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निजी जागीर बन रहा भोपाल का महावीर मेडिकल कॉलेज?

जमीन आवंटित कराने के लिए हिसाब-किताब में फर्जीवाड़े का आरोप, कई अफसरों-नेताओं पर आंच
भोपाल में महावीर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल की निर्माणाधीन इमारत

मध्य प्रदेश में बीते 11 साल से महावीर मेडिकल कॉलेज पर विवादों का साया गहराने लगा है। घोटाले ने जैन समाज के कई रसूखदार नुमाइंदों और अफसरों पर सवाल खड़े कर दिए हैं। आर्थिक अपराध जांच ब्यूरो तक शिकायतें पहुंची हैं। आरोपों की आंच के चलते कई अफसरों और नेताओं ने इससे खुद को अलग कर लिया है। इस मामले की शुरुआत पांच मार्च, 2005 को हुई थी। श्री दिगंबर जैन सर्वोदय विद्या ज्ञान पीठ समिति भोपाल ने पूज्य संत आचार्य विद्यासागर मेडिकल कॉलेज की स्थापना के लिए 25 एकड़ जमीन आरक्षित करने और उसे नि:शुल्क आवंटन का आवेदन कलेक्टर को दिया था। तब यह समिति पंजीकृत नहीं थी लेकिन भोपाल के कलेक्टर ने 25 मई को अपनी सिफारिश के साथ आवेदन आगे बढ़ा दिया। दो जुलाई, 2005 को आवास एवं पर्यावरण विभाग ने भोपाल एयरपोर्ट और राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के पास 25 एकड़ जमीन मेडिकल कॉलेज के लिए और तीन एकड़ अस्पताल के लिए आरक्षित कर दी। शासन ने यह नियम बनाया था कि निजी क्षेत्र में सामाजिक समितियां मेडिकल कॉलेज खोलती हैं तो 25 एकड़ जमीन नि:शुल्क दी जाएगी और समिति को तीन एकड़ जमीन पर 300 बिस्तरों वाला सुसज्जित अस्पताल निर्माण करके देना होगा और समिति को अपनी आर्थिक सक्षमता का भी प्रमाण देना होगा। इस शर्त के मद्देनजर समिति के सचिव राजेश जैन ने सात जुलाई, 2005 को एक शपथ पत्र देते हुए समिति के स्टेट बैंक ऑफ इंदौर के मारवाड़ी रोड शाखा स्थित बचत खाते में 2 करोड़ 20 लाख 34 हजार 950 रुपये जमा रहने का प्रमाण पत्र पेश किया। यह रकम 4-5 जुलाई को दो दिनों के भीतर नकद जमा कराई गई लेकिन प्रमाण-पत्र के जारी होने के बाद निकाल भी ली गई।

इस मामले को राज्य आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो के पास ले जाने वाले कांग्रेसी नेता के. के. मिश्रा पूछते हैं कि रातोरात किसने रकम जमा कराई और निकाल ली? 31 मार्च, 2006 को संस्था ने अपने सीए चटर्जी एंड एसोसिएट द्वारा तैयार की गई जो बैलेंस शीट पेश की, उसमें समिति के पास नकद राशि के रूप में एक लाख एक हजार एक रुपये होना बताया गया। जब निर्माण तो दूर जमीन भी आवंटित नहीं हुई तो बैंक के बचत खाते से बाकी रकम कहां चली गई? शासन ने आठ अगस्त, 2006 को समिति को भूमि आवंटन कैसे कर दी?

आठ सितंबर, 2007 को कलेक्टर से उसका करार भी हो गया। शर्त वही थी कि दो साल के भीतर अस्पताल नहीं बनाया गया तो वह भूमि राज्य सरकार वापस ले लेगी। 10 सितंबर, 2006 को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने वहां जाकर पेड़ लगाए। इसके बाद छह अगस्त, 2007 को समिति ने अस्पताल बनने के पहले ही आरक्षित पूरी 25 एकड़ जमीन देने का अनुरोध कर दिया। एक जनवरी, 2008 को तत्कालीन प्रमुख सचिव देवेंद्र सिंघई ने 25 एकड़ जमीन आवंटन करने की सिफारिश कर दी। यह ‘ऑफिस ऑफ द प्रॉफिट’ के नियमों का उल्लंघन भी था। जिस तिथि में सिंघई ने यह सिफारिश सरकार से प्रमुख सचिव की हैसियत से की, उस दिन भी वह इस संस्था के संचालक भी थे और रिटायरमेंट के बाद आज भी कायम हैं।

इस मामले में 19 दिसंबर, 2007 को समिति ने प्रमुख सचिव राजस्व को पत्र लिखते हुए आचार्य विद्या सागर मेडिकल साइंस एंड रिसर्च सेंटर का नाम बदलते हुए आवंटन महावीर इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस एंड रिसर्च करने का आग्रह किया। समिति के सचिव राजेश जैन ने कहा कि संस्था की प्रमुख समिति इस बारे में प्रस्ताव पारित कर चुकी है। सात जनवरी, 2008 को कैबिनेट की बैठक में यह प्रस्ताव भी पारित हो गया और पूरी 25 एकड़ जमीन आवंटित करने का संशोधन आदेश भी चार जून, 2008 को जारी हो गया।

इससे पहले ही दो फरवरी को जमीन का आधिपत्य दिया जा चुका था। तीन फरवरी को मुख्यमंत्री ने इसका शिलान्यास भी कर दिया था। 11 जुलाई को समिति ने इस भूमि को बैंक एवं वित्तीय संस्थाओं में बंधक रखने की अनुमति मांग ली। हालांकि शासन के 2002 के आदेश की कंडिका छह में यह स्पष्ट उल्लेख है कि न तो उस जमीन पर कोई कर्ज लिया जा सकेगा और न उसे गिरवी रखा जा सकेगा। यह आदेश आज भी यथावत है। लेकिन इस समिति को फायदा पहुंचाने के लिए राज्य सरकार ने कैबिनेट में विधिवत प्रस्ताव पारित करके विधायकों की विवेकाधीन निधि से 5-5 लाख रुपये देने का प्रावधान भी कर दिया। इसके बाद सरकार ने सभी 230 विधायकों को पत्र लिखकर 5-5 लाख देने का आग्रह भी किया। कुछ विधायकों ने रकम दी भी। दो साल में अस्पताल नहीं बनने पर जमीन स्वत: निर्मित स्थल सहित वापसी का प्रावधान था। लेकिन दो साल के बजाय नौ साल हो गए हैं और निर्माण आधा-अधूरा है। 

इस समिति को भूमि आवंटन से लेकर आवंटन नियमों तथा चिकित्सा शिक्षा विभाग के नियमों में बदलाव का काम बेहद तेजी से इसलिए भी चला कि इस संस्था से एक तो आचार्य विद्यासागर जी महाराज का नाम जुड़ा था। दूसरा यह कि सरकार में महत्वपूर्ण ओहदों पर बैठे देवेंद्र सिंघई सहित कई आला अफसर भी समिति में थे। इनमें से एक हैं प्रधानमंत्री दफ्तर में संयुक्त सचिव अनुराग जैन। उस वक्त वह मुख्यमंत्री सचिवालय में सचिव पदस्थ थे। अनुराग जैन ने विवादों का साया गहराते देख संचालक का पद छोड़ दिया और प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली चले गए।

विद्यासागर महाराज को जब पता चला कि मेडिकल कॉलेज जैन समाज की नहीं बल्कि कुछ व्यक्तिगत लोगों की जागीर बन गया है तो उन्होंने ऐतराज जताया। विद्यासागर महाराज चाहते थे कि समाज के लोग इसे बनाएं। लेकिन संस्था ने तो कर्ज भी लीज पर बनी जमीन के एवज में लिया। विद्यासागर महाराज की भृकुटि टेढ़ी होने के बाद तो समिति ने रातोरात संस्था का नाम बदलवाने का प्रस्ताव पारित करके सरकार से भी इसकी मंजूरी करा दी। नाम बदलने के तुरंत बाद समिति से इस्तीफा देने वाले सबसे पहले शख्स रिटायर्ड जस्टिस एन. के. जैन थे। समिति के क्रियाकलापों और नाम बदलने से रुष्ट मुनि संघ सेवा समिति के महामंत्री नरेंद्र जैन वंदना भी थे। वह भी संचालक पद छोड़ गए। जैन का कहना है कि हम तो विद्यासागर जी के कारण जुड़े थे। उनका नाम हटाया तो हम भी हट गए।

इस समिति के दूसरे अध्यक्ष प्रदेश के वित्त एवं वाणिज्यिक कर मंत्री जयंत मलैया थे। वह भी इससे किनारा कर गए। अब सनत जैन इसके अध्यक्ष हैं और सचिव के पद पर डॉ. राजेश जैन सारे काम शुरू से देख रहे हैं। अफसरों में रिटायर्ड आईएएस देवेंद्र सिंघई और गुना कलेक्टर राजेश जैन भर ऐसे रसूखदार कहे जा सकते हैं, जो इस मेडिकल कॉलेज को बनवाने जा रही समिति से अब भी जुड़े हैं। समिति सचिव डॉ. राजेश जैन को इस मामले की जांच आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो से कराए जाने पर ही ऐतराज है। जैन ने कहा, ‘जब हमने एक पैसा किसी से नहीं लिया तो जांच कैसी? उनको जांच करना है तो करते रहें। अस्पताल चालू हो चुका है।’ एमसीआई के निरीक्षण के बाद मेडिकल कॉलेज भी शुरू हो जाएगा। लेकिन कांग्रेस प्रवक्ता केके मिश्रा कहते हैं, ‘यह समाज के नाम पर चंद लोगों को सरकारी जमीन की खुली बंदरबांट है। हम इस मामले को तार्किक परिणति तक पहुंचाएंगे।’ फिलहाल, ईओडब्ल्यू को सरकार से जवाब का इंतजार है।