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हमारे समय में ‘स्वतंत्रता’

हिंसा या बल-प्रयोग का सहारा लेना लोकतंत्रीय तरीकों और भविष्य से विश्वासघात
बदल रहे स्वतंत्रता के मायने

विश्व के कई विचारक खुला, स्वतंत्र और निष्पक्ष मतदान को लोकतंत्र का मूलमंत्र बताते हैं। भारत में आम आदमी के लिए भी लोकतंत्र का अर्थ है-निर्वाचन और मतपत्र। लेकिन लोकतंत्र का वास्तविक अर्थ केवल मतदान नहीं, बल्कि लोक-विमर्श है। समाज और शासन में स्वतंत्र और तर्कपूर्ण लोक-विमर्श का अवसर नहीं रहे, तो लोकतंत्र साकार नहीं हो सकता।

भारत में एक संस्था के रूप में गणतंत्र की धारणा और लोक-विमर्श की परंपरा गौतम बुद्ध के समय से चली आ रही है। ईसा पूर्व तीसरी सदी में सम्राट अशोक ने लोक-विमर्श को साकार करने के लिए कुछ अच्छे नियम बनाकर स्तंभों में लिखवा दिए थे। इस तरह स्वतंत्र रूप से विचार करने और उसे अभिव्यक्त करने की परंपरा भारत की सांस्कृतिक विरासत है। तर्कसंगत बहस करना और कभी-कभी भावनात्मक वैचारिक मुठभेड़ करना आम भारतीय के व्यक्तित्व का आनुवंशिक गुण हैं।

यह भी वास्तविकता है कि 18वीं शताब्दी में हुई फ्रांसीसी क्रांति के स्वतंत्रता, समता और बंधुता के नारे ने 20वीं शताब्दी में भारत के स्वतंत्रता संग्राम के नायकों को बहुत प्रभावित किया। इन प्रबुद्ध नायकों ने विश्व के कई लोकतांत्रिक देशों के संविधानों के मूल सिद्धातों और फ्रांसीसी क्रांति के मूल विचार को भारतीय लोकतंत्र के लिए आदर्श माना। यही कारण है कि भारत के संविधान की उद्देशिका में ये सिद्धांत और विचार इस रूप में प्रतिष्ठित किए गए हैं कि उन्हें किसी भी स्थिति में हटाया या परिवर्तित नहीं किया जा सकता। संविधान की उद्देशिका में उल्लिखित ‘स्वतंत्रता’ का बुनियादी संबंध विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता से है। लेकिन वहां ‘स्वतंत्रता’ एकाकी सिद्धांत के रूप में नहीं है, बल्कि वह सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता तथा बंधुता से बंधी और गुंथी है।

संविधान निर्मात्री सभा में डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने कहा था, “लोकतंत्र शासन करने का एक तरीका ही नहीं है, बल्कि मिलजुल कर जीवन जीने की एक राह है।” उन्होंने लोकतंत्र को विमर्श के द्वारा शासन करने का सिद्धांत बताया था। सार्वजनिक रूप से तर्क करना और शासन की नीतियों का परीक्षण करना भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है। लोकतंत्र की शर्त अब यही है- मतदाता को अकेले या सामूहिक रूप से तर्क प्रस्तुत करने का अवसर है या नहीं?

सामाजिक समानता के लिए राजनैतिक आवाज महत्वपूर्ण होती है। सामाजिक अवसरों के समतापूर्वक विस्तार का संबंध आर्थिक विकास की दिशा से होता है। लोकतंत्र में लोगों का यह अधिकार है कि वे किसी सामाजिक और आर्थिक समस्या पर आवाज उठाकर शासन की नीति बदलने के लिए दबाव डालें, भले ही समस्या कितनी ही पुरानी और जटिल क्यों न हो। प्रतिरोध की आवाज कमजोर होने पर सामाजिक अवसर के बढ़ने की गति धीमी हो जाती है, आर्थिक विकास की शक्ति क्षीण हो जाती है।

इस समय विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धर्म तथा उपासना की स्वतंत्रता के अधिकारों को लेकर राजनैतिक विवाद चल रहा है। पिछले कुछ समय से धर्मनिरपेक्षता और हिंदुत्व को लेकर जमीनी स्तर से लेकर शीर्ष राजनैतिक स्तर पर बहस चल रही है। जमीनी स्तर पर यह बहस कई बार हिंसक रूप लेकर कानून-व्यवस्था की समस्या खड़ी कर रही है, तो कलाकारों, लेखकों और बुद्धिजीवियों के बीच वह अस्तित्व की रक्षा का प्रश्न बनती दिखाई दे रही है। यह बहस सार्वजनिक मंचों से लेकर विधायिका के मंचों तक राजनैतिक अलगाव के रूप में सामने आ रही है। मतभेद के कारण उठी वैचारिक ज्वाला की तेज आंच से भारतीय लोकतंत्र का बुनियादी ढांचा भी आहत होता नजर आ रहा है।

धर्म मनुष्य की आशा है और वह नई दुनिया को शक्ति दे सकता है। धर्म दूसरों की आस्थाओं और रीति-रिवाज का आदर करना सिखाता है। इस तरह के आदर करने से जो एकता पैदा होती है उसमें प्रत्येक धर्म को अपनी अभिव्यक्ति का पूरा अवसर होता है। भारत ने अपने संविधान में धर्मनिरपेक्षता को एक मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में उद्देशिका में प्रतिष्ठित किया है।

समझाना, तर्क करना और विरोधी मतों में सामंजस्य स्थापित करना ही लोकतंत्रीय प्रणाली है। लोकतंत्र प्रेम को घृणा से, सहयोग को विरोध से और राजी करने को हुक्म देने से अच्छा समझता है। आज के समय में हिंसा या बल-प्रयोग का सहारा लेना लोकतंत्रीय तरीकों से डरकर भागना और भविष्य के साथ विश्वासघात करना है।

( लेखक लोककला, संस्कृति विषयक लेखक, छत्तीसगढ़ के पूर्व राज्य निर्वाचन आयुक्त हैं)

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