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दूसरी पारी में कितने गंभीर प्रचंड

नया संविधान लागू करना और देश को विकास की राह पर लाना नेपाल के प्रधानमंत्री के लिए बड़ी चुनौती
प्रधानमंत्री पद की शपथ लेते प्रचंड

नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के अध्यक्ष पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ दूसरी बार नेपाल के प्रधानमंत्री के पद पर निर्वाचित हुए हैं। हालांकि प्रचंड का प्रधानमंत्री बनना पहले से ही निश्चित था। नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी केंद्र) और नेपाल के सबसे बड़े दल नेपाली कांग्रेस के बीच गठबंधन सरकार बनाने के लिए जो सात सूत्री समझौता हुआ, उसमें यह तय हुआ था कि प्रचंड और नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा नौ-नौ महीने सरकार संभालेंगे।

 

नेपाल के सियासी हालात

नेपाल में नया संविधान लागू होने के बाद खड्ग प्रसाद शर्मा ओली ने नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थन से सरकार बनाई थी। नेपाली कांग्रेस और मधेशी दल विपक्ष में थे। ओली सरकार को पहला झटका मई में लगा, जब प्रचंड ने समर्थन वापस लेने की घोषणा की। हालांकि प्रचंड अपनी बातों से मुकर गए और ओली सरकार कुछ महीने और टिकने में कामयाब रही।

ओली सरकार नेपाल की आंतरिक समस्याओं से निपटने में नाकामयाब रही और इसी वजह से अल्पकाल में ही गिर गई। नेपाल के समतल इलाकों में रहने वाली मधेशी और थारू जनजाति ने ओली के सरकार संभालने से पहले ही संविधान से नाराजगी जताते हुए विरोध प्रदर्शन तेज कर दिया था। इन्होंने नए संविधान में मधेशी और जनजातियों के अधिकारों में कटौती को लेकर नेपाल सरकार के विरुद्ध चार महीने तक ‘असहयोग आंदोलन’ चलाया। मधेशी जनता ने नेपाल-भारत सीमा को अवरुद्ध करके नेपाल की राजधानी काठमांडू जाने वाली तेल और खाद्यान्न की आपूर्ति बंद कर दी। ओली सरकार ने ‘उग्र राष्ट्रवाद’ के सहारे भारत विरोधी और मधेश विरोधी भावनाओं को हवा देकर हालात और जटिल बना दिया। यही नहीं, ओली सरकार ने भारत और नेपाल के बीच तनातनी में चीन को भी घसीट लिया। ओली सरकार मधेशी और जनजातियों की मांगें पूरा करने में विफल रही। न तो वह भूकंप पीड़ितों को राहत उपलब्ध करवा पाई और न ही पड़ोसी देश से रिश्ते मधुर रख पाई। इन्हीं कारणों से ओली सरकार के नौ महीने के शासन को पूर्ण रूप से असफल माना जा सकता है।

प्रचंड के आगे चुनौतियां

प्रचंड के लिए भी आने वाले नौ महीने आसान नहीं हैं। प्रचंड को प्रचंड चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। नेपाल के नए संविधान को लागू करना प्रचंड की पहली चुनौती होगी। इस चुनौती से उभरने के लिए प्रचंड को मधेशी व जनजाति की मांगों का हल ढूंढना होगा। और संघीय ढांचे के कार्यान्वयन के लिए आवश्यक कानून बनाने होंगे। इन चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रचंड को ओली के दल नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी एमाले के समर्थन की भी जरूरत पड़ेगी।

मधेशी और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी एमाले को साथ लाना और संविधान में संशोधन और कार्यान्वयन अत्यंत कठिन कार्य होगा। सुशासन और भूकंप पीड़ितों को राहत तथा पुनर्निर्माण करना प्रचंड की दूसरी बड़ी चुनौती होगी। पड़ोसी देशों से मधुर संबंध और उनके सहयोग से देश को विकास की राह पर ले जाना प्रचंड की तीसरी चुनौती होगी।

भारत के साथ संबंध

माओवादियों का भारत के साथ एक लंबे समय तक रिश्ता रहा है। प्रचंड और पार्टी के कई अन्य शीर्ष नेताओं ने दशक लंबे गृह युद्ध के दौरान भारत में कई साल गुजारे हैं। हालांकि वे भारत को साम्राज्यवादी और विस्तारवादी कहकर भारत विरोधी बयानबाजी करते रहे हैं लेकिन भारत विरोधी गतिविधियों में कभी शामिल नहीं हुए। बल्कि उन्होंने भारत सरकार को पत्र लिखकर उनके ‘जनयुद्ध’ के लिए समर्थन भी मांगा था। भारत ने भी नई दिल्ली में बातचीत के लिए माओवादी और लोकतांत्रिक दलों को शांति प्रक्रिया के दौरान सुविधा प्रदाता की भूमिका निभाई थी। इसके अलावा नेपाली सेना प्रमुख रुक्मंगुद कटवाल को, जिसे प्रचंड ने बर्खास्त कर दिया था, भारत के प्रभाव से पुन: बहाल करने को लेकर माओवादियों और भारत के संबंधों में खटास आ गई थी।

प्रचंड को भारत के साथ संबंध सुधारने में काफी लंबा समय लगा। हालांकि प्रचंड कभी भी भारत की पसंद नहीं रहे। वरना ओली को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए प्रचंड को समर्थन किया जा सकता था। तथापि उसने भारत की नजर में प्रचंड की छवि परिवर्तन में मदद की। ओली की गतिविधियों की वजह से प्रचंड की छवि एक कट्टरपंथी से मध्यमार्गी नेता के रूप में उभर आई। प्रचंड और भारत को अब अपनी सीमाओं का एहसास है। उन्होंने महसूस किया है कि उनके हितों को पूरा करने के लिए वे एक-दूसरे की जरूरत हैं इसलिए भारत और प्रचंड दोनों ने इसे एक मौके के रूप में भुनाने का फैसला लिया है।

भारत चाहता है कि नेपाल के नए संविधान में मधेशी व जनजाति और अन्य अल्पसंख्यक समूहों की मांगें पूरी की जाएं क्योंकि भारत की अपनी सीमा पर असंतोष और अराजकता बढ़ने से सुरक्षा पर खतरा हो सकता है। नेपाल में बढ़ती भारत विरोधी गतिविधियों और चीन का बढ़ता हुआ प्रभाव भारत के लिए चिंता का विषय है। वहीं दूसरी ओर प्रचंड अपनी सरकार के लिए भारत का समर्थन और भूकंप प्रभावित क्षेत्रों के पुनर्निर्माण के लिए भारत की सहायता चाहते हैं। इन कारणों से नेपाल के साथ भारत के संबंध प्रचंड के कार्यकाल के दौरान सुधरने की उम्मीद है। भारत चीनी निवेश और प्रभाव का मुकाबला करने के लिए नेपाल के पुनर्निर्माण कार्यों में अपनी सहायता और निवेश में वृद्धि कर सकता है। साथ ही, प्रचंड को नेपाल के उत्तरी पड़ोसी चीन के साथ भी रिश्ता दुरुस्त करना होगा।

प्रचंड के लिए अवसर

बड़ी चुनौतियां अपने साथ बड़े अवसर भी लाती हैं और यह प्रचंड के लिए भी हो सकता है। प्रचंड पीड़ित और शोषितों के मसीहा के रूप में उभरने के लिए इस मौके का सदुपयोग कर सकते हैं। प्रचंड संविधान में संशोधन करके शोषितों और वंचितों को उनका अधिकार दिलाकर इतिहास में अपनी जगह बना सकते हैं। प्रचंड का ‘जनयुद्ध’ का मकसद भी संविधान के माध्यम से शोषितों और वंचितों को उनका हक दिलाना था।

प्रचंड को यह एहसास है कि उनका यह दूसरा कार्यकाल प्रधानमंत्री के रूप में सेवा करने का आखिरी मौका हो सकता है और प्रचंड अपनी दूसरी पारी गंभीरता के साथ निभा सकते हैं। उन्होंने मधेशी मोर्चा के साथ तीन सूत्री समझौते पर हस्ताक्षर करके एक अच्छी शुरुआत की है। समझौते के अनुसार मधेश आंदोलन के दौरान मारे गए नागरिकों को शहीद घोषित किया जाएगा और घायल हुए लोगों को मुआवजा और मुफ्त इलाज दिया जाएगा। साथ ही, मधेशी मोर्चा के कार्यकर्ताओं के खिलाफ दर्ज किए गए झूठे मामलों को वापस लिया जाएगा। इसके अलावा तीन महीने के भीतर संविधान में संशोधन के मुद्दे को हल करने के लिए भी सहमति बनी है। मगर यह देखना बाकी है कि प्रचंड कितने सफल हो पाते हैं।

(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कन्फ्लिक्ट स्टडीज के सीनियर रिसर्च फेलो हैं और नेपाल के रहने वाले हैं।)