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एक कर्मयोगी का जीवन

द्योगपति समाजसेवी एम.आर. मोरारका के जीवन फलक पर दृष्‍टि डालने पर यही सिद्ध होता है
पुस्तक समीक्षा

कहा गया है, ‘उद्योगिनं सिंहमुपैति लक्ष्‍मी।’ उद्योगी पुरुष के पास लक्ष्‍मी स्‍वयं चल कर आती हैं। उद्योगपति समाजसेवी एम.आर. मोरारका के जीवन फलक पर दृष्‍टि डालने पर यही सिद्ध होता है। महज अनौपचारिक शिक्षा के बल पर एक 13 वर्षीय बालक का बंबई (अब मुंबई) पहुंच कर व्‍यावसायिक कामयाबियों के शिखर को छू लेना आसान काम नहीं है। मोरारका की कहानी को कॉफी टेबुल बुक पर दिनेशचंद्र शर्मा ने आकार दिया है।

1919 में शेखावटी जैसे छोटे शहर में जन्मे एमआर ने केवल छठी कक्षा तक की पढ़ाई की। अपने बलबूते हिंदी, संस्‍कृत और अंग्रेजी का पर्याप्‍त अध्‍ययन किया। उद्योग प्रबंधन, मानव संसाधन प्रबंधन, कारोबारी कुशलता, कंपनी अधिनियम तथा उद्योग स्‍थापित करने से संबंधित समस्‍त जानकारियों के अध्‍ययन से उन्‍होंने अपने भीतर जुझारू उद्यमिता विकसित कर एक टेक्‍सटाइल मिल खरीदी और उसके सफल संचालन के बाद पीछे मुड़ कर नहीं देखा। एक के बाद एक अनेक व्यावसायिक उद्यम स्‍थापित कर एमआर ने उद्योगपतियों की सूची में अपना खास मुकाम हासिल कर लिया। पुस्‍तक के प्राक्‍कथन में कमल मोरारका ने बाबू जी की अनुशासनप्रियता को याद करते हुए उनकी व्‍यावसायिक दक्षता को विनम्रता से स्‍वीकार किया है।

भारती मोरारका, रश्‍मि, प्रो. रेवाप्रसाद द्विवेदी और नंद किशोर नौटियाल जी के मंतव्‍य एमआर की महत्ता को स्‍थापित करते हैं। एमआर की व्‍यक्‍तित्‍व गाथा को छोटे-छोटे खंडों, आलेखों में रखा गया है, जिसमें नवलगढ़ में उनके जन्‍म से लेकर शेखावटी और जीवन संगिनी बेला बाई का परिचय दिया गया है। एमआर की धार्मिक स्‍थलों के प्रति निष्‍ठा, अध्‍यात्‍म में रुचि, उनके परोपकार, कर्मक्षेत्र में उनका प्रवेश और उनकी दूरदर्शिता के विभिन्‍न आयामों की जानकारी भी पुस्तक में दी गई है। सफल पूंजीपति होते हुए भी वे समाजवादी सोच के व्‍यक्‍ति थे, जो उनके सामाजिक कार्यों में किए गए योगदान से प्रकट होता है।

एमआर के दादा श्रीनिवास जी धार्मिक व्‍यक्‍ति थे। श्रीनिवास के ज्‍येष्‍ठ पुत्र रामकुमार 1930 के दशक में बंबई पहुंचे। बाद में परिवार के अन्‍य सदस्‍य भी। इस तरह वहां कारोबार जमता गया। रामकुमार जी जिस व्‍यवसाय में हाथ डालते, उसमें सफलता उनके कदम चूमती। उनकी मेहनत रंग लाई। 

एमआर ने पूंजीपति होते हुए भी ‘समाजवाद एक अध्‍ययन’ पुस्‍तक लिखी, जिसकी भूमिका जयप्रकाश नारायण ने लिखी थी। वे ऐसे उद्योगपति थे जिन्‍होंने अपने कर्मचारियों को भी मिल का सहभागी बनाया। उनकी सहधर्मिणी बेला बाई भी सरल और उदार महिला थीं, जिन्‍होंने कुशलता से पारिवारिक संचालन किया। परिवार में एक दौर ऐसा भी आया जब रामकुमार को अपने दोनों पुत्रों एमआर और आरआर के साथ परिवार से अलग होना पड़ा। लेकिन यहीं से उनकी बेहतरी का रास्‍ता खुलता गया। उन्होंने एक भवन निर्माण कंपनी स्‍थापित की। बाद में इंडिया यूनाइटेड मिल अंग्रेजों से कई सहयोगियों और हिस्‍सेदारों के साथ खरीद कर उसकी छह यूनिटों का इतना बेहतर संचालन किया कि मोरारका परिवार के पास टेक्‍सटाइल, चीनी, भवन निर्माण और सेलिंग एजेंसी जैसे उद्योग-धंधे आ गए।

मोरारका परिवार शुरू से ही धार्मिक रहा है। यह प्रवृत्ति एमआर में भी खूब थी। धार्मिक ट्रस्‍ट और कल्‍याणकारी संस्‍थानों की मदद भी इस परिवार ने की। एमआर आयकर अधिनियमों के विशेषज्ञ कहे जाते थे। उनकी कंपनियों में औद्योगिक सौहार्द ऐसा था कि कभी लेबर समस्‍या आई ही नहीं। मार्च 1985 में पत्‍नी बेला बाई के निधन के ढाई साल बाद एम.आर भी गोलोकवासी हो गए। 

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