए थी। संयुक्त बयान में कहा गया है, “देश को ‘मजबूर सरकार नहीं, मजबूत सरकार’ चाहिए। यह हमारा दृढ़ विश्वास है कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली सरकार का बने रहना वक्त की जरूरत है... हमारा मानना है कि पिछले पांच वर्षों के दौरान भारत ने एक ऐसी सरकार देखी है, जिसने भ्रष्टाचार मुक्त सुशासन और विकास दिया है।”

राजीव गांधी के साथ अमिताभ बच्चन

फिल्म-निर्माता विवेक अग्निहोत्री फिल्म उद्योग के भीतर और बाहर वामपंथियों पर तीखा हमला करने के लिए जाने जाते हैं। उनका कहना है कि तथाकथित कलाकारों के एक समूह द्वारा एक पार्टी के खिलाफ वोट के लिए अपील करना लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है। उन्होंने आउटलुक को बताया, “अगर उन्होंने मोदी सरकार की जगह किसी खास पार्टी के खिलाफ अपील की होती, तो मैं उनकी सराहना करता। अपील करने वालों में आधे से अधिक कम्युनिस्ट पार्टियों के कार्डधारक हैं और यह सिर्फ उनके पाखंड को बताता है।”

लालबहादुर शास्‍त्री की मृत्यु पर द ताशकंद फाइल्स फिल्म बनाने वाले अग्निहोत्री तर्क देते हैं कि जैसे किसी भी परिवार के सदस्यों की एक जैसी राजनैतिक विचारधारा होना अनिवार्य नहीं है, वैसे ही फिल्म उद्योग में विभाजन होना सामान्य बात है। वे कहते हैं, “समस्या तब पैदा होती है जब लोग दूसरों को प्रभावित करने के लिए अपने पद का दुरुपयोग करने लगते हैं।” एक समय था जब सुनील दत्त को कोई इस वजह से बुरा-भला नहीं कहता था कि वह कांग्रेस से जुड़े थे। लेकिन आज अनुपम खेर और मेरे जैसे लोग उद्योग में अलग-थलग पड़ गए हैं, क्योंकि हम राजनैतिक मुद्दों पर स्पष्ट विचार प्रकट करते हैं। मेरी ताजा फिल्म को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया। विडंबना यह भी है कि फिल्म के स्टार भी इसके बारे में बात करने से इनकार करने लगे। यहां काम का अभाव होने पर ही अनुपम खेर को हॉलीवुड शिफ्ट होना पड़ा।

अगर यह सच है तो पता चलता है कि बॉलीवुड में पहले कभी ऐसी संकुचित सोच नहीं दिखाई दी। आखिरकार, बलराज साहनी, कैफी आजमी, शबाना आजमी, ओम पुरी, ए.के. हंगल और अन्य कई अभिनेता भाकपा की कल्चरल विंग इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) से जुड़े थे। लेकिन किसी ने उन्हें इस बिना पर काम देना बंद नहीं किया या उनके प्रदर्शन का आकलन नहीं किया कि वे किसी खास राजनैतिक विचारधारा से प्रभावित हैं। जैसे सुनील दत्त और नरगिस जीवन भर इंदिरा गांधी के कट्टर समर्थक रहे लेकिन कभी भी उनके प्रति सह कलाकारों का व्यवहार नहीं बदला, जिन्हें सत्तर के दशक के मध्य में कांग्रेस सरकार द्वारा लागू इमरजेंसी का शिकार होना पड़ा था। उस दौर में गुलजार की आंधी पर प्रतिबंध लगा दिया गया, जिसके बारे में माना जाता है कि वह इंदिरा के जीवन पर आधारित थी। अमृत नाहटा की किस्सा कुर्सी का पर भी इमरजेंसी की काली छाया पड़ी थी। आकाशवाणी ने किशोर कुमार के गानों पर महज इस वजह से रोक लगा दी थी कि उन्होंने संजय गांधी द्वारा आयोजित सरकार समर्थित कंसर्ट में गाना गाने से इनकार कर दिया था।

उस दौर में फिल्म उद्योग में काफी समरसता थी। अपनी राजनैतिक विचारधारा के आधार पर कलाकारों ने कभी दत्त और नरगिस द्वारा आयोजित चैरिटी कार्यक्रमों में हिस्सा लेने से इनकार नहीं किया। एक बार तो कांग्रेस की राज्यसभा सदस्य नरगिस ने फिल्म के जरिए देश की गरीबी दिखाने के लिए सत्यजीत रे की आलोचना भी की, फिर भी दत्त दंपती को उद्योग के सभी वर्गों के लोगों का समर्थन मिलता रहा।

इसके पीछे मुख्य वजह यह थी कि उस समय फिल्म उद्योग के लोग कभी भी पेशागत और राजनैतिक प्रतिबद्धताओं में घालमेल नहीं करते थे। वे किसी राजनैतिक पार्टी की नीतियों के कट्टर समर्थक या विरोधी नहीं होते थे। जब देवानंद ने इंदिरा गांधी सरकार की नीतियों के खिलाफ आम चुनाव लड़ने के लिए नेशनल पार्टी नाम का राजनैतिक संगठन बनाया, तो उन्हें फिल्म उद्योग के लोगों का समर्थन मिला। जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद जल्दी ही यह पार्टी भंग कर दी गई, कांग्रेस के किसी भी समर्थक ने 1980 में इंदिरा गांधी की सरकार की वापसी के बाद इस सदाबहार फिल्म स्टार के खिलाफ दुर्भावना नहीं दिखाई।

अमिताभ बच्चन के मामले में भी यही हुआ। वे अपने बचपन के मित्र राजीव गांधी के आग्रह पर कांग्रेस में शामिल हो गए और इलाहाबाद से 1984 में लोकसभा चुनाव लड़ा और जीता। हालांकि तीन साल बाद उनका नाम बोफोर्स घोटाले में घसीटे जाने पर उन्होंने राजनीति को अलविदा कह दिया। इसके बाद उन्होंने शहंशाह (1988) के साथ अपनी फिल्मी पारी फिर शुरू की। लेकिन राजनीति में उतरने के कारण उन्हें कभी भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा।

इन दोनों फिल्मी सितारों के बीच मतभेद 1990 के शुरू में ही तब उभरे जब राजेश खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा ने नई दिल्ली लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में एक-दूसरे से मुकाबला किया। राजेश खन्ना ने इस चुनाव में जीत हासिल की, लेकिन उन्हें जीवन भर शत्रुघ्न से एक शिकायत रही कि उन्होंने एक ही क्षेत्र के होने और दोस्त होने के बावजूद उनके खिलाफ चुनाव लड़ा। शत्रुघ्न, जिन्होंने बाद में अपने ही साथी के खिलाफ चुनाव लड़ने के फैसले को बड़ी भूल मानी, ने खन्ना से माफी भी मांगी। लेकिन उन दोनों के संबंध कभी भी पहले जैसे नहीं हो पाए। फिर भी उनमें से किसी ने अपने मतभेद सार्वजनिक नहीं किए। 2009 में पटना साहिब लोकसभा क्षेत्र से भाजपा प्रत्याशी के रूप में शत्रुघ्न सिन्हा को इसी तरह की स्थिति का सामना करना पड़ा, जब कांग्रेस ने उनके खिलाफ उनके साथी अभिनेता शेखर सुमन को उतार दिया। शत्रुघ्न ने आसानी से चुनाव जीत लिया लेकिन बिहार के रहने वाले इन दोनों फिल्मी सितारों के आपसी रिश्तों में कई साल तक खटास रही, जब तक उन्होंने पुरानी बातों को भुलाने का फैसला नहीं किया।

फिल्म लेखक विनोद अनुपम कहते हैं कि हाल के समय में स्थिति और खराब हुई है क्योंकि फिल्म उद्योग विभिन्न खेमों में बंट गया है। उनका कहना है, “एक समय था जब राज कपूर, दिलीप कुमार और देवानंद तीनों ही नेहरू से मिलने के लिए खुशी-खुशी एक साथ जाते थे, लेकिन आज टॉप स्टार मुश्किल से ही एक साथ दिखाई देते हैं। इससे भी बढ़कर उन लोगों के बीच तनाव बढ़ने की खबरें भी आती रहती हैं।”

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अभिनेता अक्षय कुमार

राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता आलोचक मानते हैं कि आज की गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में वित्तीय असुरक्षा ने उद्योग में झगड़े बढ़ाए हैं। वे एक पहलू की ओर ध्यान दिलाते हैं कि उद्योग में भाजपा जैसी कांग्रेस विरोधी और वामपंथ विरोधी ताकतों का उभार हुआ है। वे कहते हैं, “शिक्षित लोगों की पूरी नई जमात ने भी फिल्मों में कदम रखा है, और वे अपने तय विश्वास और विचारधारा के साथ आए हैं।”  वे सोचते हैं कि वे उद्योग के भीतर अपने लिए स्थान खुद ही बना लेंगे और अपनी फिल्मों के माध्यम से अपनी विचारधारा का प्रचार भी कर सकेंगे। उदाहरण के लिए अनुराग कश्यप की मुक्का (2018) में एक चरित्र कहता है, “आएंगे भारत माता की जय बोलते हुए और अटैक करके चले जाएंगे।” यह ट्रेंड अच्छा नहीं है क्योंकि फिल्म सीमित दर्शकों के लिए नहीं बनाई जा सकती है।”

लेकिन पिछले दौर की तुलना में क्या अब यह प्रायः आम होने लगा है? क्या सिनेमा का इस्तेमाल किसी खास विचारधारा को राजनैतिक लाभ पहुंचाने के लिए नहीं हो रहा है? 2016 में पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक पर बनी उड़ी इस साल अब तक की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म बन गई। लेकिन फिल्म के निर्माताओं पर आरोप लगे कि फिल्म में प्रधानमंत्री मोदी और उनके सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल का महिमामंडन किया गया है। मोदी सरकार के सबसे पक्के समर्थकों में से एक अनुपम खेर ने एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टिर (2018) में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की भूमिका निभाई थी। इस फिल्म में कांग्रेस के पूर्व प्रधानमंत्री की कहानी है, जिन्हें तमाम दबावों के बीच काम करना पड़ता है। हाल में मोदी पर बॉयोपिक में विवेक ओबेरॉय ने मुख्य भूमिका निभाई है। लेकिन चुनाव आयोग ने इसे मंजूरी नहीं दी, क्योंकि आदर्श आचार संहिता लागू है। रूपेश पॉल की राहुल गांधी पर बॉयोपिक माइ नेम इज रागा के साथ भी यही हुआ। 

वास्तव में ये सभी फिल्में उद्योग के विभाजन का स्वाभाविक नतीजा हैं। यह विभाजन मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से महसूस किया गया है। अक्षय कुमार, अजय देवगन और कंगना रनौत जैसे कई कलाकारों ने खुलकर मोदी का समर्थन किया। अक्षय कुमार ने हाल में जहां मोदी का बहुचर्चित गैर-राजनैतिक इंटरव्यू लिया, वहीं देवगन ने 2014 में भाजपा के लिए खासतौर पर प्रचार किया था। पिछले साल कंगना ने कहा था कि मोदी 2019 के लोकसभा चुनाव में दोबारा सत्ता में आने के योग्य हैं, क्योंकि वे लोकतंत्र के असली नेता हैं। उन्होंने कहा, “वे अपने माता-पिता के कारण इस पद पर नहीं पहुंचे हैं। यहां तक पहुंचने के लिए उन्होंने कड़ा परिश्रम किया है। प्रधानमंत्री के रूप में उनकी साख पर कोई संदेह नहीं है।”

इस साल के शुरू में फिल्म निर्माता करण जौहर, रणबीर कपूर, रणवीर सिंह, वरुण धवन, आलिया भट्ट सहित बॉलीवुड के बड़े सितारों ने दिल्ली में मोदी से मुलाकात की और मोदी के साथ सेल्फी पोस्ट की। दूसरी ओर, नसीरुद्दीन शाह, अमोल पालेकर, नंदिता दास, शबाना आजमी, रिचा चड्ढा, स्वरा भास्कर, अदिति राव हैदरी जैसे कलाकार मोदी के आलोचक रहे हैं। पुणे स्थित फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एफटीआइआइ) के प्रमुख के रूप में गजेंद्र सिंह या अनुपम खेर और सेंसर बोर्ड प्रमुख के रूप में पहलाज निहलाणी की नियुक्ति समेत मोदी सरकार के कई फैसलों की मोदी विरोधी खेमे की ओर से कड़ी आलोचना की गई।

हाल में जब अक्षय कुमार ने मोदी का गैर-राजनैतिक इंटरव्यू लिया तो रंग दे बसंती के अभिनेता सिद्धार्थ ने उनकी यह कहते हुए आलोचना की कि केसरी स्टार खलनायक के रूप में बहुत हल्के हैं। सामाजिक और राजनैतिक मुद्दों पर अपने विचारों के लिए पहचाने जाने वाले इस तमिल अभिनेता ने इससे पहले भी टिप्पणी की थी कि मोदी के बायोपिक (विवेक ओबेरॉय की मुख्य भूमिका वाली) के ट्रेलर में यह कैसे छूट गया कि मोदी ने अकेले ही ब्रिटिश साम्राज्य का सफाया करके भारत को कैसे स्वतंत्रता दिलाई।

तेजी से बंटे बॉलीवुड में इन सभी टकरावों के के बीच कई शीर्ष कलाकार ऐसे भी हैं, जिन्होंने चुप्पी साध रखी है। इसके विपरीत 2016 में चुनाव जीतने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को निशाना बनाने के लिए हॉलीवुड के बड़े सितारों को कोई खेद नहीं हुआ। डायरेक्टर अनुभव सिन्हा कहते हैं कि बड़े सितारों के विवादों में घिरने की सबसे ज्यादा आशंका रहती है। वे सत्ता में आसीन लोगों के खिलाफ बोलने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं। वे कहते हैं, “अगर वे किसी संवेदनशील मुद्दे पर बोलते हैं तो वे उनके जीवन को नरक बना देंगे। समस्या यह है कि आज के दौर में आप मौन भी नहीं रह सकते हैं। आपको किसी के पक्ष में बोलना ही होगा, वरना आपको विपक्षी मानकर संदेह की नजर से देखा जाएगा।”

यह सत्य है। जब नसीरुद्दीन शाह और आमिर खान ने असिहुष्णता की बढ़ती घटनाओं, जिनमें कुछ समय पहले देश भर में मॉब लिंचिंग के कई मामले सामने आए थे, पर चिंता जताई तो उन्हें ट्रोल किया गया। नसीरुद्दीन ने आरोप लगाया था कि देश में गाय के जीवन का महत्व एक पुलिस अधिकारी के जीवन से ज्यादा हो गया है। आमिर ने कहा था कि उनकी पत्नी मौजूदा हालात को देखकर देश छोड़ने के बारे में बात करने लगती हैं। कई लोग कलाकारों के बयानों को राजनैतिक मकसद से मोदी के खिलाफ मानते हैं।

अभिनेता से नेता बनीं वाणी त्रिपाठी कहती हैं कि आज के समय बहुत कम थिएटर कलाकार मोदी के खिलाफ हैं जबकि अधिकांश बड़े सितारे उनके पक्के समर्थक हैं। “मुझे आश्चर्य होता है कि मोदी विरोधी समूह ने पांच साल में सिर्फ इस समय ही अभियान क्यों चलाया, जब चुनाव होने वाले हैं? बाकी समय में उन्होंने उद्योग के समक्ष आने वाले वास्तविक मुद्दों को सुलझाने के लिए क्या कदम उठाए?”

त्रिपाठी कहती हैं कि उद्योग का पहले का सीधा विभाजन ही वास्तव में आज का वैचारिक विभाजन है। “उद्योग की पिछली पीढ़ियां या तो कांग्रेस समर्थक थीं या वामपंथ समर्थक थीं। वर्षों तक फिल्म और साहित्य जैसे कलात्मक क्षेत्रों में दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों के लिए कोई स्थान नहीं था। इसलिए जब दूसरी तरह की विचारधारा के लोग मुखर हुए और पिछले कई वर्षों की यथास्थिति को चुनौती दी तो विभाजन तो होना ही था।”

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