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पांसा पलटने के दांव

शिवसेना, राकांपा, कांग्रेस को पर्याप्त समय न देकर राष्ट्रपति शासन लगाने पर उठे सवाल
राष्ट्रपति शासन के ऐलान के बाद कांग्रेस के अहमद पटेल और राकांपा के शरद पवार

आखिर में वही दांव आया, जिसकी आशंकाएं कई लोगों के जुबान पर थीं। महाराष्‍ट्र में भारतीय जनता पार्टी के साथ 35 साल पुराना संबंध तोड़ने के बाद शिवसेना, राकांपा और कांग्रेस की सरकार बनाने की कोशिश को राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने राष्ट्रपति शासन लगाने के अपने विवादास्पद कदम से फिलहाल बेमानी कर दिया। इसकी विडंबना जाहिर करने के लिए यही काफी है कि 24 अक्टूबर को आए नतीजों के बाद निवर्तमान मुख्यमंत्री, भाजपा के देवेंद्र फड़नवीस ने तो सरकार बनाने से इनकार करने में 14 दिनों का वक्त ले लिया मगर शिवसेना को एक दिन और बाद में राकांपा को वादा किया पूरा दिन भी नहीं मिला। खैर! अब मामला सुप्रीम कोर्ट के पास पहुंचा है, जिसके फैसले से ही आगे की राह निकलेगी।

तकरीबन 20 दिनों तक चली राजनीतिक घटनाक्रम की कल्पना शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने शायद ही की हो। लेकिन यह भी सही है कि शिवसेना, राकांपा, कांग्रेस ने अपने मामले तय करने में उतनी जल्दीबाजी नहीं दिखाई, जिसकी मोदी-शाह की अगुआई वाली नई भाजपा से मुकाबले के लिए जरूरत थी।

11 नवंबर की शाम को आदित्य ठाकरे के नेतृत्व में जब शिवसेना का प्रतिनिधिमंडल राज्यपाल से मिलने पहुंचा तो ऐसा माना जा रहा था कि उनकी पार्टी तमाम जद्दोजहद के बाद कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के समर्थन से सरकार बनाने में सफल हो जाएगी, लेकिन उन्हें राजभवन से खाली हाथ लौटना पड़ा। दरअसल, शिवसेना राज्यपाल के समक्ष बहुमत के समर्थन में राकांपा और कांग्रेस समेत सभी विधायकों के हस्ताक्षर वाला पत्र नहीं प्रस्तुत कर सकी, जिसकी मांग राज्यपाल ने की थी। राज्यपाल ने उनकी यह मांग खारिज कर दी कि इसके लिए उन्हें तीन दिन का और समय दिया जाए। इसके तुरंत बाद राज्यपाल ने तीसरी सबसे बड़ी पार्टी राकांपा को न्योता भेज दिया कि वह अगले 24 घंटों में यह स्पष्ट करे कि सरकार बना सकती है या नहीं। राकांपा के पास शाम 8.30 बजे तक का समय था लेकिन राज्यपाल ने तीसरे पहर ही राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी। मंगलवार की शाम को राष्ट्रपति शासन लग गया।

राज्यपाल के राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करते ही शिवसेना सुप्रीम कोर्ट चली गई। उसने सरकार बनाने के लिए राज्यपाल द्वारा अतिरिक्त समय नहीं देने के फैसले को चुनौती दी है। याचिका में उसने राज्यपाल के फैसले को असंवैधानिक बताया और कहा कि राज्यपाल केंद्र सरकार के आदेशों के अनुसार काम नहीं कर सकता। वह मंगलवार को ही इस पर सुनवाई चाहती थी, लेकिन पार्टी के वकील सुनील फर्नांडीज के अनुसार, कोर्ट की रजिस्ट्री ने उनसे कहा कि सुनवाई के लिए आज बेंच का गठन मुमकिन नहीं है। पार्टी राष्ट्रपति शासन को चुनौती देने वाली अलग याचिका भी दायर करेगी।

हालांकि इसके पहले राज्यपाल ने चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी भाजपा को सरकार गठन के लिए आमंत्रित किया था, लेकिन पार्टी ने यह कहते हुए कि उसके पास इसके लिए पर्याप्त बहुमत नहीं है, अपने पांव पीछे खींच लिए थे। चुनाव के उपरांत इस सियासी उठापटक की मुख्य वजह शिवसेना ही रही है। पार्टी ने यह चुनाव भाजपा के साथ गठबंधन में लड़ा था और इसे 288 सदस्यों वाली विधानसभा में 161 सीटों पर विजय के साथ स्पष्ट बहुमत भी मिला था। इसमें शायद ही किसी को शक था कि उनकी महायुति (महागठबंधन) आगामी पांच वर्षों के लिए सरकार नहीं चला पाएगी। लेकिन कहानी में एक बड़ा ट्विस्ट आना अभी बाकी था।

चुनाव परिणामों की घोषणा के दिन उद्धव ठाकरे ने यह कहकर राजनैतिक भूचाल ला दिया कि उम्मीद है भाजपा चुनाव पूर्व किए वादों पर अमल करेगी, वरना उनके लिए अन्य विकल्प खुले हुए हैं। अगले कुछ दिनों में उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि वे सत्ता में भाजपा के साथ बराबर की भागीदारी चाहते हैं। यहीं नहीं, वे पहले ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी भी अपनी पार्टी के लिए चाहते हैं। उद्धव ने दावा किया कि इस वर्ष हुए लोकसभा चुनाव के पूर्व उनके और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बीच यह सहमति बनी थी कि दोनों पार्टियों के बीच मुख्यमंत्री पद सहित सत्ता में बराबर की भागीदारी होगी, चाहे उनके विधायकों की संख्या कुछ भी हो। भाजपा इसके लिए बिलकुल तैयार न थी। पार्टी का शीर्ष नेतृत्व इस बात की घोषणा कर चुका था कि फड़नवीस ही अगले पांच वर्षों के लिए गठबंधन के मुख्यमंत्री होंगे। फड़नवीस ने स्वयं इस बात से इनकार किया कि दोनों घटक दलों के बीच ऐसा कोई समझौता हुआ था। इससे दोनों दलों के बीच तल्खियां बढ़ गईं। नाराज उद्धव ने मुख्यमंत्री का पद मिलने तक भाजपा के साथ बात करने से इनकार कर दिया। भाजपा इसके लिए कतई राजी नहीं थी क्योंकि उसके पास 105 विधायक थे, जबकि शिवसेना के पास मात्र 56 थे।

सियासी जानकारों का मानना है कि शिवसेना ने यह कदम इसलिए उठाया क्योंकि उसे लगा कि राज्य में उसकी शानदार वापसी का यह सबसे अच्छा अवसर है। 2014 से पहले गठबंधन में शिवसेना भाजपा से बड़ी पार्टी थी, लेकिन सीटों के बंटवारे पर विवाद के कारण पिछला विधानसभा चुनाव दोनों पार्टियों ने अलग-अलग लड़ा था। तब भाजपा को 122 और शिवसेना को महज 63 सीटों पर जीत मिली थी। इसके बाद शिवसेना महाराष्ट्र में भाजपा की जूनियर पार्टनर हो गई। मंत्रिमंडल में शामिल होने के बाद उसे कोई भी महत्वपूर्ण मंत्रालय नहीं मिला जो उसे पांच साल तक सालता रहा। इस बार चुनाव नतीजों के बाद शिवसेना को लगा कि वह गठबंधन में अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा पुनः पा सकती है। भाजपा इस बार बगैर शिवसेना के समर्थन के सरकार बनाने की स्थिति में नहीं थी। इस वजह से सेना ने भाजपा पर सरकार गठन के लिए 50:50 फॉर्मूले पर अमल करने का दबाव पहले ही दिन से बनाना शुरू कर दिया।

दोनों घटक दलों के बीच उभरे विवाद के नाते राकांपा सुप्रीमो शरद पवार की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई और उन्होंने इस स्थिति को अपने लिए एक राजनैतिक सुअवसर के रूप में देखा। जानकारों के अनुसार, हालांकि बार-बार वे यही कह रहे थे कि महाराष्ट्र की जनता ने उन्हें विपक्ष में बैठने का मत दिया है, लेकिन उन्होंने सेना के साथ सरकार गठन की बात भी शुरू कर दी थी। शिवसेना इस बात से आश्वस्त थी कि 98 विधायकों वाला कांग्रेस-राकांपा गठबंधन, भाजपा की सरकार नहीं बनने देने के कारण उनकी जरूर मदद करेगा। राकांपा ने यहां तक कह दिया कि अगर शिवसेना, भाजपा से संबंध तोड़ लेती है और एनडीए से बाहर आ जाती है तो वह उसे समर्थन देने की सोच सकती है। इसके बाद 11 नवंबर को सेना ने भाजपा से अपने 35 साल पुराने रिश्ते तोड़ लिए और केंद्र सरकार में पार्टी के एक मात्र मंत्री अरविंद सावंत ने इस्तीफा दे दिया। यह भी खबर आई कि राकांपा और कांग्रेस के अधिकांश विधायक सेना के साथ सरकार बनाने के मूड में थे। अब ऐसा लगने लगा था मानो शिवसेना के नेतृत्व में महाराष्ट्र में सरकार गठन का रास्ता साफ हो गया है, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। असली पिक्चर तो अभी बाकी थी। सोनिया गांधी और राहुल गांधी सहित पार्टी के कई बड़े नेता शिवसेना को समर्थन देने के मूड में नहीं थे। दोनों दलों के रिश्ते पूर्व में हमेशा तल्ख रहे हैं और कांग्रेस ने सेना की उग्र हिंदुत्व वाली विचारधारा का सदैव विरोध किया है। पार्टी को लगा कि सेना को बाहरी या भीतरी समर्थन देकर सिर्फ महाराष्ट्र में नहीं बल्कि पूरे देश में उसके सेक्युलर वोटबैंक, खासकर मुस्लिमों पर असर पड़ेगा। कांग्रेस का यह भी मानना था कि उसकी स्थिति राकांपा की तरह नहीं थी जो मूलतः महाराष्ट की क्षेत्रीय पार्टी है। पार्टी आलाकमान ने दो दिनों तक इस विषय पर मंथन करने के बाद अपने तीन बड़े नेताओं-मल्लिकार्जुन खड़गे, अहमद पटेल और के.सी. वेणुगोपाल को शरद पवार के साथ सरकार गठन की प्रक्रिया पर बात करने के लिए मुंबई भेजा। लेकिन इसी अनिश्चितता के बीच राज्यपाल कोश्यारी ने मंगलवार को राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश कर दी।

दरअसल, राज्य में अनिश्चितता की स्थिति उसी समय हो गई जब शिवसेना के विधायक आदित्य ठाकरे 11 नवंबर की शाम को राज्यपाल से मिलने गए और जब कांग्रेस और राकांपा ने उन्हें अपना समर्थन पत्र नहीं दिया। स्थिति स्पष्ट करते हुए कांग्रेस ने कहा कि उसे इस मुद्दे पर अपनी सहयोगी दल राकांपा से और बात करनी है। दूसरी ओर, राकांपा ने कहा कि कांग्रेस का समर्थन पत्र आए बगैर वह सेना को समर्थन नहीं दे सकती, क्योंकि दोनों दलों ने एक साथ चुनाव लड़ा था। स्पष्ट था कि दोनों पार्टियां को सेना को समर्थन देने की कोई जल्दबाजी नहीं थी। इस बीच ऐसी खबरें भी आईं कि राकांपा पहले ढाई साल के लिए अपना मुख्यमंत्री चाहती है, जिसे सेना ने खारिज कर दिया। राष्ट्रपति शासन के बावजूद राज्य में एक गैर-भाजपा सरकार की संभावनाएं खत्म नहीं हुई हैं। लेकिन इसके साथ विभिन्न दलों में विधायकों की खरीद-फरोख्त की आशंकाएं भी बढ़ गई हैं। शिवसेना को समर्थन के सवाल पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अहमद पटेल ने कहा कि कांग्रेस, राकांपा और शिवसेना के बीच न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय किए बिना अंतिम फैसला नहीं हो सकता है। शरद पवार ने भी कहा कि सरकार बनाने का दावा करने से पहले कुछ बातों को अंतिम रूप देना जरूरी है। लेकिन इस अंतिम रूप देने के चक्कर में उनके हाथ से बाजी फिलहाल तो निकलती-सी लग रही है। अब निश्चित रूप से अदालत पर ही निगाहें टिकी रहेंगी।

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