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मोर्चे और मोर्चेबंदियां

महा मुकाबले की मोर्चेबंदियां दोनों ओर लगभग तय, 2019 भी साबित हो सकता है अहम सियासी मुकाम
जोर-आजमाइशः 19 जनवरी को ममता बनर्जी के नेतृत्व में कोलकाता में आयोजित रैली में विपक्ष के तमाम बड़े दिग्गज नेताओं की दिखी मौजूदगी

“बहुत जान है!” शत्रुघ्न सिन्हा का यह डॉयलॉग फिल्मी नहीं, कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड में विशाल जन-समुद्र में उठ रही हुंकार पर मानो माकूल प्रतिक्रिया थी। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा आहूत 19 जनवरी की इस महा-रैली में करीब 25 पार्टियों के दिग्गजों ने भाजपा के खिलाफ मोर्चेबंदी का शंखनाद किया। इस तरह 2019 के महा मुकाबले के लिए खेमेबंदियां भी साफ होने लगी हैं। उसी दिन दीव के सिलवासा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उसे “बचाओ-बचाओ रैली” बताया और पूरी नाटकीय शैली में कहा, “क्या सीन है!” मानो टक्कर हर मोर्चे पर बराबर है। मोर्चे की यह बराबरी मुकाबले के जोरदार होने का संकेत भी दे रही है। ममता की रैली तो महज आगाज भर है। अगर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के ऐलान और नेताओं के किए वादे पर गौर करें तो ऐसी ही “यूनाइटेड इंडिया” (संयुक्त भारत) रैलियां अगले दिनों में आंध्र प्रदेश, दिल्ली, लखनऊ, चेन्नै, बेंगलूरू वगैरह में होंगी। इसके बरक्स भाजपा भी चुनाव के ऐलान के वक्त तक प्रधानमंत्री और सहयोगियों की 100 से अधिक रैलियां करने की योजना बना रही है।

सिकुड़ता एनडीए

हालांकि मोटे तौर पर नजारा यह बनता जा रहा है कि दूसरे पाले में पार्टियां जुड़ती जा रही हैं और सत्तारूढ़ एनडीए का पाला खाली होता जा रहा है। 2014 में एनडीए के पाले में छोटी-बड़ी 40 पार्टियां समा गई थीं और वह भी उस आम चुनाव में एनडीए की ऐतिहासिक जीत की एक बड़ी वजह थी। आज एनडीए में गिनती की पार्टियां रह गई हैं। एनडीए के पाले से बाहर जाने वाला सबसे ताजा घटक गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट है जिसके बनिस्बत पश्चिम बंगाल की दार्जिलिंग सीट पर पहली एनडीए सरकार के दौर से ही भाजपा जीतती आ रही है। पहले यहां से जसवंत सिंह जीते थे मगर 2014 में एस.एस. अहलूवालिया जीते।

जसवंत सिंह को टिकट नहीं दिया गया तो वे बाड़मेर से निर्दलीय लड़े और हार गए। भाजपा के नेतृत्व और चरित्र में बदलाव का वह एक बड़ा प्रतीक था। लेकिन यहां चर्चा नई मोर्चेबंदी पर ही केंद्रित है। इसके पहले एनडीए का पाला छोड़ने वाली पूर्वोत्तर की पार्टियां थीं, जो नए नागरिकता विधेयक को अपनी जातीय अस्मिता पर खतरे की तरह देख रही हैं। इनमें असम गण परिषद, बोडोलैंड नेशलन फ्रंट जैसे सहयोगियों के अलावा मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रंट, अरुणाचल प्रदेश के गेगांग अपांग वगैरह प्रमुख हैं। गेगांग अपांग तो कोलकाता में ममता की रैली में भी शामिल हुए।

एनडीए के पाले में बड़ी पार्टी के नाते बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड और रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी ही रह गई है। रालोसपा के उपेंद्र कुशवाहा दूसरे पाले में राजद और कांग्रेस के साथ जा मिले हैं। सांसदों की संख्या के लिहाज से सबसे बड़ी सहयोगी शिवसेना तो वैसे ही मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को लगातार आंख दिखा रही है। ममता की रैली में विपक्षी दिग्गजों की जुटान पर मोदी के बचाओ-बचाओ तंज पर शिवसेना के मुखपत्र सामना ने संपादकीय लिखा, “कोई अमर होकर नहीं आया है इसलिए गुरूर अच्छा नहीं है।” शिवसेना को भी ममता ने न्योता भेजा था लेकिन बकौल संजय राउत, वहां सेकुलर नेताओं के जुटान की वजह से पार्टी ने शिरकत नहीं की। ममता इसके पहले शिवसेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे से मिल चुकी हैं और ठाकरे अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान भी कर चुके हैं। लेकिन भाजपा जैसे जदयू और लोजपा के आगे झुक गई और 2014 में जीते 22 सांसदों के बदले 17 सीटों पर चुनाव लड़ने को राजी हो गई, उससे यह कयास भी लगाया जा रहा है कि अंततः वह शिवसेना को साथ लेकर चलने के लिए समझौता कर लेगी।

"सत्तारूढ़ एनडीए का पाला खाली होता जा रहा है, दूसरे पाले में पार्टियां जुड़ती जा रही हैं, जो 2014 में एनडीए की जीत की बड़ी वजह थी"

महागठबंधन का फैलता दायरा

इसके मुकाबले विपक्ष या कहिए दूसरे पाले में पार्टियां लगातार जुड़ती जा रही हैं। इसी वजह से ममता की रैली को ‘यूनाइटेड इंडिया’ की संज्ञा दी गई। उस मंच पर राकांपा के शरद पवार, पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा और कर्नाटक के मुख्यमंत्री एच.डी. कुमारस्वामी, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडु, द्रमुक के अध्यक्ष एम.के. स्तालिन, आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल, सपा के अखिलेश यादव, बसपा के सतीशचंद्र मिश्रा, लोकतांत्रिक जनता दल के शरद यादव, कांग्रेस के मल्लिकार्जुन खड़गे तथा अभिषेक मनु सिंघवी, भाजपा के बागी सांसद शत्रुघ्न सिन्हा, पूर्व भाजपा नेता यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी, राजद के तेजस्वी यादव, अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री गेगांग अपांग, झामुमो के हेमंत सोरेन जैसे तमाम नेताओं का तारामंडल मौजूद था। सभी एक स्वर में 'भाजपा हटाओ' या बकौल केजरीवाल 'मोदी-शाह भगाओ' का उद्घोष कर रहे थे। यहां न पहुंचने वालों में ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और तेलंगाना के के. चंद्रशेखर राव से भी भाजपा शायद ही कोई उम्मीद पाल सकती है।

पिछले साल कर्नाटक में कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह से कोलकाता रैली में फर्क सिर्फ इतना था कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी, बसपा नेता मायावती, माकपा महासचिव सीताराम येचुरी, भाकपा नेता डी. राजा जैसे नेता यहां मौजूद नहीं थे। और यही वह संकेत है जिससे महागठबंधन के पेच का एक हद तक खुलासा होता है।

गठबंधन के पेचोखम

इसी पेच से क्षेत्रीय दलों के क्षत्रपों और कांग्रेस तथा वामपंथी दलों के विरोधाभास सामने आता है। जाहिर है, कई राज्यों में समीकरण उलझे हुए हैं और कोई भी अपना दावा कमजोर होता नहीं देखना चाहता। मसलन, मायावती और अखिलेश यादव मोटे तौर पर कांग्रेस को अपने पाले में हिस्सेदारी देना नहीं चाहते।

दरअसल, उत्तर प्रदेश में भाजपा अपने सहयोगी अपना दल के साथ भले 73 सीटें जीतने में कामयाब हो गई हो लेकिन उसका वोट प्रतिशत 42.3 ही था। अब अगर सपा के 22.2 प्रतिशत और बसपा के 19.6 प्रतिशत वोट के साथ रालोद के 0.8 प्रतिशत वोट को जोड़ दें तो यह भाजपा के आसपास बैठता है। फिर कांग्रेस की दरकार नहीं रह जाती। कयास यह भी है कि कांग्रेस को ऊंची जातियों के ही वोट मिलेंगे जो बसपा-सपा की ओर हस्तांतरित नहीं होते।

कांग्रेस की शायद दुखती रग यही है कि उत्तर प्रदेश में 2009 में उसे जब 22 सीटें मिल गई थीं, तब कई सीटों पर उसकी ओर ऊंची, दलित जातियों, अल्पसंख्यकों के अलावा अति पिछड़ी जातियों का झुकाव हो गया था। लेकिन मौजूदा हालात एकदम अलग हैं। 2014 की याद करें तो ऊंची जातियों के साथ बड़े पैमाने पर पिछड़ी और दलित जातियों का रुझान भाजपा की ओर हो गया था। लेकिन केंद्र में पांच साल के मोदी राज और उत्तर प्रदेश में करीब डेढ़ साल के योगी राज में दलित और पिछड़े उसका पाला छोड़ चुके हैं। अति पिछड़े भी सशंकित हैं। लेकिन इन जातियों का रुझान तभी कांग्रेस की ओर हो सकता है जब वह बड़ी जीत का भरोसा दिलाए। लेकिन बिहार में नजारा अलग है। वहां राजद को रालोसपा और जीतनराम मांझी को साथ लेने के बावजूद कांग्रेस की अहमियत ऊंची जातियों के वोटों के लिए ही नहीं, बल्कि अल्पसंख्यक वोटों के लिहाज से भी अहम है।

पश्चिम बंगाल में भाजपा का वोट प्रतिशत कुछेक उपचुनावों में 16 प्रतिशत के आसपास तक जरूर पहुंचा, मगर वह वहां उतनी बड़ी खिलाड़ी नहीं है। वहां तृणमूल कांग्रेस की टक्कर कांग्रेस और वाम दलों के साथ ही है। यही वजह है कि कोलकाता रैली में कांग्रेस के बड़े नेता या वाम दलों के नेता नहीं दिखे। दक्षिण के मोर्चे पर आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी के साथ भाजपा भले कोई तालमेल कर ले लेकिन वहां तेलुगु देशम के साथ कांग्रेस का गठजोड़ भारी है। तेलंगाना की उलझन भी यही है कि वहां चंद्रशेखर राव की तेलंगाना राष्ट्र समिति की मुख्य विरोधी कांग्रेस ही है जिसे हाल के विधानसभा चुनावों में भारी हार का सामना करना पड़ा था। इसी तरह ओडिशा में नवीन पटनायक की बीजद के बरक्स कांग्रेस बड़ी पार्टी है।

क्षत्रपों की महत्वाकांक्षाएं

यही गणित क्षेत्रीय दलों को दिल्ली की गद्दी को लेकर महत्वाकांक्षाएं पैदा कर रहा है। इसके संकेत ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडु तो सबको जोड़कर अपनी ताकत दिखा ही रहे हैं, मायावती की ओर से भी ऐसे ही संकेत मिल रहे हैं। मायावती और अखिलेश के साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक सवाल यह भी आया कि क्या अखिलेश प्रधानमंत्री पद के लिए मायावती का समर्थन करेंगे? अखिलेश यह कहकर इसे टाल गए कि “प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश से ही होगा।” लेकिन मायावती के जन्मदिन पर ऐसे बैनर लहराए गए जिसमें लिखा था 'मायावती होंगी प्रधानमंत्री।' मामला सिर्फ इतना ही नहीं है, कर्नाटक में जेडीएस और कांग्रेस साझा सरकार के संकट के सूत्र इससे भी जुड़े हुए हैं कि जेडीएस दिल्ली में अपना दावा मजबूत करने के लिए कुछ अधिक सीटों पर संसदीय चुनाव लड़ना चाहती है।

केंद्र के खिलाफ बढ़ती नाराजगी

लेकिन यह सारा गणित इसी पर निर्भर करेगा कि भाजपा कितना कमजोर हो पाती है, अगर वह आशंकाओं के विपरीत कुछ बेहतर कर पाई तो केंद्र के समीकरण बदल भी सकते हैं। लेकिन फिलहाल कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों दोनों की ही रणनीति बाजी पलट देने पर केंद्रित है। इसमें दो राय नहीं रह गई है कि देश का बड़ा वर्ग केंद्र में मोदी सरकार से छला हुआ महसूस कर रहा है। नोटबंदी और जीएसटी जैसे फैसलों से अर्थव्यवस्था ही चौपट नहीं हुई, रोजगार के लाले भी पड़ने लगे हैं। फिर, देश में तरह-तरह के ध्रुवीकरण से बढ़ी टकराहटें भी नाराजगी पैदा कर चुकी हैं। इसके अलावा, सीबीआइ, सुप्रीम कोर्ट, आरबीआइ जैसी संस्थाओं की स्वायत्तता पर चोट भी खासकर मध्य वर्ग में नाराजगी का कारण बनती जा रही है। इन सब के बावजूद मध्य प्रदेश, राजस्‍थान के हाल के चुनावों में दिखा है कि भाजपा के वोट प्रतिशत बहुत नहीं घटे हैं। फिर वह अभी भी पूर्वोत्तर, पश्चिम बंगाल, ओडिशा जैसे राज्यों में कुछ सीटें बढ़ने की उम्मीद कर रही है। फिर गुजरात, कर्नाटक और महाराष्ट्र में उसे ठीक-ठाक प्रदर्शन कर लेने की उम्मीद है।

सवाल एजेंडे का

यह सही है कि विपक्षी दल संस्‍थाओं की बर्बादी, राफेल जैसे घोटालों, कृषि संकट, अर्थव्यवस्‍था की बदहाली के इर्दगिर्द भाजपा और मोदी-शाह विरोधी सियासी अफसाना गढ़ रहे हैं लेकिन इसमें यह मुद्दा कमोबेश गायब है कि वे इन समस्याओं का हल कैसे निकालेंगे। कैसे रोजगार की स्थिति सुधरेगी? यह सवाल इसलिए अहम है कि इस बार नौजवानों की एक बड़ी संख्या पहली बार वोट देगी। इसी वजह से कोलकाता की रैली में पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा ने सभी नेताओं की समिति बनाने की बात की, जो देश में अगला शासन कैसे चले, इसका एक प्रारूप तैयार करे। इस प्रारूप समिति पर अभी खास पहल तो नहीं हुई है लेकिन चंद्रबाबू नायडु और शरद पवार की अगुआई में समिति बनाने की बात की गई है। इसी तरह ईवीएम के सवाल पर भी अभिषेक मनु सिंघवी और अरविंद केजरीवाल को प्रस्ताव बनाने का जिम्मा देने की बात है, जो चुनाव आयोग के सामने विपक्ष की ओर से अपनी बात रखेगा। यह किस पैमाने पर होगा, इसका नजारा तो आने वाले दिनों में ही दिखेगा। बहरहाल, तमाम संकेत तो यही हैं कि 2019 के आम चुनावों में भी लगभग तीन दशकों का रिकॉर्ड टूटने जा रहा है, जैसे 2014 में तीस साल बाद किसी पार्टी को बहुमत मिला था। फर्क सिर्फ यह है कि इस बार किसी एक पार्टी या एक निर्णायक नेता को नहीं, बल्कि किसी ऐसे गठबंधन का पक्ष मजबूत हो सकता है, जिसमें  नेतृत्व की भूमिका भी संतुलनकारी ही रह सकती है। यानी केंद्र और हाशिए का फर्क वैसा न रहे, जैसा मौजूदा दौर में देखने को मिल रहा है।

इस मायने में ये चुनाव 1989 की याद दिला सकते हैं, जब जनता दल तमाम वाम और दक्षिणपंथी दलों के बाहरी समर्थन से सरकार में पहुंच गया था और कांग्रेस को हाशिए पर डाल दिया था। फर्क यह है कि इस बार कांग्रेस की जगह भाजपा है। फर्क यह भी है कि कोई वी.पी. सिंह जैसा नेता या जनता दल जैसा ज्यादातर राज्यों में असर रखने वाली पार्टी नहीं है। इसलिए विपक्ष को जोड़ने का सूत्र भाजपा या मोदी राज का केंद्रीकरण और उसकी आक्रामकता ही है। इसी मायने में ये चुनाव अपनी कुछ अलग राजनैतिक तासीर कायम करने का संकेत दे रहे हैं। बहरहाल, ये चुनाव बेहद दिलचस्प होने जा रहे हैं और जनादेश ऐसा आ सकता है जिससे 2014 के निर्णायक नेतृत्व, केंद्रीकरण, मजबूत सरकार और महज औद्योगिक विकास के नारे बेमानी हो जाएंगे। गठजोड़ समावेशी ही होंगे, चाहे धुरी कोई भी बने।

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