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आवरण कथा : मुंबई में मनोज बा

ओटीटी के दौर में सबसे व्यस्त अभिनेता बाजपेयी की गिनती चोटी के कलाकारों में, आखिर हर बार कुछ नया करने की भूख जो उनमें है
मनोज बाजपेयी

अमेजन प्राइम वीडियो पर द फैमिली मैन वेब सीरीज के पहले सीजन की स्क्रीनिंग शुरू होने के कुछ ही हफ्तों में मनोज बाजपेयी के इतने प्रशंसक हो गए जिसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। इस 52 साल के अभिनेता ने अचानक अपने आपको ऑटोग्राफ लेने के इच्छुक बच्चों से घिरा पाया। वे बच्चे उनकी नौ साल की बेटी अवा नायला के प्ले ग्रुप के थे। बाजपेयी के लिए चाहने वालों से इस तरह सामना कोई नई बात नहीं, लेकिन उन्हें यह उम्मीद कतई नहीं थी कि जिन बच्चों का जन्म 2012 में उनकी फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर की रिलीज के आसपास हुआ था, वे उन्हें अपना हीरो समझेंगे।

यही बाजपेयी को एक फैमिली मैन बनाता है, जिसकी तारीफ बच्चे और उनके मां- बाप भी करते हैं। मनोरंजन की नई दुनिया ओवर-द-टॉप (ओटीटी) ने उनके रूप में एक नया सुपरस्टार पा लिया है। बिहार के अनजाने से गांव के रहने वाले अभिनेता में पारंपरिक बॉलीवुड स्टार जैसी कोई तड़क-भड़क नहीं दिखती है। ऐसा व्यक्ति जो आपका पड़ोसी हो सकता है, ऐसा अभिनेता जो किरदार को जीता है।

बाजपेयी ने 27 साल पहले मुंबई में अपना सफर शुरू किया था। बतौर अभिनेता उनके अभिनय कौशल और दायरे को लेकर कभी किसी को कोई संदेह नहीं रहा। द फैमिली मैन वेब सीरीज में श्रीकांत तिवारी किरदार के रूप में वे वही कर रहे हैं, जो मुंबई में आने के बाद कर रहे थे- चाहे वह सत्या (1998) में भीखू म्हात्रे का आइकॉनिक किरदार हो, या गैंग्स ऑफ वासेपुर (2012) में सरदार खान या अलीगढ़ (2016) में रामचंद्र सिरस का किरदार हो। द फैमिली मैन का दूसरा सीजन इस साल आया तो पूरी दुनिया में सबसे अधिक देखे जाने वाले शो में शुमार हो गया। इसी के साथ बाजपेयी भारतीय मनोरंजन उद्योग का चेहरा बनकर उभरे, खासकर डिजिटल क्षेत्र में। वेब सीरीज, शॉर्ट फिल्म, इतिहास आधारित शो और यहां तक कि भोजपुरी रैप सॉन्ग, बाजपेयी सब कुछ कर रहे हैं।

जिस साल दूसरे कलाकार कोविड-19 महामारी के खत्म होने का इंतजार कर रहे थे, बाजपेयी चार फीचर फिल्मों में नजर आए- मिसेज सीरियल किलर, सूरज पर मंगल भारी, साइलेंस.. कैन यू हियर इट और डायल 100। उन्होंने दो वेब सीरीज में भी काम किया- द फैमिली मैन और हंगामा है क्यों बरपा। प्रवासी मजदूरों के मुद्दे पर उन्होंने भोजपुरी में रैप वीडियो किया- बंबई में का बा। डिस्कवरी प्लस चैनल के लिए इतिहास आधारित शो सीक्रेट ऑफ सिनौली के वे कथावाचक थे।

मनोज बाजपेयी

बाजपेयी के पास कई वर्षों तक काम नहीं था। लेकिन बाजपेयी ने कभी निराशा को हावी नहीं होने दिया। वे योग और ध्यान करते, वर्कशॉप आदि में हिस्सा लेते रहे

इसी दौरान भोंसले (2018) में बेहतरीन अदाकारी के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार और द फैमिली मैन के लिए देश-विदेश में कई प्रतिष्ठित पुरस्कार मिले। हाल के दिनों में बाजपेयी हर माध्यम में नजर आए। उनके भीतर हर बार अपनी पिछली भूमिका से बेहतर करने की भूख दिखी। लेकिन द फैमिली मैन में श्रीकांत तिवारी के किरदार ने उनका कद काफी बड़ा कर दिया। इस वेब सीरीज में बाजपेयी एक मध्यवर्गीय शख्स की भूमिका निभा रहे हैं, जो अपने परिवार और राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों के बीच फंसा हुआ है। उन्हें ओटीटी का सुपरस्टार, डिजिटल युग का बादशाह और न जाने क्या-क्या कहा जाने लगा। लेकिन वे आज भी उतने ही विनम्र हैं जितना इस मायानगरी में आने के दिन थे। आउटलुक से वे कहते हैं, “मुझे यह जानकर खुशी होती है कि लोग मेरा काम पसंद करते हैं। लेकिन ये उपाधियां मेरे लिए नहीं हैं। मैं बस अभिनेता हूं और इसी रूप में याद किया जाना पसंद करूंगा। न इससे ज्यादा, न कम।” (देखें इंटरव्यू)

यह विडंबना ही है कि जो व्यक्ति हमेशा अभिनेता के रूप में अपनी पहचान पर गर्व करता हो, जिसने बॉलीवुड के स्टार सिस्टम में जगह बनाने के लिए अथक परिश्रम किया हो, उसे भी इस तरह की उपाधि दी जा रही है। लेकिन ओटीटी की दुनिया में स्टार और कलाकार के बीच का भेद मिट गया है। यहां सिर्फ अभिनेता का अभिनय कौशल मायने रखता है। प्रशिक्षित और अनुभवी कलाकार होने के नाते बाजपेयी इस नई दुनिया में भी बिल्कुल फिट बैठते हैं।

ऐसी उपाधियों पर बाजपेयी कहते हैं, “नवाजुद्दीन सिद्दीकी, जयदीप अहलावत, पंकज त्रिपाठी जैसे दूसरे कलाकार मुझसे ज्यादा सम्मान के हकदार हैं।” लेकिन बाजपेयी के साथ काम करने वालों को लगता है कि वे सचमुच इस प्रशंसा के पात्र हैं। दिल पर मत ले यार (2000) और अलीगढ़ फिल्मों के निर्देशक हंसल मेहता कहते हैं, “बतौर कलाकार आप चाहते हैं कि दुनिया आपके काम को पसंद करे, और जब आपका काम दर्शकों के विशाल वर्ग तक पहुंचता है तो आप अपने आपको उस बोझ से मुक्त पाते हैं। मेरा मानना है कि मनोज को आज जो कुछ हासिल हो रहा है, वह उसके ही नहीं बल्कि उससे अधिक के हकदार हैं। ओटीटी के आने की वजह से कलाकार स्टार बन रहे हैं और दुनियाभर से उन्हें प्रशंसा मिल रही है।”

लेकिन बाजपेयी के लिए ओटीटी बस एक नया माध्यम मात्र है। इस डिजिटल प्लेटफॉर्म पर द फैमिली मैन के साथ शुरुआत करने से पहले भी उन्होंने कभी नए माध्यमों और जॉनर से परहेज नहीं किया। एक कलाकार के रूप में वे जितने सहज अलीगढ़ या भोंसले के किरदार में नजर आते हैं, उतने ही सहज बागी 2 (2018) और सत्यमेव जयते (2018) में दिखते हैं। हालांकि ये दोनों बिल्कुल अलग विधाएं हैं। एक तरफ गंभीर और अर्थपूर्ण सिनेमा है तो दूसरी तरफ पूरी तरह कॉमर्शियल और एक्शन वाली फिल्में हैं। यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि बाजपेयी को अपने पूरे करिअर में इस तरह के विरोधाभास से गुजरना पड़ा।

राम गोपाल वर्मा की सत्या (1998) की अपार सफलता के बाद उनके सामने इसी तरह के किरदार वाली फिल्मों की कतार लग गई थी, जिसमें बाजपेयी ने भीखू म्हात्रे का ‘मुंबई का किंग कौन’ डायलॉग वाला मशहूर किरदार निभाया था। बाजपेयी के लिए वह एक के बाद एक फिल्में साइन करने और अकूत पैसा कमाने का बेहतरीन मौका था। लेकिन उन्होंने ‘यहां का पत्ता भी मेरी इजाजत के बगैर नहीं खड़कता’ जैसे निरर्थक डायलॉग वाले पारंपरिक विलेन के किरदार में नहीं बंधने का फैसला किया।

इसके बदले उन्होंने शूल (1999), कौन? (1999), दिल पर मत ले यार (2000) और घात (2000) जैसी कम बजट की फिल्में चुनीं। इनमें से कोई भी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सत्या जैसी नहीं चली, लेकिन बाजपेयी को संतोष था कि वे जो करना चाहते थे, वही किया। उनकी इस दृढ़ता का फल मिला और श्याम बेनेगल (जुबेदा/2001), राकेश ओमप्रकाश मेहरा (अक्स/2001), जेपी दत्ता (एलओसी करगिल/2003) और यश चोपड़ा (वीर जारा/2004) जैसे निर्माताओं ने बड़े बजट की फिल्मों के लिए उन्हें साइन किया। इनमें भी ज्यादातर फिल्में बॉक्स ऑफिस पर उतनी नहीं चलीं, लेकिन बाजपेयी को इससे कोई नुकसान नहीं हुआ। उन्हें चंद्रप्रकाश द्विवेदी की निर्देशित फिल्म पिंजर (2003) के लिए स्पेशल जूरी का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला तो इस बात की पुष्टि हुई कि सत्या अनायास मिली सफलता नहीं थी।

बाजपेयी की दूसरी पारी व्यक्तिगत और पेशेवर दोनों नजरिए से ज्यादा मुश्किल भरी थी। उस समय बॉलीवुड बदल रहा था। अनुराग कश्यप, तिग्मांशु धूलिया और हंसल मेहता जैसे नए जमाने के फिल्मकार उभर रहे थे और वे सब बाजपेयी के पुराने करीबी थे। लेकिन उन दिनों जैसे कोई भी बात उनके पक्ष में नहीं जा रही थी। यहां तक कि युद्ध पर आधारित 1971 जैसी फिल्म को भी 2007 में दर्शक नहीं मिले, जबकि यूट्यूब पर उसे 3.2 करोड़ से अधिक लोगों ने देखा था। उसके बाद चोट के कारण बाजपेयी कई वर्षों तक काम से दूर रहे।

लेकिन बाजपेयी ने कभी निराशा को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। वे योग और ध्यान करते, वर्कशॉप में हिस्सा लेते। नए निर्देशकों के काम पर भी नजर रखते थे। वे उन दिनों को याद करते हैं, “मैं हर उस निर्देशक को फोन करता था जिसकी फिल्म मुझे पसंद आती थी। चाहे वे नीरज पांडे (ए वेडनसडे/2007) हों या दिवाकर बनर्जी (ओय लकी! लकी ओय!/2008) और उनसे काम मांगता था। मैं उन्हें बुरे दिन नहीं बल्कि तैयारी के दिन मानता हूं। मैं बस सही मौके का इंतजार कर रहा था।” वह मौका आया जब प्रकाश झा ने फिल्म राजनीति (2010) के लिए उन्हें फोन किया। इसमें एक तरफ अजय देवगन और रणबीर कपूर जैसे स्टार थे तो दूसरी तरफ नसीरुद्दीन शाह और नाना पाटेकर जैसे दिग्गज कलाकार। कुटिल नेता के किरदार में बेहतरीन अभिनय से उन्होंने उन लोगों को करारा जवाब दिया, जो उन्हें चुका हुआ मान रहे थे। उन्होंने अपनी यह प्रतिभा अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर में भी दिखाई थी। हंसल मेहता की अलीगढ़ और बोनी कपूर की तेवर (2015) से उन्होंने साबित किया कि वे हर तरह का किरदार उसी शिद्दत से निभा सकते हैं।

पटना निवासी अकादमीशियन और बाजपेयी के बचपन के दोस्त ज्ञानदेव मणि त्रिपाठी कहते हैं, “उनके सभी दोस्त आइएएस अफसर, डॉक्टर या इंजीनियर बनना चाहते थे। लेकिन बाजपेयी थिएटर करने दिल्ली गए, ताकि एनएसडी में दाखिला पा सकें।” त्रिपाठी के अनुसार उन्होंने ग्रेजुएशन सिर्फ एनएसडी में दाखिले की पात्रता हासिल करने के लिए की। हालांकि उन्हें एनएसडी में दाखिला नहीं मिला तो उन्होंने बैरी जॉन का एक्टिंग क्लास ज्वाइन की और दोस्तों के साथ मिलकर ‘एक्ट 1’ नाम से थिएटर ग्रुप भी बनाया। “नेटुआ नाटक में उनके अभिनय की चर्चा पूरे थिएटर जगत में हुई। तब से उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।”

बाजपेयी को ऐसे समय सुपरस्टार कहा जा रहा है जब आमिर, सलमान और शाहरुख की खान तिकड़ी और अक्षय कुमार तथा अजय देवगन जैसे सुपरस्टार बॉक्स ऑफिस पर बादशाहत बनाए रखने के लिए संघर्ष करते नजर आ रहे हैं। दर्शक अब अच्छे कंटेंट को तरजीह देने लगे हैं। ओटीटी जैसे प्लेटफॉर्म के आने के बाद कई बड़े सितारों की फिल्में नाकाम हुई हैं। सलमान की राधे (2021), अक्षय की लक्ष्मी (2020) और बेल बॉटम (2021), अजय देवगन की भुजः द प्राइड ऑफ इंडिया और वरुण धवन की कुली नंबर 1 जैसी अतिरंजित फिल्मों को दर्शकों ने नकार दिया। मगर बाजपेयी, पंकज त्रिपाठी, प्रतीक गांधी और जयदीप अहलावत जैसों को द फैमिली मैन, मिर्जापुर, स्कैम 1992 और पाताल लोक जैसी वेब सीरीज में अच्छी कहानी और दमदार अभिनय के कारण दर्शकों ने सराहा।

ऐसे समय जब बाजपेयी के पास बहुत कम काम था, तमाम विपरीत परिस्थितियों का उन्होंने कैसे सामना किया और अपने आप को नए सिरे से कैसे गढ़ा? उन्होंने 1994 में द्रोहकाल और बैंडिट क्वीन जैसी फिल्मों में छोटी भूमिकाओं के साथ ऐसे समय फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा जब बॉलीवुड स्विट्जरलैंड के खूबसूरत घास के मैदान और ट्यूलिप के बाग में रोमांटिक गानों की आसक्ति से बाहर नहीं निकल पा रहा था। बाजपेयी सत्या तक अपना वक्त आने का इंतजार करते रहे।

बाजपेयी की इस सफलता की क्या वजह है? सोनचिरिया (2018) और हंगामा है क्यों बरपा (2021) में बाजपेयी के साथ काम करने वाले निर्देशक अभिषेक चौबे कहते हैं कि अपनी प्रतिभा और अनुभव के दम पर वे जो बातें लेकर आते हैं, उसी से उनका दर्जा आज के चोटी के कलाकारों में होता है। चौबे के अनुसार, “इतने वर्षों से सफल होने के बाद भी उनके भीतर किसी नए कलाकार की तरह बड़ी भूख दिखती है। मुझे नहीं मालूम कि उनके भीतर यह भावना कहां से आती है, लेकिन यह बात हर फिल्मकार पसंद करता है क्योंकि इससे उसका काम आसान हो जाता है। वर्षों प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले किसी शास्त्रीय गायक से सार्वजनिक कार्यक्रम से पहले आप जैसी उम्मीद रखते हैं, वैसे ही उम्मीद फिल्मकारों को उनसे रहती है।”

मनोज बाजपेयी

ओटीटी ने अभिषेक बच्चन और बॉबी देओल जैसे कलाकारों को भी नया जीवन दिया है। लेकिन बड़े बॉलीवुड परिवारों के इन वारिसों का प्रतिभा की नई फौज के साथ मुकाबला है

चौबे के अनुसार यह सच है कि ओटीटी ने बाजपेयी जैसे कलाकारों के लिए खास जगह बनाई है, लेकिन ऐसा भी नहीं कि अगर ओटीटी न आता तो बाजपेयी को उनका हक नहीं मिलता। वे कहते हैं, “ओटीटी के आने से पहले भी वे सफल थे। मेरे विचार से ओटीटी ने फिल्मकारों और अभिनेताओं को अलग तरह के विषयों पर काम करने का मौका दिया है। मनोज जैसे कलाकारों को भारी लोकप्रियता मिलने का यह भी एक कारण है।” वे कहते हैं,“रिलीज के बाद होने वाले कलेक्शन पर इतना जोर दिया जाने लगा था कि फिल्मों में किरदारों पर केंद्रित कहानियां बताना मुश्किल हो गया था। लेकिन दर्शक जागरूक हो चुके हैं। अब मनोरंजन का मतलब सिर्फ रंग-बिरंगे कपड़ों में नाचना-गाना नहीं रह गया।”

द फैमिली मैन के निर्देशक राज तथा डीके की जोड़ी के राज निदिमोरू के अनुसार बाजपेयी अपने किरदार की तैयारियों को लेकर काफी सतर्क रहते हैं। वे बताते हैं, “सेट पर वे दूसरों से बातें करते और मजाक करते नजर आएंगे। निर्देशक को लगेगा कि पता नहीं उन्होंने शूटिंग की तैयारी की है या नहीं। लेकिन पहला टेक लेते ही एहसास हो जाता है कि उनकी तैयारी कुछ ज्यादा ही है।”

राज ने बताया कि द फैमिली मैन के दूसरे सीजन की शुरुआत हुई तो बाजपेयी उनके पास यह चर्चा करने आए कि श्रीकांत तिवारी के किरदार में कैसे नयापन लाया जा सकता है। हालांकि यह सीक्वल था और वे पुराना किरदार ही निभा रहे थे, फिर भी वे नयापन चाहते थे। यह कला के प्रति उनकी लगन को दर्शाता है। राज ने श्रीकांत तिवारी के किरदार के लिए बाजपेयी को इसलिए चुना क्योंकि उनके अभिनय का दायरा बड़ा है। वे कहते हैं, “हर कोई उनके साथ अपने आप को जोड़ सकता है। हमें जेम्स बांड जैसा हीरो नहीं चाहिए था। हमें भारतीय जेम्स बॉन्ड की जरूरत थी जो औसत मध्य वर्ग का व्यक्ति हो, आतंकवाद से लड़ने की सरकारी नौकरी करता हो, उसके सिर पर भी होम लोन और परिवार की दूसरी चिंताएं हों। हमें लगा कि हमारी जरूरत में मनोज फिट बैठते हैं।”

बाजपेयी के साथ गली गुलियां (2018) में काम करने वाले लॉस एंजिल्स स्थित निर्देशक दीपेश जैन बताते हैं कि बाजपेयी ने उस किरदार के लिए न सिर्फ ढाई महीने तक अपना वजन कम किया, बल्कि बाकी दुनिया से बिल्कुल अलग हो गए थे। वे बताते हैं, “शूटिंग के दौरान वे सिर्फ मुझसे और एक सहायक निर्देशक से बात करते थे। उन्होंने किरदार को वास्तव में जिया है। वही गंदे कपड़े पहन कर रहते थे। सड़क के किनारे उसी मेकअप में बैठ जाते थे। कोई उन्हें पहचान भी नहीं सकता था। मैंने एक बार मजाक में उनसे कहा भी कि आप डेनियल डे लुइस को भारत का जवाब हैं। वे भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के श्रेष्ठ अभिनेताओं में एक हैं।” दीपेश ने जब लॉस एंजेलिस और जर्मनी में अपने मेंटर को फिल्म की स्क्रिप्ट दिखाई तो उन्होंने कहा कि ऐसा अभिनेता तलाशना मुश्किल होगा जो मुख्य किरदार के साथ न्याय कर सके। दीपेश स्वीकार करते हैं, “मैं नर्वस था कि मनोज इस किरदार को निभाने के लिए राजी न हुए तो मैं कोई दूसरा अभिनेता नहीं ढूंढ पाऊंगा।”

बाजपेयी और उन जैसे दूसरे कलाकारों के उभरने के बावजूद महामारी के बाद स्थिति सामान्य होने पर क्या बॉलीवुड में एक बार फिर स्टार सिस्टम लौट आएगा? इंडस्ट्री के लोगों को ऐसा नहीं लगता। राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म विश्लेषक विनोद अनुपम के अनुसार दर्शकों ने खून का स्वाद चख लिया है। वे बताते हैं, “नायक की अतिमानव की छवि वाली फिल्मों से दर्शकों ने तौबा कर ली है। अब वे ऐसा वास्तविक विषय और ऐसे किरदार को पसंद करते हैं जिसके साथ खुद को जोड़ सकें। जब तक बाहुबली (2015 और 2017) जैसी कोई दर्शनीय फिल्म न हो, वे पुरानी घिसी-पिटी थीम वाली फिल्में देखने थिएटर नहीं जाएंगे।” अनुपम को लगता है कि ओटीटी के उदय से जो परिवर्तन आया है, उसे अब सलमान, अक्षय या शाहरुख भी नहीं बदल सकते। बाजपेयी जैसे के सुपरस्टार बनने में उनके ऑनस्क्रीन और ऑफस्क्रीन व्यक्तित्व का भी योगदान है।

ओटीपी का बुलबुला आने वाले दिनों में बना रहे या फूट जाए, बाजपेयी जैसे अभिनेता कभी अप्रासंगिक नहीं होंगे क्योंकि उनमें अपने किरदार में पूरी तरह समा जाने की काबिलियत और हमेशा पहले से बेहतर करने की ललक होती है। सत्या के बाद महेश भट्ट ने बाजपेयी के अभिनय की तुलना 1986 के विश्व कप फुटबॉल में डिएगो माराडोना के खेल से की थी। उनके कहने का आशय था कि बाजपेयी ने सत्या में जो किया है उसे फिर कभी नहीं दोहरा पाएंगे। लेकिन उन्होंने हमेशा अपने आप को बेहतर किया है। यही तो मनोज बाजपेयी की पहचान है।

मनोज बाजपेयी

भीखू से श्रीकांत..हरदिल अजीज किरदार

बैंडिट क्वीन (1994)

शेखर कपूर की बनाई फूलन देवी की बॉयोपिक शुरुआत में कई विवादों और प्रतिबंध तक में फंसी थी। फिल्म फूलन और विक्रम मल्लाह पर केंद्रीत थी, जिनकी भूमिकाएं क्रमश: सीमा बिस्वास और निर्मल पांडे ने की थीं। लेकिन नए आए मनोज बाजपेयी डकैत मानसिंह की भूमिका निभा कर लोगों की नजरों में चढ़ गए। 25 साल बाद फिर उन्होंने 2019 में सोनचिरैया में यही किरदार निभाया।

सत्या (1998)

1990 के दशक में बॉलीवुड बर्फ से ढंकी स्विट्जरलैंड की चोटियों और ट्यूलिप के बागीचो में अटका हुआ था कि राम गोपाल वर्मा ने दर्शकों के सामने अचानक मुंबई के अंडरवर्ल्ड की दुनिया ला खड़ी की। जो तालियां और सीटियां अब तक हिंदी सिनेमा में मुख्य नायक या नायिकाओं के लिए होती थीं, वे सब इस बार भीखू म्हात्रे बने मनोज बाजपेयी ने हड़प लीं।

शूल (1999)

सत्या हिट हुई तो बाजपेयी के अपार्टमेंट के सामने फिल्ममेकर्स की लाइन लग गई, साइनिंग अमाउंट के चेक के साथ। लेकिन पेशकश खलनायक भूमिकाओं की ही थी। उन्होंने इनकार कर दिया। वे एक जैसी भूमिका निभा कर टाइपकास्ट नहीं होना चाहते थे। इसके बजाय उन्होंने ई.निवास की फिल्म शूल में एक ईमानदार पुलिसवाले की भूमिका को चुना, जो उनके गृह राज्य बिहार में अपराध और राजनीति के गठजोड़ पर आधारित थी।

अक्स (2001)

बाजपेयी को अपार संभावनाओं वाले अभिनेता के तौर पर सराहा गया, जब श्याम बेनेगल और यश चोपड़ा ने उन्हें क्रमश: जुबैदा और वीर जारा में लिया। लेकिन उससे पहले ही उनकी प्रतिभा रंग दिखा चुकी थी जब उन्होंने अमिताभ बच्चन के साथ फिल्म अक्स में काम किया। बेतिया में जंजीर देखने के बाद से बच्चन मनोज के आदर्श थे।

पिंजर (2003)

इसी नाम से अमृता प्रीतम के एक उपन्यास पर आधारित फिल्म में निर्देशक चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने विभाजन की भयावहता को दिखाया था। बाजपेयी अपने कंफर्ट जोन से बाहर निकले और एक अलग तरह का चरित्र निभाया। एक मुस्लिम व्यक्ति के संवेदनशील चित्रण ने उनकी बहुमुखी प्रतिभा की झलक दी और उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार दिलाया।

मनोज बाजपेयी

1971 (2007)

पाकिस्तानी सेना द्वारा बंधक बनाए जाने के बाद भारतीय सेना के छह सैनिकों के भागने की अमृत सागर की रोमांचक कहानी ने भले ही हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता हो, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर उसका कोई नामलेवा नहीं था। यूट्यूब पर 3.2 करोड़ से ज्यादा बार देखे जाने के बाद उसे कल्ट का दर्जा मिला।

राजनीति (2010)

बाजपेयी चोट और स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे थे। दो साल से ज्यादा समय से उनके पास कोई काम नहीं था। तभी प्रकाश झा ने उन्हें नसीरुद्दीन शाह, नाना पाटेकर, अजय देवगन और रणबीर कपूर अभिनीत अपनी मल्टीस्टारर में मुख्य भूमिका निभाने के लिए बुलाया। बेशक, वे करारा जवाब देने के लिए तैयार थे।

गैंग्स ऑफ वासेपुर (2012)

बॉलीवुड ने भले ही नए तरह के कंटेंट के लिए खुद की पीठ थपथपाई लेकिन द गार्जियन ने 21वीं सदी की दुनिया की शीर्ष 100 फिल्मों की सूची में केवल तत्कालीन बिहार में बिजली-कोयला माफिया को दिखाती गालियों और गोलियों से भरपूर फिल्म को ही चुना। सरदार खान का चरित्र निभा कर बाजपेयी ने एक बार फिर जता दिया कि अच्छे अभिनेता को लंबे समय तक दबा कर नहीं रखा जा सकता।

अलीगढ़ (2016)

कई साल बाद बाजपेयी ने निर्देशक हंसल मेहता के साथ फिर काम किया और कई लोगों ने तस्दीक की कि यह उनका अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है। यह कहानी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्रोफेसर की सच्ची कहानी पर आधारित थी, जिसमें नैतिकता के आधार पर बर्खास्त होने के बाद प्रोफेसर अपने सम्मान के लिए लड़ते हैं। रामचंद्र सिरास का चरित्र निभा कर उन्होंने बताया कि उनकी संभावनाओं का कोई ओर-छोर नहीं है।

भोंसले (2018)

वाजपेयी ने देवाशीष मखीजा की पुरस्कार प्राप्त फिल्म में मुंबई के एक सेवानिवृत्त पुलिसकर्मी की भूमिका निभाई है। उसने उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार दिलाया। पैसे की कमी के कारण उसे बनाने में काफी वक्त लगा। मखीजा के मुताबिक, देरी से बाजपेयी में जिद पैदा हुई कि फिल्म आकर रहेगी। 

द फैमिली मैन (2019-21)

विभिन्न शैलियों की अदाकारी में हमेशा हाथ आजमाने को तैयार रहने वाले बाजपेयी ने परिवार और कर्तव्य के बीच बंटे एक खुफिया अधिकारी की भूमिका निभाई है। उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं था कि पहले दो सीजन में दुनिया भर में द फैमिली मैन की भारी कामयाबी बॉलीवुड के सुपरस्टारों को ढंक देगी और उन्हें ओटीटी किंग की उपाधि दिला देगी।

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