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अब दारोमदार अमल पर

पहली और दूसरी शिक्षा नीति के अनेक प्रस्तावों पर अमल नहीं, इसलिए तीसरी नीति पर संशय
पांचवीं तक की पढ़ाई मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में होगी

साल 1968 में घोषित पहली शिक्षा नीति हर आदमी के जीवन को समृद्ध करने, राष्ट्र की प्रगति और सुरक्षा में उन्हें योगदान देने की शक्ति देने, साझी नागरिकता और संस्कृति को बढ़ावा देने और राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने की परिकल्पना पर आधारित थी। तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने इसकी घोषणा की थी। हर स्तर पर गुणवत्ता में सुधार, शिक्षा के अवसर के निरंतर विस्तार, विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी पर फोकस के साथ 14 वर्ष की आयु तक के बच्चों के लिए अनिवार्य शिक्षा और नैतिक मूल्यों के विकास की इस नीति में शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल बदलाव की जरूरत बताई गई थी।

पहली शिक्षा नीति भारतीय शिक्षा आयोग (1964-66), जिसे कोठारी आयोग के नाम से जाना गया, की सिफारिशों के आधार पर तैयार की गई थी। राज्यों के ज्यादा रुचि न दिखाने के कारण उसके ज्यादातर प्रस्ताव कागजों पर ही रह गए। इसका एक प्रमुख कारण यह था कि इसमें 10+2+3 पैटर्न को पूरे देश में एक समान लागू करने की बात कही गई थी, लेकिन तब तक संविधान के तहत शिक्षा पूर्ण रूप से राज्य का विषय था।

42वें संविधान संशोधन के माध्यम से 1976 में शिक्षा को संविधान की समवर्ती सूची में शामिल किया गया और इसके अगले साल 10+2+3 पैटर्न भी लागू किया गया। हालांकि बाद के वर्षों में शैक्षिक सुविधाओं में व्यापक विस्तार दिखा, लेकिन 1968 की नीति की अनेक बातों पर अमल न हो सका। नतीजा यह हुआ कि शिक्षा की पहुंच, गुणवत्ता, उपयोगिता और खर्च जैसी समस्याएं साल दर साल बढ़ती गईं।

समस्या के समाधान के लिए मई 1986 में राजीव गांधी सरकार दूसरी शिक्षा नीति लेकर आई। 1992 में प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव के शासनकाल में इसमें कुछ अतिरिक्त बातें जोड़ी गईं। इनमें शिक्षा की पहुंच के नए लक्ष्य तय करने के साथ परीक्षा प्रणाली में सुधार करना शामिल था। 1986 की नीति में सबको प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराने, ऐसी व्यवस्था करने जिससे 14 वर्ष तक के बच्चे स्कूल न छोड़ें और शिक्षा की गुणवत्ता में व्यापक सुधार को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई। सबको शिक्षा का समान अवसर उपलब्ध कराने के साथ उच्च शिक्षा की गुणवत्ता और मानकों में सुधार पर भी जोर दिया गया।

इसके अलावा, प्रौढ़ शिक्षा, प्राथमिक स्तर से पहले के बच्चों की देखभाल और शिक्षा (ईसीसीई), रोजगारपरक शिक्षा, भारतीय भाषाओं को बढ़ावा और मूल्यपरक शिक्षा दूसरी नीति के मुख्य आधार थे। इसमें शोध को बढ़ावा देने के अलावा छात्रों को करिअर के विकल्प के रूप में स्वरोजगार के लिए प्रोत्साहित किया गया। 1986 की नीति लागू होने के बाद शिक्षण सुविधाओं का काफी विस्तार हुआ। हालांकि शिक्षा का अधिकार (आरटीई) कानून लागू करने में 41 साल लग गए। इसे अंततः 2009 में लागू किया जा सका। अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण के अनुसार देश में 993 विश्वविद्यालय, 39,931 महाविद्यालय और 10,725 स्टैंडअलोन संस्थान हैं। इनकी बदौलत भारत, अमेरिका और चीन के बाद उच्च शिक्षा संस्थानों का तीसरा सबसे बड़ा नेटवर्क बन गया है। स्कूलों की संख्या भी 15.50 लाख हो गई, जिनमें 24.78 करोड़ छात्र पढ़ते हैं। फिर भी, पहली और दूसरी नीति के कई एजेंडे अभी अधूरे हैं।

इसे आगे बढ़ाने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार हाल ही नई शिक्षा नीति लेकर आई है। इसमें स्कूल और उच्च शिक्षा प्रणाली की गुणवत्ता सुधारने और उन्हें अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप बनाने के लिए बड़े ‘परिवर्तनकारी सुधार’ प्रस्तावित हैं। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए नई शिक्षा नीति-2020 में 10+2 पाठ्यक्रम को 5+3+3+4 में बदलने का प्रस्ताव है, ताकि तीन से 18 वर्ष के छात्रों के लिए ईसीसीई को औपचारिक स्कूली शिक्षा का अभिन्न अंग बनाया जा सके और 2030 तक स्कूली शिक्षा सर्वसुलभ हो।

स्कूली शिक्षा के शुरुआती चरण में ही कंप्यूटर साक्षरता की बात कही गई है ताकि छात्रों को 21वीं सदी के कौशल से लैस किया जा सके। छठी कक्षा से ही व्यावसायिक शिक्षा को मुख्यधारा की शिक्षा के साथ जोड़ने का प्रस्ताव है, ताकि 2025 तक कम से कम 50 फीसदी छात्रों को रोजगारन्मुखी शिक्षा मिल सके। बच्चे बेहतर तरीके से सीख सकें, इसके लिए एनईपी-2020 में कम से कम पांचवीं कक्षा तक बच्चों को उनकी मातृभाषा, घरेलू भाषा या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाने पर जोर दिया है। इसमें यह सुनिश्चित करने को कहा गया है कि कक्षा तीन उत्तीर्ण होने तक छात्र बुनियादी साक्षरता और संख्या ज्ञान हासिल कर लें।

छात्रों में परीक्षा का तनाव कम करने और रटने की व्यवस्था समाप्त करने के लिए, नीति में पाठ्यक्रम को फिर से डिजाइन करने का प्रस्ताव है ताकि कोर्स घटाया जा सके। इसमें मूल्यांकन प्रणाली में बदलाव और बोर्ड परीक्षाओं को ‘आसान’ बनाने का भी प्रस्ताव है, ताकि इसे छात्रों की याद करने की क्षमता की परीक्षा के बजाय ज्ञान की परीक्षा बनाया जा सके।

इस नीति में सभी विश्वविद्यालयों के लिए समान प्रवेश परीक्षा आयोजित करने और अन्य प्रवेश परीक्षाओं में बदलाव का प्रस्ताव है। छात्रों के पास 10वीं के बाद पढ़ाई कुछ समय के लिए रोकने और बाद में फिर 11वीं कक्षा में प्रवेश लेने का विकल्प होगा। एनईपी-2020 में अंडर-ग्रेजुएट की पढ़ाई चार साल करने और इसे बहुविषयक बनाने का प्रस्ताव है। छात्रों के पास किसी भी वर्ष पढ़ाई छोड़ने और बाद में फिर दाखिला लेने का विकल्प होगा। यह सुविधा तीन साल के अंडर-ग्रेजुएट कोर्स में दाखिला लेने वालों को भी मिलेगी। यदि कोई छात्र पहला साल पूरा करने के बाद पढ़ाई छोड़ता है तो उसे सर्टिफिकेट, दूसरे साल के बाद डिप्लोमा और तीसरे साल के बाद स्नातक की डिग्री प्रदान की जाएगी।

चार साल के बहुविषयक अंडर-ग्रेजुएट कोर्स में छात्रों को अमेरिका की तर्ज पर ‘मेजर’ और ‘माइनर’ का विकल्प चुनने के साथ रिसर्च में डिग्री कोर्स का भी विकल्प मिलेगा। मास्टर्स में दो प्रकार के कोर्स होंगे। तीन वर्षीय स्नातक वाले छात्रों के लिए यह दो वर्ष का और चार वर्षीय स्नातक वाले छात्रों के लिए एक वर्ष का होगा। पीएचडी के लिए मास्टर्स डिग्री या रिसर्च के साथ चार साल की बैचलर्स डिग्री अनिवार्य होगी। एमफिल का कोर्स बंद किया जा रहा है।

नई नीति में भारतीय उच्च शिक्षा आयोग (एचईसीआइ) के गठन का प्रस्ताव है। काम के अनुसार इसके चार वर्टिकल होंगे- नियमन, मान्यता, फंडिंग और शैक्षणिक मानक। यह विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी), अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआइसीटीई) और राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (एनसीटीई) जैसे मौजूदा नियामकों का स्थान लेगा। श्रेष्ठ रैंकिंग वाले विदेशी विश्वविद्यालय भारत में अपना कैंपस खोल सकेंगे। कॉलेजों को स्वायत्तता देने की मौजूदा नीति जारी रहेगी। इसके तहत धीरे-धीरे हर कॉलेज को डिग्री प्रदान करने वाले स्वायत्त कॉलेज अथवा किसी विश्वविद्यालय के घटक कॉलेज के रूप में विकसित किया जाएगा। इस बारे में नई नीति में कहा गया है, “एक पारदर्शी प्रणाली के जरिए कॉलेजों को चरणबद्ध तरीके से स्वायत्तता देने का तंत्र स्थापित किया जाएगा। मान्यता के हर चरण के न्यूनतम मानदंड पूरे करने के लिए कॉलेजों को प्रोत्साहित किया जाएगा, उनकी मेंटरिंग की जाएगी और इन्सेंटिव दिया जाएगा।” नई शिक्षा नीति के तहत ओपन और डिजिटल शिक्षा को बढ़ावा देकर 2035 तक उच्च शिक्षा में ग्रॉस एनरोलमेंट रेशियो (जीईआर) बढ़ाकर 50 फीसदी करने का प्रस्ताव है, जो अभी 26.3 फीसदी है। अनुसंधान की मजबूत संस्कृति को बढ़ावा देने और उच्च शिक्षा के सभी क्षेत्र में अनुसंधान क्षमता विकसित करने के लिए राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन (एनआरएफ) नाम से एक शीर्ष निकाय गठित किया जाएगा।

एनईपी-2020 में शिक्षा प्रणाली में बदलाव के लिए कई अन्य प्रस्ताव भी हैं। शिक्षा पर निवेश ‘उल्लेखनीय’ रूप से बढ़ाने की बात है। इसमें कहा गया है कि केंद्र और राज्य सरकारें शिक्षा क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश को जल्द से जल्द जीडीपी के छह फीसदी तक पहुंचाने के लिए मिलकर काम करेंगी। इस संबंध में कहा गया है, “उच्च-गुणवत्ता वाली और उचित सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारत के भविष्य की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक और तकनीकी प्रगति और विकास के लिए यह आवश्यक है।” नीति में परोपकारी माध्यमों से धन जुटाने का उल्लेख है। कोई भी सार्वजनिक संस्था इसकी पहल कर सकती है।

नीति में कहा गया है, “शिक्षा पर सार्वजनिक व्यय जीडीपी के छह फीसदी तक पहुंचाने की बात 1968 की पहली नीति में कही गई थी। 1986 की दूसरी नीति और 1992 की समीक्षा में भी इसे दोहराया गया, लेकिन दुर्भाग्य से वास्तविक व्यय इसके करीब भी नहीं पहुंचा है।” हालांकि नई नीति में भी इस लक्ष्य को हासिल करने की कोई समय-सीमा तय नहीं है। भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में अपने घोषणापत्र में शिक्षा पर सार्वजनिक व्यय को जीडीपी के छह फीसदी तक ले जाने की बात कही थी, जो 2013-14 में 3.84 फीसदी थी।

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