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हाशिए पर दलित

कई ऐसे नीतिगत फैसले हुए जिनसे दलितों को उनके संवैधानिक अधिकार कम होने की आशंका
कौन जिम्मेदार

शुरुआत राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के निराशाजनक तथ्य से करते हैं। इस साल की शुरुआत में आई इसकी रिपोर्ट के अनुसार दलितों के खिलाफ अपराध में उत्तर प्रदेश सबसे ऊपर है। इनमें बलात्कार, हत्या और जमीन से जुड़े विवाद शामिल हैं। इन अपराधों में 2014 से 2018 के दौरान 45 फीसदी बढ़ोतरी हुई। इसके बाद गुजरात, हरियाणा, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र हैं। जिस समय का यह रिकॉर्ड है उस समय इन राज्यों में भाजपा की सरकारें थीं। ये वे राज्य हैं (कर्नाटक, राजस्थान और पश्चिम बंगाल समेत) जहां भाजपा को अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों में सबसे अधिक, 46 पर जीत हासिल हुई थी।

इन्हीं वर्षों के दौरान मौलिक अधिकारों और संवैधानिक सिद्धांतों का निरंतर क्षरण भी देखने को मिला। मार्च 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा फैसला दिया जो एससी-एसटी (प्रिवेंशन ऑफ एट्रोसिटीज) एक्ट 1979 को कमजोर करने वाला था। इसके बाद दलित संगठनों ने देशव्यापी बंद का आयोजन किया। आमतौर पर यह बंद शांतिपूर्ण रहा, हालांकि कुछ जगहों पर ऊंची जाति के लोगों की तरफ से बंद का विरोध करने के कारण झड़पें भी हुईं। पहली बार जाने-माने दलित नेता और तत्कालीन केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान को संसद में ऐसे मुद्दे पर बोलते देखा गया। संभव है कि वह सुनियोजित हो। तब केंद्र सरकार ने कानून के मूल प्रावधानों को यथावत रखने का फैसला किया। केंद्र सरकार की अपील के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी अपना निर्णय वापस ले लिया। पासवान ने आशंका जताई थी कि इस फैसले से दलितों में गलत संदेश जा रहा है और देश में विरोध बढ़ सकता है। दरअसल, कई ऐसे नीतिगत फैसले हुए जिनसे दलितों को यह आशंका होने लगी है कि उनके संवैधानिक अधिकारों पर कैंची चलाई जा रही है और धीरे-धीरे आरक्षण भी खत्म किया जा सकता है।

भाजपा और एनडीए में इसके सहयोगी दलों से जो दलित प्रतिनिधि चुनकर आए हैं, उन्होंने हाथरस में हुई घटना पर या तो चुप्पी साधे रखना उचित समझा या बहुत कम प्रतिक्रिया दी। उनका यह व्यवहार प्रतिनिधित्व की राजनीति और उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति के बारे में कई सवाल खड़े करता है। महिला प्रतिनिधियों को ही लीजिए। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश की 11 महिला सांसदों और 38 महिला विधायकों में से गिनी-चुनी प्रतिनिधियों ने ही ‘समाज में बुरे तत्व’ की बात बड़ी हिचकिचाहट के साथ स्वीकार की। एक ने तो यहां तक कह दिया कि मौजूदा सरकार के कार्यकाल में संगठित अपराध कम हुआ है और किसी निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए। हाथरस के भाजपा सांसद राजवीर सिंह दिलेर तो अलीगढ़ जेल पहुंच गए और खबरों के अनुसार, अपराधियों और जेलर के साथ बैठकर चाय पी। उत्तर प्रदेश के ज्यादातर दलित भाजपा सांसदों और विधायकों ने सिर्फ इतना कहा कि इस घटना ने पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचाया है। इसके लिए भी उन्होंने बसपा और सपा के कार्यकाल में नियुक्त पुलिस अधिकारियों को दोषी ठहराया और अपने मुख्यमंत्री पर पूरा भरोसा जताया।

दरअसल, उत्तर प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य दो भागों में बंटा हुआ है। पहला, पहचान अथवा जुड़ाव की राजनीति और दूसरा, रोटी कपड़ा और मकान की राजनीति। सपा, बसपा, कांग्रेस और भाजपा सब इसी हिसाब से बंटी हुई हैं। कांग्रेस और भाजपा ने अपने नजरिए को अपने वैचारिक झुकाव के अनुसार थोड़ा बदला है। चुनाव प्रचार और घोषणा पत्र से पार्टियों के नजरिए का पता चलता है। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद कांग्रेस अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण की बात करने लगी है। यह बदलाव बसपा में भी दिखता है। चुनाव प्रचार में पार्टी नेता मायावती का नारा था ‘जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’। ऊंची जाति के मतदाताओं के गरीब वर्ग के लिए आरक्षण बसपा के प्रमुख राजनीतिक लक्ष्यों में नहीं रह गया। यह एक तरह से जुड़ाव की राजनीति और रोटी, कपड़ा और मकान की राजनीति दोनों का मिलाजुला रूप है। इसलिए राजपूत और ब्राह्मण उम्मीदवारों को ज्यादा सीटें दी गईं। भाजपा ‘हमारे सपनों का उत्तर प्रदेश’ नारे के जरिए ओबीसी को संदेश दे रही थी, तो दूसरी तरफ दलितों को जोड़ने का प्रयास कर रही थी। इसी तरह बिहार में जदयू ने एक तरफ ऊंची जाति के साथ गठबंधन किया तो दूसरी तरफ दलितों, पसमांदा मुस्लिम और महादलितों के साथ भी हाथ मिलाया।

संविधान का मसौदा पेश करते हुए आंबेडकर ने एक अंतर्विरोध की बात कही थी, “राजनीतिक परिदृश्य में तो भेदभाव विरोधी सिद्धांत की बात होती है, लेकिन सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य में भेदभाव और असमानता बनी रहती है।” सामाजिक और आर्थिक अधिकार दिला कर हर वर्ग के लिए सम्मान और न्याय सुनिश्चित करना राज्य की जिम्मेदारी है। अनटचेबिलिटी ऑफेंसेस एक्ट 1955, प्रोटक्शन ऑफ सिविल राइट्स एक्ट 1974, एससी-एसटी (प्रिवेंशन ऑफ एट्रोसिटीज) एक्ट 1989 जैसे कानूनों के जरिए कई तरह के अपराधों को जातिगत हिंसा के दायरे में लाया गया है, खासकर यौन हिंसा को। फिर भी आंबेडकर ने भारत के संविधान का प्रस्ताव पेश करते हुए राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक असमानता को लेकर जो चिंताएं जाहिर की थीं, वे आज भी बरकरार हैं।

(लेखिका नीति विश्लेषक हैं। यहां व्यक्त विचार निजी हैं)

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