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अर्जुन या सारथी?

मैदानी सच्चाइयों और क्षेत्रीय दलों की महत्वाकांक्षाओं को ध्यान में रख रणनीति बदल सकते हैं राहुल गांधी
मुकाबले की तैयारीः दुबई में भारतीयों को संबोधित करते कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी

“मैं मायावती जी और अखिलेश जी का सम्मान करता हूं। मेरी राय पार्टी के प्रदेश नेताओं से कुछ अलग है। राज्यों में भले न हो पाए लेकिन आम चुनाव में हम समझौते में होंगे।”

-कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान विधानसभा चुनावों के पहले सपा-बसपा से तालमेल न होने पर

“मायावती जी और अखिलेश जी का सम्मान करता हूं। कांग्रेस के लिए कुछ कठोर बातें कही गईं। लेकिन कांग्रेस अपने प्रदर्शन से चौंकाएगी।”

-सपा-बसपा के बीच उत्तर प्रदेश में गठजोड़ के ऐलान के बाद दुबई में

इसे क्या 2019 के महा-मुकाबले के बदलते परिदृश्य का संकेत माना जाए? संकेत और भी हैं, अगरचे आप 19 जनवरी को कोलकाता के ब्रिगेड परेड मैदान में ममता बनर्जी की ‘यूनाइटेड इंडिया (संयुक्त भारत)’ महा-रैली की तुलना पिछले साल कर्नाटक में मुख्यमंत्री एच.डी. कुमारस्वामी के शपथ-ग्रहण समारोह के दौरान विपक्षी दिग्गजों के जुटान से करें। कोलकाता की रैली में न सिर्फ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी गैर-मौजूद थीं, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की नेता मायावती भी नदारद थीं। बसपा का प्रतिनिधित्व सतीशचंद्र मिश्रा कर रहे थे तो कांग्रेस के प्रतिनिधि के तौर पर लोकसभा में पार्टी के नेता मल्लिाकार्जुन खड़गे और अभिषेक मनु सिंघवी थे। बेशक, संदेश तो यही है कि आम चुनावों में भाजपा या एनडीए के मुकाबले मोर्चेबंदी में एकजुटता है, लेकिन असली सवाल नेतृत्व का है। कांग्रेस या उसके अध्यक्ष राहुल गांधी इस महाभारत में अर्जुन की भूमिका में होंगे या उन्हें सारथी की भूमिका निभानी होगी? कांग्रेस के सामने शायद यही सबसे बड़ा यक्ष-प्रश्न है।

इसमें दो राय नहीं कि 2018 में कर्नाटक में तेजी से सियासी पहल करके भाजपा के हाथ से बाजी छीन लेने और फिर साल के अंत में हिंदी पट्टी के तीन अहम राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनावों में भाजपा को गद्दी से विस्थापित करने में सफल रहकर राहुल गांधी ने अपने लिए सराहना बटोरी है। उनके खाते में यह श्रेय भी जाता है कि कांग्रेस अध्यक्ष की कमान संभालने के साल भर में ही एक के बाद एक कामयाबियों को अंजाम तक पहुंचाया है। इसका सिलसिला 2017 के गुजरात चुनावों से ही शुरू हो जाता है, जहां कांग्रेस ने तमाम सत्ता-विरोधी ताकतों हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी, अल्पेश ठाकोर को जोड़कर भाजपा को दो अंकों में समेट दिया। इसके साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की अजेय छवि को चुनौती देने वाले अग्रिम मोर्चे पर राहुल गांधी स्थापित हो गए। उन्होंने राफेल विमान सौदे, नोटबंदी, जीएसटी, अर्थव्यवस्था की बर्बादी, किसानों के संकट, संवैधानिक संस्थाओं की दुर्दशा के मामलों में मोदी-शाह की जोड़ी पर तीखे हमले करके भी विपक्ष में सबसे अग्रिम पंक्ति में अपने को खड़ा किया।

इसी वजह से ममता की रैली में भी राहुल की तारीफ हुई। रैली में भाजपा के बागी सांसद शत्रुघ्न सिन्हा तो कह गए, “कांग्रेस के कामयाब अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनी क्षमताओं और समावेशी चरित्र का बखूबी परिचय दिया है।” इस समावेशी रवैए का उदाहरण राहुल अपनी पार्टी में वरिष्ठों को समुचित स्‍थान देकर भी दिखा चुके हैं। शायद इसी वजह से अब भाजपा के मुकाबले कांग्रेस में ज्यादा विकेंद्रीकरण और लोकतंत्र दिखाई देने लगा है। इसी को ध्यान में रखकर तमिलनाडु के अहम किरदार द्रविड़ मुनेत्र कझगम (द्रमुक) के अध्यक्ष एम.के. स्तालिन तो ऐलान कर चुके हैं कि वे राहुल के नेतृत्व में दिल्ली में अगली सरकार देखना चाहते हैं। लेकिन विपक्ष के बाकी दिग्गजों ने अपने पत्ते नहीं खोले या नेतृत्व के सवाल को खुला रखा। ऐसे में राहुल को मैदानी सच्चाइयों और क्षेत्रीय दलों के क्षत्रपों की महत्वाकांक्षाओं को ध्यान में रखकर रणनीति में कुछ बदलाव करने पर मजबूर होना पड़ सकता है।

"विपक्षी गठजोड़ में कांग्रेस की हैसियत उन राज्यों से तय होगी जहां उसकी भाजपा से सीधी टक्कर है"

यह रणनीति क्या होगी, यह भी कोई रहस्य नहीं है। कांग्रेस ने पहले ही उन राज्यों में क्षेत्रीय दलों की अगुआई स्वीकार कर ली है, जहां वह मजबूत नहीं है। लेकिन उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल बड़े राज्य हैं जहां स्थितियां विपरीत हैं। उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा ने उसके लिए महज दो सीटें छोड़कर बाकी का मैदान मुकाबले के लिए छोड़ दिया है। इसी वजह से शायद पार्टी के उत्तर प्रदेश प्रभारी गुलाम नबी आजाद को ऐलान करना पड़ा, “हम चाहते थे साथ रहना मगर वे नहीं रखना चाहते तो हम सभी 80 सीटों पर लड़ेंगे।” पश्चिम बंगाल में भी तृणमूल कांग्रेस का मुकाबला कांग्रेस और वामपंथी दलों, खासकर माकपा से है। वहां भाजपा का वोट प्रतिशत पिछले कुछ चुनावों और उपचुनावों में पांच प्रतिशत से बढ़कर 16 प्रतिशत तक जरूर हुआ है, मगर वह कोई बड़ी चुनौती देने की हालत में नहीं है। इसलिए तृणमूल शायद ही कांग्रेस को अपने में हिस्सा बंटाने दे। हालांकि यह जरूर कहा जा रहा है कि उन सीटों पर जहां भाजपा ज्यादा मजबूत है, किसी अघोषित तालमेल के तहत एक ही विपक्षी मजबूत उम्मीदवार खड़ा किया जाए।

यही नहीं, उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा-रालोद गठबंधन में कांग्रेस को शामिल न करने का एक गणित यह भी बताया जा रहा है कि कांग्रेस अपना वोट इन पार्टियों की ओर नहीं डलवा पाती है। गणित यह भी है कि कांग्रेस अगड़ी जातियों के वोट जितना काटेगी, उससे सपा-बसपा और रालोद गठबंधन को फायदा ही मिलेगा। हालांकि इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि नतीजों के बाद सरकार बनाने के लिए इन दलों का कांग्रेस को या उन्हें कांग्रेस का समर्थन मिलेगा। इसके संकेत भी आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडु और यहां तक कि अखिलेश यादव भी देते हैं। अखिलेश यादव ने ममता की रैली में भी कहा, “मैं हर संभव समझौता करने की कोशिश कर रहा हूं, ताकि उत्तर प्रदेश से भाजपा को शून्य नतीजों के साथ साफ किया जा सके।”

कांग्रेस और राहुल भी विपक्ष की धुरी बनने का इरादा लगातार जाहिर कर रहे हैं। शायद इसी वजह से प्रधानमंत्री बनने के सवालों को वे टाल जाते हैं या कह देते हैं कि “नतीजों के बाद सहयोगियों की जैसी राय होगी। लेकिन अभी तो मकसद भाजपा को हराना है।” कांग्रेस इसके पहले 2004 के आम चुनावों में व्यापक विपक्षी गठजोड़ की धुरी बनकर अनुकूल नतीजे हासिल करने का प्रदर्शन कर चुकी है, इसलिए यह तो नहीं कहा जा सकता कि वह गठबंधन की मजबूत किरदार नहीं बन सकती। लेकिन हर दौर के हालात अलग होते हैं। 2004 तक उसकी पहुंच का दायरा कुछ व्यापक था। पश्चिम बंगाल, पूर्वोत्तर के राज्यों खासकर असम, ओडिशा और सबसे बढ़कर आंध्र प्रदेश में उसकी मजबूत मौजूदगी हुआ करती थी।

अब हालात बदल चुके हैं। आंध्र प्रदेश बंट चुका है। तेलंगाना में उससे टूटे के. चंद्रशेखर राव के आगे हाल के चुनाव में वह विपक्षी गठजोड़ के बावजूद बौनी साबित हुई है। आंध्र प्रदेश में वह मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडु के कारवां की पिछलग्गू है। पूर्वोत्तर में भाजपा सरकार के नए नागरिकता विधेयक के विरोध में जैसा माहौल बनता दिख रहा है, उसमें कांग्रेस के लिए बड़ा गठबंधन कायम करके कुछ हद तक अपनी मजबूती दिखाने की संभावना बन रही है।

हिंदी पट्टी में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ के हालिया विधानसभा चुनाव जीतकर कांग्रेस ने अपने लिए उम्मीद जरूर कायम की है। दिल्ली में उसने शीला दीक्षित को कमान देकर कुछ नया करने के संकेत दिए हैं। कयास यह भी है कि आम आदमी पार्टी से किसी तरह का तालमेल बन सकता है। पंजाब में अमरिंदर सिंह की सरकार पूरे दमखम से तैयार है। हरियाणा में भी भाजपा की मनोहर लाल खट्टर सरकार से नाराजगी और इनेलो में फूट की वजह से बाजी उसके हाथ आ गई है। महाराष्ट्र में शरद पवार की राकांपा से गठजोड़ करके वह मजबूत हालत में है।

इसलिए कांग्रेस के लिए मैदान अब उन्हीं राज्यों में ज्यादा खुला है, जहां उसकी सीधी टक्कर भाजपा से है। उत्तर और पश्चिम के राज्यों खासकर मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ के अलावा महाराष्ट्र और गुजरात में कांग्रेस जितना मजबूत प्रदर्शन कर पाएगी, उसी से यह भी तय हो सकेगा कि केंद्र में भाजपा विरोधी गठजोड़ में उसकी क्या हैसियत रहेगी। इनके अलावा दक्षिण में कर्नाटक भी है लेकिन वहां जेडीएस केंद्र में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए आतुर है।

कांग्रेस को अपने लिए मैदान तैयार करने की भी दरकार है। जैसा कि राहुल गांधी कहते हैं, “कुछ बेहद चौंकाऊ नतीजे आ सकते हैं।” इसका संकेत तो यही है कि ऐसी रणनीतियों पर विचार हो रहा है जो पार्टी को अग्रिम मोर्चे पर खड़ा कर सकें। यह कितना संभव है, ये तो मई के नतीजे ही बताएंगे।    

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