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किसान हक के लिए एकजुटता से झुकी सरकार

सीकर में हुआ अनोखा किसान आंदोलन फिलहाल तो सरकारी वादे से थमा लेकिन इससे राज्य की सियासत में नया रंग उभरने के संकेत
एकजुटता की ताकतः सीकर में किसानों का साथ देने हर वर्ग के लोग सड़कों पर उतरे

न खून का एक कतरा गिरा, न हिंसा हुई, न बल प्रयोग हुआ। राजस्थान के मरुस्थली भू-भाग के चौदह जिलों के शहरों-कस्बों में लगभग डेढ़ हफ्ते तक सड़कें किसानों से गुलजार रहीं। कभी ‘किसान कर्फ्यू’ तो कभी चक्‍का जाम से जिंदगी ठहरी रही। राजस्थान में आंदोलनकारी किसानों का यह समागम तब खत्म हुआ जब सरकार ने उनसे बात की और उनकी मांगों पर समझौता किया। लेकिन इस आंदोलन ने प्रचलित राजनीति के मुद्दे और बहस को बदल दिया। समाज का ऐसा कोई हिस्सा नहीं था जो इस आंदोलन में शरीक न हुआ हो। राजस्थान में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और प्रतिपक्षी कांग्रेस इस आंदोलन को लेकर या तो विरक्त भाव में थी या खुद को महज बयानों तक सीमित रखा। विश्लेषक कहते हैं कि साल भर बाद होने वाले चुनावों में किसान इन दलों से उनके रुख पर सवाल जरूर पूछेगा।

हालांकि सवाल तो सरकार से भी अभी बाकी है। यह इस पर निर्भर है कि किसान आंदोलन और सरकार के बीच जो सहमति बनी है, उस पर कैसे और कितना अमल होता है। आंदोलन के अगुआ संगठन अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव संजय माधव के मुताबिक सरकार किसानों के 50,000 रुपये तक कर्ज माफ करने को राजी हुई है। इस पर कैसे अमल होगा, यह तय करने के लिए एक समिति का गठन किया गया है। इसके अलावा आंदोलनरत किसानों पर मुकदमे वापस लेने पर भी सहमति बनी। लेकिन आंदोलन वापस होते ही सीकर में कई किसानों पर मुकदमे लादने का सिलसिला शुरू हो गया। बाकी मांगों पर भी सरकारी रवैया बहुत ठोस नहीं दिखता। मसलन, स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू करने की मांग पर सरकार ने कहा है कि वह केंद्र सरकार को एमएसपी और लागत मूल्य का समीकरण तय करने के लिए फिर लिखेगी। पशु व्यापारियों को सुरक्षा प्रदान करने पर भी सरकार ने वादा भर किया है। 5000 रुपये पेंशन की मांग पर सरकार 2000 रुपये देने को तैयार हुई है। रोजगार और टोल टैक्स पर भी कोई ठोस वादे नहीं किए गए हैं। यानी किसानों और सरकार के बीच मौजूदा समझौता अस्‍थाई लगता है।  

लेकिन सत्तारूढ़ भाजपा के नेता इसे सियासी नफे-नुकसान की नजर से नहीं देखते। पार्टी कहती है कि वह किसानों के साथ है। वनवास काट रही विपक्षी पार्टी कांग्रेस का दावा है कि कांग्रेस किसान की हर दुख-तकलीफ में साथ रही है। मगर इस कामयाब किसान आंदोलन की अगुआई करने वाली मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व विधायक और किसान सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमराराम कहते हैं कि दोनों दलों ने किसानों को उनके हाल पर छोड़ दिया।

शेखावाटी का सीकर इस आंदोलन की केंद्रीय धुरी बन कर उभरा। सीकर जिले से विधायक रहे अमराराम कहते हैं, ‘‘भाजपा को छोड़ो वह सत्ता में है मगर कांग्रेस विपक्ष में होकर भी हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठी रही।’’ शेखावाटी में रशीदपुरा गांव के बुजुर्ग किसान रामेश्वर बगड़िया अपनी स्मृति पर जोर देकर कहते हैं, ‘‘ऐसा व्यापक किसान आंदोलन इससे पहले नहीं देखा। ऐसा माहौल था जैसे कोई युद्ध का आह्वान हो और कोई भी जांबाज पीछे रहना न चाहता हो।’’ अमराराम अतीत में झांक कर कहते हैं, ‘‘मैं उम्र के साठ पड़ाव पार कर चुका हूं। मगर यह अब तक का सबसे बड़ा किसान आंदोलन था।’’

दरअसल, किसान सभा ने बीते जून माह में कर्ज माफी और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की मांग को लेकर गांव-देहातों में किसानों को संगठित करना शुरू किया। यह वह वक्त था जब सियासत कभी मंदिर-मस्जिद, कभी गाय और कभी जातिगत समीकरणों में उलझी हुई थी। लेकिन किसान सभा और उसके हिमायती किसानों ने आंदोलन को आकार देने का काम हाथ में लिया। इसके तहत बीती 17 जुलाई को राजस्थान के कई स्थानों पर ‘किसान कर्फ्यू’ लागू किया गया। किसान सभा ने अपने मकसद को अंजाम तक पहुंचाने के लिए प्रशासन की तर्ज पर कोई चालीस किसान चौकियां बनाईं और चक्‍का जाम कर दिया। इसकी सफलता ने आंदोलनकारियों को उत्साहित किया जबकि मुख्यधारा की पार्टियां इससे बेखबर रहीं। किसानों ने सरकार को फैसले के लिए दस दिन का वक्त दिया।

किसान सभा ने चरणबद्ध रूप से अपने कदम उठाए। बीच-बीच में कुछ किसानों की खुदकशी की खबरें भी आईं। लेकिन भाजपा और कांग्रेस दोनों ने इस पर ज्यादा गौर नहीं किया। किसान सभा ने 27 जुलाई को फिर बैठक की और हालात की समीक्षा की। इस बैठक में नौ अगस्त से तहसील स्तर पर गिरफ्तारी आंदोलन चलाने का आह्वान किया गया। आंदोलन के दिन किसान खेत-खलिहान छोड़ कर तहसीलों तक आए और गिरफ्तारी दी। यह आंदोलन का वह मुकाम था जब सरकार बातचीत के जरिए कोई समाधान निकाल सकती थी। लेकिन कोई भी उस वक्त किसानों का तेवर और दर्द समझने को तैयार नहीं था। किसानों को लगा कि उनकी उपेक्षा की जा रही है। इसके बाद किसानों ने एक सितंबर से बेमियादी महापड़ाव डालने का ऐलान कर दिया।

संजय माधव कहते हैं, ‘‘राजस्थान ऐसे दृश्यों का गवाह बना जहां मरुस्थली भू-भाग के गांव-गांव से किसान जिला मुख्यालयों पर आ जमे और आंदोलन की कमान खुद अपने हाथ में ले ली।’’ इस महापड़ाव ने ऐसे मंजर देखे जब हाल के वर्षों में घनीभूत हुई जातिवाद की दीवारें ढह गईं, औरत-मर्द का भेद छोटा हो गया और धर्म-मजहब के फासले घट गए। इस आंदोलन में वे जाति समूह एक मंच पर आ गए जो सामाजिक धरातल पर एक दूजे के विपरीत खड़े मिलते थे। एक लम्हा वह भी आया जब ग्रामीण परिवेश में घर-खेत की चारदीवारी तक महदूद रहने वाली महिलाएं पारंपरिक लिबास में सीकर की सड़कों पर निकल आईं।

चश्मदीदों के मुताबिक महिलाओं की यह हाजिरी न तो प्रतीकात्मक थी, न पारंपरिक। बल्कि वे अपने हको-हुकूक के नारे बुलंद करते हुए निकलीं। उन्होंने अधिकारों के नग्मे गाए और पूरे समय सक्रिय बनी रहीं। फिर चाहे रास्ता रोकना हो या आंदोलन के रोजमर्रा काम में हाथ बंटाना हो। इसके आगे की कहानी बताती है कि नेतृत्व की साख साथ हो तो कैसे वास्तविक मुद्दों को लेकर आगे बढ़ने पर भीड़ को बड़े आंदोलन में बदला जा सकता है।

सीकर के लोग बताते हैं कि देखते-देखते व्यापारी, मजदूर, वकील, छात्र और दीन-दलित सभी इस आंदोलन का हिस्सा बन गए। बार एसोसिएशन ने भी किसानों का खुलकर समर्थन किया। यहां तक कि जयपुर से वकीलों का एक दल समर्थन का संदेश लेकर सीकर पहुंचा। यह सीकर के लिए अनूठा अनुभव था, जब शादी-विवाह, उत्सव और मांगलिक मौकों पर संगीत बिखरेने वाले तीन सौ डीजे वाले अपने लाव-लश्कर के साथ सड़कों पर निकले और आंदोलन की प्रशस्ति में गाने गाए। सीकर की बकरा मंडी पशु बिक्री का बड़ा केंद्र है। बकरा मंडी ने भी आंदोलन में शिरकत की। इसके साथ सरकारी और निजी अस्पतालों में लगे एंबुलेंस वाहनों ने भी कतारबद्ध होकर जुलूस निकाला। किसी ने गेहूं का इंतजाम किया तो किसी ने खाने के लिए लंगर सजाए।

पिछले कुछ समय से खामोशी ओढ़े बैठे अल्पसंख्यक समुदाय ने भी किसान आंदोलन में सक्रियता से भाग लिया। सीकर में अल्पसंख्यक समुदाय के एक सदस्य ने कहा ‘‘हाल में जब तनाव हुआ तो मुस्लिम भयभीत थे। लेकिन मार्क्सवादी पार्टी ने शांति मार्च निकाला और भय के माहौल को दूर किया। ऐसे में हम खुद को आंदोलन में शामिल होने से रोक नहीं पाए।’’

सीकर में मार्क्सवादी पार्टी के किशन पारीक कहते हैं, ‘‘पशु व्यापारियों और किसानों का रिश्ता बहुत गहरा है। दोनों एक-दूसरे से जुड़े हैं, सरकार ने पशु बिक्री पर कानून लाकर दोनों के हितों पर चोट की है। हमने इसका विरोध किया है।’’ पारीक कहते हैं, ‘‘सीकर में राजनैतिक मकसद से जब सांप्रदायिक सद्भाव तोड़ने की कोशिश की गई। उस वक्त हमारी पार्टी ने शांति मार्च निकाला जबकि दूसरी पार्टियां या तो खामोश थीं या भावनाएं भड़का रही थीं।’’

होश के साथ जोशः अहिंसात्मक तरीके से किसानों ने रखी अपनी मांगें

पूर्व विधायक अमराराम कहते हैं, ‘‘सरकार ने ऐसे हालात बना दिए कि किसान का खेत पर रुकना मुश्किल हो गया है। राजस्थान में प्याज, मूंगफली और सरसों की खेती करने वाले किसान उपज का वाजिब मोल न मिलने से तबाह हो गए हैं। किसानों को इन फसलों में तीस हजार करोड़ की मार पड़ी है जबकि कुल ऋण की राशि ही 39 हजार करोड़ रुपये है।’’ किसानों को यूरिया मिलना दुश्वार हो गया है। सरकार ने यूरिया के लिए आधार कार्ड जरूरी कर दिया। अमराराम कहते हैं, ‘‘यूरिया लेने जाओ तो फिंगर प्रिंट लिए जाते हैं। इसके लिए व्यापारी के यहां मशीन लगा दी गई है।’’ वे पूछते हैं, क्या किसान और व्यापारी अपराधी हैं? किसानों के मुताबिक, हर रोज एक कट्टा यूरिया ही ले सकते हैं। अगर यूरिया ज्यादा चाहिए तो हर दिन व्यापारी के यहां जाना होगा। अमराराम बताते हैं कि जीएसटी ने किसानों के काम आने वाली खाद-बीज, पंप सेट, फव्‍वारा, कृषि उपकरण और छोटी-छोटी चीजों को अपनी जद में ले लिया। यह किसान के लिए असहनीय हो गया था।

पर क्या भाजपा ने किसानों के गुस्से को भांपने में चूक की है? इस पर सत्तारूढ़ भाजपा के महामंत्री और विधायक अभिषेक मटोरिया कहते हैं, ‘‘बिलकुल नहीं। भाजपा सरकार पहले से ही इन सब मुद्दों पर विचार करती रही है। हम किसानों के प्रति जवाबदेह हैं और पूरी तरह उनके साथ हैं।’’ विपक्षी कांग्रेस का कहना है कि उसने समय-समय पर किसानों के मुद्दे उठाए हैं। कांग्रेस की प्रवक्ता अर्चना शर्मा कहती हैं, ‘‘कांग्रेस कितनी गंभीर है यह इसी से साबित होता है कि खुद राहुल गांधी यहां आए थे और किसानों की मांग को स्वर दिए। हमारे प्रदेश प्रमुख सचिन पायलट भी कह चुके हैं कि जल्द ही फिर से किसानों की समस्याओं पर आंदोलन किया जाएगा। कांग्रेस ने हर मुद्दे और मौके पर किसानों की पैरवी की है।’’

राजस्थान में भाजपा के करीबी संगठन भारतीय किसान संघ का दावा है कि उसके राज्य में सात लाख सदस्य हैं। लेकिन भारतीय किसान संघ ऐसा कोई आंदोलन नहीं कर पाया। किसान संघ के संगठन मंत्री कृष्ण मुरारी कहते हैं, ‘‘सीकर आंदोलन राजनैतिक था, हम गैर राजनैतिक रूप से आंदोलन करते हैं। सीकर आंदोलन वामपंथी संगठनों ने अपने राजनैतिक लाभ के लिए किया था।’’ वे कहते हैं, ‘‘किसान संघ ने गत बीस जून को एक बड़ा प्रदर्शन किया था। इसके बाद किसानों की समस्याओं को लेकर संघ की राज्य सरकार से बात हुई थी और कुछ मांगों पर सहमति बनी थी। यह जरूर है कि कुछ मांगों पर सरकार ने हामी भरी पर उसे लागू नहीं किया। हम सरकार से फिर मिलेंगे। ’’ वे कहते हैं कि सीकर आंदोलन का क्या परिणाम निकला और किसान को क्या मिलेगा, यह वक्त बताएगा। किसान संघ के कृष्ण मुरारी को संदेह है कि सीकर आंदोलन से किसानों को कुछ प्राप्ति होगी।

लेकिन इस आंदोलन ने चुनाव से पहले अचानक सियासत का मिजाज बदल दिया है। इस आंदोलन के राजनैतिक फलित पर वरिष्ठ पत्रकार ओम सैनी कहते हैं, ‘‘पहले कांग्रेस जैसे सभी दलों में कृषक संगठन बहुत अहम होते थे। मगर पिछले कुछ वर्षों में किसान संगठन हाशिए पर ला दिए गए। इस आंदोलन से सियासी दलों में किसान समूह और संगठनों की महत्ता फिर से बहाल होगी।’’ सैनी कहते हैं, ‘‘सीकर आंदोलन की व्यापकता यह भी संकेत देती है कि प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी और राजस्थान में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने राजनैतिक फलक पर जो आभामंडल तैयार किया था उसकी चमक अब फीकी पड़ गई है। लोग अब वास्तविक मुद्दों पर लौटने लगे हैं। इस आंदोलन ने भाजपा का अहंकार भी तोड़ा है।’’ सैनी कहते हैं, ‘‘लगता है अब हिंदुत्व का मुद्दा भी क्षीण होने लगा है।’’

राजस्थान में किसान स्वभाव से धैर्यवान है। क्योंकि इस मरुस्थली राज्य को सूखा और अकाल विरासत में मिला है। कुदरत की मार और अभावों के बावजूद कभी किसान ने हिम्मत का दामन नहीं छोड़ा। लेकिन हाल में जब थके-हारे किसानों की मौत को गले लगाने की खबरें सामने आने लगीं तो इसे बहुत दुख के साथ सुना गया। हालांकि सरकार ऐसी घटनाओं को कर्ज और फसल की विफलता से उपजी घटना नहीं मानती। पर किसान संगठनों का कहना है कि यह  यथार्थ है। किसान का हौसला टूटा है और इस मायूसी ने कुछ लोगों में जीने की ललक खत्म कर दी है। शेखावाटी के किसान रामेश्वर पुरानी कहावत, ‘जब राम रूठ जाए तो राज मदद करता है’ का हवाला देते हैं। वह कहते हैं, ‘‘इसी भरोसे किसान प्राकृतिक आपदा से पार पा लेता है। मगर जब राम और राज दोनों रूठ जाए तो किसान का हौसला टूट जाता है। आज यही हो रहा है।’’

आंदोलन का पटाक्षेप हुआ तो हर्षित और उल्लसित किसान फिर से गावों को लौट गए। खेत खलिहानों पर मुस्कान लौटी और चौपालों की रौनक बहाल हो गई। यह खुशहाली कितनी स्थाई होगी इस पर सबकी निगाहें लगी हुई हैं। 

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