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हकीकत या फसाना

आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य वर्ग के लिए 10 फीसदी आरक्षण को उम्मीदों और संवैधानिकता पर खरा उतरना बाकी
नौकरी का संकटः दिल्ली में संसद मार्ग पर प्रदर्शन करते एसएससी परीक्षार्थी

उम्मीद तो यही होगी कि रोजगार के मोर्चे पर बुरी तरह फंसी केंद्र सरकार को आम चुनावों के ऐन पहले आर्थिक आरक्षण से कुछ चुनावी राहत हासिल हो जाएगी। हालांकि, विपक्षी पार्टियां इसे मोदी सरकार का एक और जुमला बता रही हैं। लेकिन गौरतलब यह भी है कि कुछ गिनती के अपवादों को छोड़कर किसी भी राजनैतिक पार्टी ने इसका विरोध नहीं किया। अलबत्ता द्रविड़ मुनेत्र कझगम (द्रमुक) ने जरूर यह कहा है कि वह इसकी संवैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने जा रही है। फिर भी सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लिए नौकरियों और शिक्षा संस्‍थानों में 10 फीसदी आरक्षण की व्यवस्‍था वाला 124वां संविधान संशोधन कई तरह के सवालों को जन्म दे रहा है। क्या यह संवैधानिक मानदंडों पर खरा उतर पाएगा? सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्‍थानों के बड़े पैमाने पर सिकुड़ने के दौर में यह कितने काम का है या इससे कितना फायदा मिल पाएगा? निजी शिक्षण संस्‍थाओं में सीटें बढ़ाने और इस पर अमल करने का सरकार दावा तो कर रही है लेकिन 1990 में मंडल आयोग की रपट लागू होने के समय निजी संस्‍थानों में आरक्षण के मामलों में अदालती रोक और लंबित फैसले का इस पर क्या असर होगा? सवाल और भी हैं, मसलन इसकी शर्तें केंद्र के मानक के हिसाब से तय होंगी या राज्य अपने हिसाब से तय करेंगे? क्या मौजूदा आर्थिक मानक अदालती समीक्षा में टिक पाएंगे? ये सब सवाल ऐसे हैं जिनके जवाब बेहद जरूरी हैं।

संवैधानिक कसौटी पर कितना खरा

आर्थिक रूप से कमजोर सामान्य वर्ग को 10 फीसदी आरक्षण का विधेयक राज्यों में लागू करने का सिलसिला शुरू भी हो गया है। भाजपा शासित गुजरात, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और झारखंड ने इसे लागू कर दिया है। हालांकि, संवैधानिक कसौटी पर इसके टिक पाने पर संविधान विशेषज्ञों को संदेह है। संविधान विशेषज्ञ और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील राजीव धवन का मानना है, “यह असंवैधानिक है और सरकार इसे सुप्रीम कोर्ट में डिफेंड नहीं कर पाएगी। खासतौर पर, 1992 के इंदिरा साहनी मामले में फैसले के बाद आर्थिक रूप से कमजोर यानी ईडब्ल्यूएस आरक्षण का आधार नहीं हो सकता है। यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरक्षण की निर्धारित 50 फीसदी सीमा से भी अधिक है।”

दरअसल, संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान नहीं है। यही वजह है कि जब 1991 में प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव की सरकार ने अगड़ी जातियों के लिए 10 फीसदी आरक्षण की व्यवस्‍था करवाई, तो सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यीय खंडपीठ ने उसे गैर-संवैधानिक करार दे दिया। इंदिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संविधान के अनुच्छेद-16 (4) में आरक्षण का प्रावधान व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि समुदाय के लिए है। साथ ही, आरक्षण का आधार आय और संपत्ति को नहीं माना जा सकता है।

इससे पहले बिहार में 1978 में तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने भी आर्थिक आधार पर सवर्णों को तीन फीसदी आरक्षण दिया, लेकिन कोर्ट ने इसे भी खारिज कर दिया था। सितंबर 2015 में राजस्थान सरकार ने सामान्य श्रेणी के आर्थिक पिछड़ों को शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में 14 फीसदी कोटा देने की घोषणा की, जिसे दिसंबर 2016 में राजस्थान हाइकोर्ट ने रद्द कर दिया। गुजरात सरकार ने अप्रैल 2016 में सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से पिछड़ों को 10 फीसदी आरक्षण देने का फैसला किया। लेकिन अगस्त 2016 में ही गुजरात हाइकोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार दे दिया।

सरकार ने 10 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था सिर्फ उन सामान्य वर्ग के लिए की है, जिनकी सालाना आय आठ लाख रुपये से कम और कृषि योग्य भूमि पांच एकड़ से कम है। यह भी प्रावधान किया गया है कि घर 1,000 वर्गफुट जमीन से कम में होना चाहिए, निगम में आवासीय प्लॉट 109 वर्गगज से कम होना चाहिए और निगम से बाहर के प्लॉट 209 वर्गगज से कम होने चाहिए। लेकिन इस आधार में भी कई खामियां हैं। बताया जा रहा है कि गरीब सवर्णों के लिए 10 फीसदी आरक्षण मौजूदा 50 फीसदी की सीमा से अलग होगा, लेकिन ऐसे में सवाल उठता है कि क्या संविधान में ऐसा बदलाव किया जा सकता है, जबकि समानता संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है। सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि संविधान की मूल संरचना से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती है।

घट रही नौकरियां, कितना मिल पाएगा लाभ

एक सवाल यह भी है कि इस आरक्षण से क्या फर्क पड़ेगा, क्योंकि हर साल लगभग 1.2 करोड़ लोग लेबर मार्केट में प्रवेश करते हैं, लेकिन इसकी तुलना में रोजगार सृजन की दर बहुत कम है। लेबर ब्यूरो की मौजूदा रिपोर्ट के मुताबिक, 2015 में बेरोजगारी दर पांच फीसदी थी। वहीं, ग्रेजुएट और 18 से 29 वर्ष की आयु वर्ग में बेरोजगारी दर 18.4 फीसदी है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी ने हाल में अपनी रिपोर्ट में देश में बढ़ती बेरोजगारी के आंकड़े जारी किए। रिपोर्ट के मुताबिक, 2018 में 1.10 करोड़ भारतीयों ने नौकरियां गंवाई। संगठित क्षेत्र में भी काफी तेजी से सरकारी नौकरियां कम हुई हैं। पब्लिक सेक्टर की बात करें तो 2017-18 में ही इस क्षेत्र में नौकरियां 11.85 लाख से घटकर 11.31 लाख हो गईं।

लोकसभा में एक सवाल के जवाब में सरकार ने भी बताया कि 2013 और 2015 के बीच केंद्रीय मंत्रालयों और विभागों द्वारा डायरेक्ट रिक्रूटमेंट में 89 फीसदी की कमी आई है। 2013 में यह आंकड़ा 1 लाख 51 हजार 841 था, जो 2014 में 1 लाख 26 हजार 261 हो गया। वहीं, 2015 में 15,877 के स्तर पर आ गया। इसके अलावा 2014 में अनुमोदित और खाली पदों के बीच का अंतर 4.22 लाख था। देश में संगठित और असंगठित क्षेत्र में मौजूद नौकरियों में 2.7 फीसदी ही सरकारी नौकरियां हैं। कार्मिक और प्रशिक्षण मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक, 2015 से 2017 के बीच नौकरियों के अवसर लगातार कम हुए हैं। 2015 में जहां सरकारी नौकरियों की संख्या 1 लाख 13 हजार 524 थी, वहीं, 2017 में घटकर 1 लाख 933 रह गई। भारी उद्योग और सार्वजनिक उद्यम मंत्रालय के अलग-अलग आंकड़ों से पता चलता है कि केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र उद्यम (सीपीएसई) में कर्मचारियों की संख्या 2012 के 16.91 लाख से घटकर 2017 में 15.23 लाख हो गई।

वहीं, वैश्विक मानकों के हिसाब से उच्च शिक्षा के लिए कॉलेज जाने वाले छात्रों की संख्या बहुत कम है। भारत का कुल एनरॉलमेंट अनुपात 25 है, जबकि दक्षिण कोरिया का 93 और चीन का 48 है। इसका मतलब है कि उच्च शिक्षण संस्थानों में सीटों की संख्या में पर्याप्त बढ़ोतरी नहीं हुई है, क्योंकि 18 से 23 वर्ष के आयु वर्ग के 20 फीसदी भारतीय छात्र कॉलेज में दाखिला लेना चाहते हैं, लेकिन वे इससे वंचित रह जाते हैं। हालांकि, पिछले पांच साल के आंकड़े देखें, तो उच्च शिक्षा में कुल एनरॉलमेंट अनुपात में बढ़ोतरी हुई है। 2012-13 में यह संख्या 21.5 लाख थी, जो 2016-17 में बढ़कर 25.2 लाख हो गई। लेकिन पिछले पांच साल में उच्च शिक्षा में सामान्य वर्ग में दाखिले में कमी आई है। 2012-13 में यह लगभग 50-52 फीसदी के आसपास थी, जो 2016-17 में घटकर 42-43 फीसदी के आसपास आ गई।

 "यह असंवैधानिक है और सरकार इसे सुप्रीम कोर्ट में डिफेंड नहीं कर पाएगी"

- राजीव धवन, वरिष्ठ वकील, सुप्रीम कोर्ट

निजी शिक्षण संस्थानों की उलझन

सरकार का दावा है कि सामान्य वर्ग के 10 फीसदी आरक्षण को निजी ‌शिक्षण संस्‍थानों में भी लागू होगा। इस बाबत केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बताया कि संस्थानों में सीटों की संख्या बढ़ाई जाएगी और 10 फीसदी आरक्षण इसी सत्र से सभी पाठ्यक्रमों में लागू होगा। इसके लिए सीटों में 25 फीसदी तक की बढ़ोतरी की जाएगी, ताकि एससी, एसटी और अन्य वर्ग में आरक्षण की व्यवस्था प्रभावित न हो पाए।

हालांकि, इससे पहले भी 93वें संविधान संशोधन के जरिए निजी शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। लेकिन इलाहाबाद हाइकोर्ट ने इसे खारिज कर दिया, जिसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट में गया और यह अभी तक लंबित है। अब मौजूदा 124वें संविधान संशोधन के तहत निजी शिक्षण संस्थाओं में भी आर्थिक रूप से कमजोर सामान्य वर्ग को 10 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया है।

निजी शिक्षण संस्थानों से मतलब गवर्नमेंट एडेड और अन एडेड संस्थान हैं। हालांकि, मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि निजी संस्थानों में इस आरक्षण को लागू करने के लिए इनेबलिंग बिल लाया जाएगा। इसके तहत निजी संस्थानों में आरक्षण के लिए संविधान में व्यवस्था की जाएगी। आवश्यक संशोधन किया जाएगा। हालांकि, बिल का प्रारूप कैसा होगा, इसके बारे में अभी स्थिति साफ नहीं है। यही नहीं, दिल्ली विवि ऑर्डिनेंस के जरिए शिक्षकों की ठेके पर नियुक्ति का विवाद भी शिक्षण संस्‍थानों में सीटें बढ़ाने के आड़े आ सकता है। इस ऑर्डिनेंस को भी इलाहाबाद हाइकोर्ट ने खारिज कर दिया है और केंद्र सरकार फिर नए ऑर्डिनेंस पर विचार कर रही है। लेकिन सरकार के कार्यकाल गिनती के बचे हैं। ऐसे में कब वह ऑर्डिनेंस या इनेबलिंग बिल लाएगी, इसका जवाब आसान नहीं है। यानी नौकरियों की कमी के साथ शिक्षण संस्‍थानों में आरक्षण पर भी ग्रहण लगा हुआ है। इसलिए यह नया संशोधन अपने दोनों ही बड़े मकसदों में एक छलावा साबित हो सकता है।

दूसरे वर्गों में बढ़ेगी बेचैनी

संविधान लागू होने के बाद 1953 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग का मूल्यांकन करने के लिए काका कालेलकर आयोग का गठन किया गया। आयोग की रिपोर्ट के आधार पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की सिफारिशों को माना गया, जबकि ओबीसी की सिफारिशों को नकार दिया गया।

मामला जब 1963 में सुप्रीम कोर्ट के पास गया, तो अदालत ने कहा कि आमतौर पर 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता है। इसके बाद 1979 में सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़ों की स्थिति का पता लगाने के लिए मंडल कमीशन बनाया गया। 1980 में मंडल कमीशन ने कोटा में बदलाव करते हुए 22 फीसदी को 49.5 फीसदी तक करने की सिफारिश की और 1990 में वी.पी. सिंह की सरकार ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को सरकारी नौकरियों में लागू किया।

अभी देश में कुल 49.5 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था है। अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 फीसदी, अनुसूचित जातियों को 15 फीसदी और अनुसूचित जनजाति को 7.5 फीसदी आरक्षण का प्रावधान है। इसके अलावा अन्य वर्ग जो आरक्षण की मांग करते आ रहे हैं, उनका आंदोलन भी तेज है। हरियाणा में जाट समुदाय काफी समय से सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी कैटेगरी के तहत आरक्षण की मांग करता आ रहा है। राजस्थान में गुर्जरों को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में रखा गया है, लेकिन वे अनुसूचित जनजाति के तहत मिलने वाली आरक्षण सुविधा की मांग कर रहे हैं। गुजरात में हार्दिक पटेल की अगुआई में पटेल आरक्षण की मांग कर रहे हैं। आंध्र प्रदेश में कापू समुदाय की भी आरक्षण की मांग बहुत पुरानी है। महाराष्ट्र में मराठों के आरक्षण की मांग अक्सर उठती रहती है।

आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण देने पर जाट नेता यशपाल मलिक कहते हैं कि सरकार की मंशा सही नहीं है। मलिक कहते हैं, “जाट, मराठा, कापू, पटेल आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन उन्हें अभी तक आरक्षण नहीं दिया गया। यह सरकार आरएसएस के एजेंडे पर काम कर रही है और किसान जातियों को खत्म करने की साजिश रची जा रही है। अगर सरकार मानती है कि आरक्षण देना जरूरी है, तो उनकी मांग को क्यों ठुकराया गया। देश में सवर्णों की 15 फीसदी आबादी है और उन्हें 10 फीसदी आरक्षण दे दिया गया, लेकिन जिनकी आबादी 60 फीसदी है, सरकार उनके लिए 27 फीसदी में भी झगड़ा बनाए हुए है।” 

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