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साहित्य/स्त्री लेखन: छद्म नारीवाद की चुनौती

बाजार के हाथ यह टोना लग गया जैसे, भूख, गरीबी, शोषण बिकाऊ माल है उसी तरह स्त्री का गुस्सा भी
स्त्री की जुबान तब खुली जब प्रतिरोध के सिवा कोई विकल्प नहीं बचा

हजारों वर्ष पहले जब गृहस्थी में उत्पीड़न, उपेक्षा और उपालम्भ से तंग आकर स्त्रियां पिंजरा तोड़ कर बौद्ध भिक्षुणी बनने को तत्पर हुईं तब उन्होंने अपना विरोध और प्रतिरोध तरह-तरह की अस्फुट तुकबंदियों में प्रकट किया था। कितनी भी शताब्दियों के पीछे झांककर देखें, स्त्री की जुबान तब खुली जब प्रतिरोध के सिवा कोई विकल्प नहीं बचा था।

स्त्री का अपनी स्थिति, उपस्थिति और परिस्थिति पर विचार और अभिव्यक्ति ने लेखन में नारीवाद को जन्म दिया। पहली बार उसके उठाए सवालों पर लोगों की नजर पड़ी। बहुत से प्रगतिशील उदारवादी लेखकों ने आगे बढ़ कर स्त्री का पक्ष सामने रखते हुए रचनाएं दीं जिनमें प्रेमचंद्र, यशपाल, भीष्म साहनी प्रमुख थे। शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ स्त्रियों में आजादी की चेतना और अभिव्यक्ति का साहस जागा। वे स्वयं अपनी बात करने को आतुर हुईं। मौलिक रूप से नारीवाद कोई ज्वलनशील विषय नहीं है। हम यही चाहती हैं कि स्त्री-पुरुष के बीच समाज में समानता हो। घर में दोनों का स्थान बराबर हो। रोजगार के हम सबको बराबर अवसर मिलें।

प्रायः इस आदर्श स्थिति को अर्जित करना आसान नहीं होता। आदर्श और यथार्थ के फासले से ही सारे गम के फसाने जन्म लेते हैं। सामाजिक विसंगतियों पर, संबंधों की विषमताओं पर सीमाओं पर बीसवीं शताब्दी में विपुल लेखन हुआ। महादेवी वर्मा से लेकर मन्नू भंडारी, मृदुला गर्ग, मंजुल भगत, मधु कांकरिया तक और सुभद्रा कुमारी चौहान से लेकर चंद्रकिरण सोनरेक्सा, उषा प्रियंवदा, नमिता सिंह, मृणाल पाण्डे और गीतांजलि श्री तक एक सशक्त श्रृंखला बनती गई।

हर शुक्ल पक्ष के बाद कृष्ण पक्ष अवश्य आता है। वही स्त्री लेखन में हुआ। संपादकों को अपनी पत्रिकाओं की प्रसार संख्या बढ़ानी थी और प्रकाशकों को अपनी आमदनी। उन्होंने स्त्री के सोच में आजादी की जगह उच्छृंखलता डाली और प्रतिरोध की जगह प्रतिहिंसा स्त्री लेखन में यकायक तर्क-तोड़-तेवर और विवेक-छोड़-विचार व्यक्त होने लगे। छद्म नारीवाद पुरुषों की सोची समझी ईजाद है जिसे फॉर्मूले की तरह अपनाकर लेखकों ने संपादक की मनपसन्द कहानियां लिखीं। कविताएं भी। पिछली सदी के सातवें दशक में कविता-कहानी इतनी कटखनी हो गईं कि उसे पढ़ते हुए दहशत हो जाती। हर कविता गुर्राती, हर कहानी दहाड़ती। आठवें, नौवें दशक में फोकस ठीक किया जाता इसके पहले बाजार के हाथ यह टोना लग गया कि जैसे, भूख, गरीबी और शोषण की अवधारणा बिकाऊ माल है उसी तरह स्त्री का गुस्सा और गुबार भी बॉक्स ऑफिस सामग्री है।

यह सब जानते हैं कि नकली सोना, असली से ज्यादा चमकदार होता है, क्रोध, करुणा की नरम पुकार के ऊपर चिंघाड़ सकता है और नफरत फैलाना मुहब्बत बांटने से कहीं ज्यादा झटपट का कारोबार है।

आज के लेखन में व्यक्तिगत हिसाब किताब चुकता करने की गरज से आक्रोश का कैप्सूल खिलाया जा रहा है, दफ्तरों के काइयां समीकरणों का निपटारा पारिवारिक संतुलन समाप्त करके किया जा रहा है। ‘मैं सर्वोत्तम’ के दंभ के सामने दूसरे पक्ष के गुण और गरिमा का गुड़गोबर किया जा रहा है। लावा से भी ज्यादा ज्वलनशील आज का स्त्री लेखन बन गया है। कोई पुरानी चोट चिलक जाती है और लेखिका उस चोट पर चोट मार-मार कर तकलीफ का तिर्यक रच देती है। नकली नारीवाद में यह अतिवाद जरा सा भी प्रतिवाद सहन नहीं करता। एक विशाल टीम सोशल मीडिया पर आपकी लिंचिंग, भीड़ हिंसा पर उतारू हो जाती है। तर्कशील पाठक को यह मंदबुद्धि, मंदरक्तचाप और अर्धमृत मानने में देर नहीं लगाती। किसी का नाम न लो तब भी वे अपनी रचनाओं का हवाला दे-दे कर उछलती रहेंगी कि यह मेरे बारे में लिखा, वह मेरे बारे में लिखा। शाम तक हर एक के सिर पर एक टोपी होगी जो आपने न सिली न पहनाई मगर उन्होंने लगा ली। ऐसे तू-तू, मैं-मैं माहौल में मैथ्यू ऑनल्ड की कविता ‘डोवर बीच’ की आखिरी पंक्तियां याद आ जाती हैं,

“ऐंड वी आर हियर एज ऑन ए डार्कलिंग प्लेन/

स्वीप्ट विद कनफ्यूज्ड अलार्म्स ऑफ स्ट्रगल ऐंड फ्लाइट/

वेयर इगनोरेंट आर्मिज क्लैश बाय नाइट”

हैरानी तब बढ़ जाती है जब, अधेड़ लेखिकाएं, अल्हड़ लड़कियों की तरह देह प्रधान विषय उठा कर स्त्री-प्रश्नों की मौलिक गंभीरता को नष्ट करती हैं। वे ऊपर से स्त्री के पक्ष किंतु अंर्तमन से स्त्री के विपक्ष में खड़ी दिखती हैं। जख्मी औरत फिल्म की नायिका की तरह वे समाज को पुरुष-विहीन देखने का मकड़जाल फैलाती हैं। इस रुष्ट, दुष्ट नारीवाद में मूल समस्याओं का समाधान नजर नहीं आता। स्त्री लेखन को देहवाद के गटरहोल में फंसाना उसकी हत्या करने के समान है। विचार में जब प्रचार मिल जाए और विमर्श में अमर्ष, तब अतिचार शुरू होता है। इस कोष्ठक को तोड़ कर आज स्त्री लेखन में जन, जीवन और रोजगार के जरूरी सवालों पर गहरी नजर रखी जाए। स्त्री शब्द को न ट्रंप कार्ड बनाया जाए न विक्टिम कार्ड। खुदा कसम, तमाम दिन तो मर्दों से ज्यादा काम संभालते हैं हम फिर काहे को औरत होने का दुखड़ा रोते रहें। एक छेड़छाड़, एक छलात्कार पर अपनी छत न तोड़ो, मणिकर्णिका बन कर निपटो और आगे बढ़ो। सही स्त्री लेखन के स्वस्थ स्वर कम नहीं हैं, उन्हें ध्यान से पढ़ने की जरूरत है, वंदना राग, आकांक्षा पारे काशिव, निर्मला पुतुल, जेसिंटा केरकट्टा, रोहिणी अग्रवाल, सारा राय, नीलाक्षी सिंह, नीलेश रघुवंशी, गगन गिल, उषा किरण खान, प्रत्यक्षा, तेजी ग्रोवर, शम्पा शाह, गीताश्री, राजुला, निधि अग्रवाल, सुनीता और लक्ष्मी शर्मा से हिंदी साहित्य को बहुत उम्मीदें हैं। बहुत नाम छूट रहें होंगे...।

ममता कालिया

(सुपरिचित कहानीकार और उपन्यासकार)

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